कहते हैं शिव बनकर ही शिव की पूजा सार्थक की जाती है- ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्।’ तदनुसार राम की पूजा तभी सफलीभूत होगी जब राम बनने का प्रयत्न किया जायेगा। अर्थात ‘‘रामपथगामी’’ होना पड़ेगा। याने राम के आदर्षों के अनुरूप आचरण अपने जीवन में अवतरित करना होगा। पर कितने राम्-आराधक जानते हैं कि ‘क्या थे आदर्श राम के ?’
पहला आदर्श—‘देशभक्ति राम की’

राम ने तीन तत्वों को तन-मन-जीवन में रचा लिया था। प्रथम सर्वोपरि आराध्य दैवत थी ‘‘देशभक्ति’’ राम की। तदर्थ ‘‘सर्वस्वार्पण’’ स्वीकारा था दशरथनंदन ने। और, उस साध्य की सफलता हेतु शक्ति-साधना की थी सीतापति ने। जब लंका जीत ली गई और अयोध्या वापस लौटने की याद आयी तब लक्ष्मण के मन में स्वर्णमयी लंका में रहने का भाव जागा था। क्यों? कारण अनेक थे, उन कारणों की चीरफाड़ करने की आवश्यकता नहीं। आज के संदर्भ में तो समझने की और आचरणों में लाने की बात है अयोध्या के प्रति अटल भक्ति राम की। राष्ट्रपुरुष राम ने राष्ट्रीयता का अमोध मंत्र दिया था लक्ष्मण के बहाने समग्र संसार को-‘‘ हे लक्ष्मण ! यद्यपि लंका स्वर्णमयी है तथापि यह मुझे किंचित भी रूचिकर नहीं लग रही है। अयोध्या के स्मरण मात्र से अन्तस् में अथाह आनंद-सागर लहराने लगता है। रोम-रोम पुलकित हो उठता है, क्योंकि जननी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर सुखदायी होती है, महान होती है’’-
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गाSदपि गरीयसी।।

वर्षों राम-राम जपने के बाद भी क्या आज तक राम की यह देशभक्ति देश-भर में छा सकी है ? यदि उत्तर नकारात्मक हो तो क्या समझना चाहिए ? यही ना कि राम के नाम पर केवल पाखंड पूजा ही हो रही है हर वर्ष। देश-प्रेम के मायने क्या है ? चहुँ ओर सीमाओं में सीमित जमीन के टुकड़ों से मोह मात्र देश-प्रेम नहीं कहलाता। ऐसे मोह के कारण तो माँ को ही मृत्युमुख में ढ़केलते, भाई-भाई खंजर से गले मिलते, पिता-पुत्र पराये बनते-बनाते यत्र- तत्र-सर्वत्र देखे जाते हैं। अतः देशप्रेम का अर्थ देश में रहने वाले जन-समुदाय को सहोदर समझते हुए परिवारवत प्यार करना होता है। समाज के सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझना, उसकी सुरक्षा-समृद्धि हेतु सर्वस्व समर्पण के लिये सदा सिद्ध रहना ही सच्चा देश-प्रेम कहलाता है।
दूसरा आदर्श—‘सब कुछ त्यागा राम ने’

यही देशप्रेम परर्मोच्च शिखर पर पहुँचा हुआ था अयोध्यावासी राम के अन्तःकरण में। उनका सारा जीवन लोकाराधन में ही व्यतीत हुआ। जनता जनार्दन के जाप में वे अपना सब कुछ भूल गये। जनहित में स्वाहा कर दिया स्नेह संबंधों को। स्व-सुखानंद सदा के लिये समाप्त कर दिया था उन्होंने। सुमन-शय्या तो स्वप्निल संसार में भी नहीं थी उनके। सत्तासीन होते-होते साये में समा जाना स्वीकार किया वनवास के। वापस आने के बाद भी सिंहासन-सुख नसीब नहीं हुआ उन्हें। जानबूझकर राज मुकुट को काँटो का ताज बना लिया। यह था दूसरा आदर्श उनका।

