विनोद दुबे, रायपुर। आपसी मन-मुटाव और पारिवारिक कलह, दहेज प्रताड़ना जैसे मामलों में अलग हुए परिवारों को मिलाने के लिए काउंसलिंग कराई जाती है. राजधानी के महिला थाना में काउंसलरों की टीमें ऐसे परिवारों से उनके अलगाव की वजह सुनने के साथ उनकी काउंसलिंग करते हैं. जिसके तहत उन्हें समझाईश देकर टूटे हुए परिवारों को जोड़ने का प्रयास किया जाता है. यहां शाम 4 बजे से लेकर रात के 10 बज जाते हैं. जो परिवार आते हैं उनके साथ ज्यादातर महिलाएं अपने छोटे-छोटे बच्चों को लेकर आती हैं. लेकिन काउंसलिंग के लिए महिला थाना पहुंचते हैं उन्हें खासी अव्यवस्थाओं का सामना करना पड़ता है.

अपने दर्द और तकलीफों के बीच रोते-रुलाते, आंसू बहाते उन चूर-चूर हुए ख्वाबों को लेकर एक उम्मीद में ऐसे परिवार काउंसलिंग के लिए हर रोज महिला थाना पहुंचते हैं. लेकिन ये क्या यहां तो बैठने की जगह ही नहीं है? थाना की दीवारें से लगे स्लैबों में कुछ लोगों को बैठने की जगह मिल जाती है लेकिन ये स्लैब भी ऐसे नहीं कि उनमें ज्यादा देर तक कोई बैठ सके. बाकी लोग या तो जमीन में बैठे नजर आते हैं या फिर बाहर सड़कों में खड़े हुए. गर्मी के मौसम में पसीने से तरबतर अपने बच्चों को कपड़ों- अखबारों से पंखा झुलाते देखा जा सकता है. अभी बारिश का मौसम हैं सांप बिच्छू के निकलने और काटने का खतरा भी है बावजूद नीचे जमीन पर बैठना उनकी मजबूरी है.

सबसे ज्यादा तकलीफ अपनी बेटियों और नाती-नातिन के साथ पहुंचे उन बुजुर्गों को उठानी पड़ती है. बैठने की बात छोड़ भी दें तो यहां पानी की भी कोई व्यवस्था नहीं है. किसी को प्यास लगे तो वह बाहर दुकान जाकर अपनी प्यास बुझाते हैं. उन सभी मां को यहां शर्मनाक स्थिति का हर रोज सामना करना पड़ता है जो कि अपने दुधमुंहे बच्चों को लेकर पहुंचती हैं. भीड़ में किसी तरह खुद को छिपाते हुए भूख से बिलख रहे अपने जिगर के टुकड़े को स्तनपान करा पाती हैं. और तो और अगर इसी बीच किसी को लघुशंका लग जाए तो वो अपनी तकलीफ को दबाए तब तक बैठा रहता है जब तक काउंसलिंग नहीं हो जाती. हमें ऐसे कई लोग मिले जो राजधानी में स्थित महिला थाने की अव्यवस्था से नाखुश नजर आए. लेकिन मजबूरी है वो जाएं भी तो कहां.

ऐसा नहीं कि यहां हर रोज सोमवार से शनिवार तक लगने वाले मज़मा पर किसी की नजर न पड़ी हो. मुख्य रोड में स्थित इस थाना के सामने से न जाने कितनी बार सरकार के आला अधिकारी, पुलिस महकमे के लोग व मंत्री गुजरते होंगे लेकिन एसी गाड़ी में चढ़े कांच से शायद ही उन्हें इनकी तकलीफ नजर आती होंगी. कभी भी साहेब लोगों ने उतर कर इन लोगों की परेशानियां जानने की कोशिश ही नहीं की. ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि अगर किसी ने झांका भी होता तो शायद उन सूनी आंखों, रोती मां की शक्ल और किलकारी मारते बच्चों की आवाज उनके कानों में भी दर्द घोल देती और यहां इन परिवारों को ऐसे खुले आसमान के नीचे 4 से 5 घंटा अव्यवस्थाओं के बीच बैठकर गुजारना नहीं पड़ता.