वैसे बड़े दयासागर थे श्रीराम किन्तु लोकहित में दया भी त्याग दी थी उन्होंने। जब सागरराज लंका-विजय में आड़े आ रहे थे तो दया छोड़ धनुष-बाण उठा लिया समग्र समुद्र सुखा देने हेतु। दयानिधि दशरथनंदन ने दया का एक छोटा सा टुकड़ा भी नहीं डाला जनकसुता की झोली में। प्राणप्रिय जानकी की अग्नि परीक्षा लंका में तो ली ही थी फिर भी उन्हें त्यागने में कोई संकोच नहीं किया सीतापति राम ने। जीव मात्र के दुख से द्रवित होने वाले करूणानिधान राम अपनी अर्धांगिनी सीता को दुबारा पवित्रता की परीक्षा देने का आदेश देने में जरा भी नहीं हिचके। लोकहित हेतु सर्वस्वार्पण के भाव से भरे श्रीराम स्वयं कहते हैं-
स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुंचतो नास्ति मे व्यथा।।

देशहित-जनहित, राष्ट्र-हित मे सभी स्वार्थों को स्वाहा कर देने का आदर्श था राम का। और, अहोरात्र आराधना करने वाले राम के , आजीवन आपादमस्तक आनंद लेते है स्वार्थ, सुखोपभोग के ! जपते हैं राम नाम, करते हैं स्वार्थ काम ! उन्होंने जनहित में बलि चढ़ाई स्वार्थ की, ये अपने स्वार्थ के लिये बलि ले लेते हैं जनहित की ! कैसा विरोधाभास है ? क्या यह पाखंड नहीं है।

‘राजा कालस्य कारणम्’- राष्ट्र में अच्छे बुरे काल के लिये उत्तरदायी राजा होता है। राजा के जीवन-व्यवहार का व्यापक प्रभाव पड़ता है प्रजा पर। यदि राजा सदाचारी है तो प्रजा भी सदाचरण करने का भरपूर प्रयत्न करती है। किन्तु यदि शासक भ्रष्टाचारी है तो प्रशासक भी भ्रष्टाचरण करने में नहीं हिचकेगा। तो फिर शासित-प्रशासित ही सदाचारी कैसे रहेंगे ? प्रकृति का नियम है-‘बहाव ऊपर से नीचे की ओर होता है। हवा भी उच्च दाब से कम दाब वाले क्षेत्र की ओर तेजी से बहती है।’ अतः वरिष्ठों के आचरण का असर कनिष्ठों पर होता ही है यह अच्छी तरह प्रभु राम के सिवाय और कौन जान सकता था ? इसीलिये उन्होंने इन ऊँचे आदर्शों को अपने जीवन में आचरित किया था क्योंकि- ‘यद् यद् आचरति श्रेष्ठ:, तद्तद् इतरे जनाः’।

तीसरा आदर्श—‘ संगठन साधना’
तीसरा आदर्श था उनका-‘संगठन’। ‘‘दुर्गा’’ का अर्थ ही होता है दुर्गति दूर करने वाली। कौन थी वह ‘‘दुर्गा’’? देवताओं की संगठित शक्ति ! दैवी गुण सम्पन्न समाज के प्रत्येक घटक ने जब अपना-अपना सर्वश्रेष्ठ समर्पित किया तब देवताओं की सम्मिलित संघ-शक्ति-दुर्गा ने शत्रु शिरोमणि महिषासुर का सर्वनाश किया। यही संदेश है शक्ति-साधना पर्व ‘‘नवरात्रि’’ का-‘संगठन में ही शक्ति है’। राष्ट्रपुरुष राम ने ‘शक्ति’ का यह स्वरूप समझकर ही स्वयं के आदर्श जीवन से सद्गुण सम्पन्न व्यक्तियों का संग्रहण किया। फिर उन्हें उत्तम रीति से मर्यादा (अनुशासन) में बाँधकर संगठित किया। तब कहीं जाकर साधन-हीन राम साधन- सम्पन्न राक्षसकुल का सर्वनाश कर पाये। ऐसे श्रीराम-आदर्श को अपना कर अपने जीवन में आचरित किए बिना श्रीराम-आराधना अधूरी है। ठीक वैेसे ही पाखण्ड है जैसे-‘राम-नाम जपना, पराया माल अपना’।