वैभव बेमतरिहा, रायपुर। छत्तीसगढ़ देश के नक्शे में एक ऐसा सूबा जो दूर से देखने वालों को बहुत छोटा नजर आता है, जो अपनी सीमाओं के दायरे के हिसाब से बहुत बड़ा भी नहीं। लेकिन कोई नजदीक आकर नजर डाले तो इस छोटे से सूबे में उसे सब-कुछ दिखाई देगा। नदियां, पहाड़, जंगल, उपजाऊ जमीन, खेत-खलिहान, पानी, बिजली, खनिज, मेहनतकश लोग. वो सब कुछ जो एक खुशहाल इलाके को चाहिए। लेकिन यहां खुशहाली के साथ उपेक्षा के दंश भी हैं। अपनी उम्मीदें पूरी न हो पाने का मलाल भी है। फिर भी भोले-भाले निश्छल छत्तीसगढ़ के चेहरे पर मुस्कान बरकरार है। हर हाल में खुश और आनंद में डूबे होने का अहसास कराने वाले छत्तीसगढ़ का यह चेहरा मेल खाता है एक ऐसे ही चेहरे से। यह चेहरा है पं श्यामलाल चतुर्वेदी का। एक ऐसी शख्सियत जो नदियों की मानिंद सहज-सरल, भोला-भाला, निश्छल भी है, पहाड़ों की तरह विशाल भी है, जंगल की तरह शांत और गंभीर भी है, हरे-भरे खेतों की तरह खुश और उन्नत भी है, बड़े-बड़े बिजली घरों की तरह ऊर्जा के प्रवाह से भरपूर भी है। हम बात कर रहे हैं एक ऐसे शख्स की जिनकी आत्मा में छत्तीसगढ़ बसता है। सच कहे तो श्यामलाल जी छत्तीसगढ़ में उस वट वृक्ष की तरह है जिनके छांव तले आप असल छत्तीसगढ़ को पाएंगे।
संगीतकार, साहित्यकार, पत्रकार और शिक्षक जैसे प्रभावकारी व्यक्तिव के धनी पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी जी के जीवन की शुरूआत जांजगीर जिले में अकलतरा के कोटमीसोनार गांव से होती है।
विक्रम संवत 1982 फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी 20 फरवरी 1926 की शुभ तिथि थी।मिट्टी के इस छोटे से कच्चे मकान में एक किलकारियां गूंजी। और एक स्वर्ण रंगधारी बालक ने जन्म लिया। कहते है जो असाधरण होते है वे अपने जन्म के साथ ही अपनी छाप छोड़ते चले जाते हैं। साल दर साल जैसे-जैसे श्यामलाल जी बड़े होते गए अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते चले। जब कोई आम बच्चा तब के समय में 6 साल से पहले विद्यालय के समुख भी नहीं भटकता था, तब आपका प्रवेश 5 साल के उम्र में ही विद्यालय में हो गया। 9 बरस के उम्र में पंडित जी चौथी पास कर चुके थे। चौथी पास करने के बाद आपको अकलतरा के एक आवासीय विद्यालय में पांचवीं कक्षा में प्रवेश कराया गया। लेकिन मां से दूरियां आपकों सहन नहीं हुई और आप पढ़ाई छोड़कर वापस अपने गांव आ गए। वक्त गुजरा और कैलेंडर पर दर्ज हुआ सन् 1940। महज सोलह बरस की उमर में दाखिल हुए थे श्यामलाल। औऱ इस कम उम्र में ही आप से ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की नर्मदा से आपका विवाह करा दिया गया। अपने से ज्यादा पढ़ी-लिखी जीवन संगिनी और शिक्षित ससुराल का असर ऐसा हुआ कि वापस आपका मन पढ़ाई की ओर रमने लगा। सन 1941 में अकलतरा माध्यमिक शाला से स्वधायी छात्र के तौर पर आपने कक्षा पांचवीं का इम्तहान पास कर लिया। चौथी की तरह पांचवीं में भी सर्वाधिक अंक लेकर आप शाला में अव्वल रहें। पढ़ाई के साथ-साथ आपका रूझान साहित्य के प्रति बढ़ने लगा।
इसी दौरान आप भारतेन्दु साहित्य समिति से भी जुड़ गए और फिर लगातार साहित्य सम्मेलनों में शिरकत करने लगे।डॉ. शिवमंगल सुमन और मुकुट धर पाण्डेय जैसे कवि आपके साथी हो गए थे। कविताओं के साथ आप कहानी, निबंध भी लिखने लगे। आपकी कविताओं का प्रसारण आकाशवाणी में होने लगा। सन् 1949 में आपकी छत्तीसगढ़ी कविताओं का प्रसारण नागपुर आकाशवाणी केन्द्र से हुआ। तब आप छत्तीसगढ़ के दूसरे कवि थे जिनका प्रसारण नागपुर केन्द्र से हुआ था।बाद में भोपाल, रायपुर, और बिलासपुर आकाशवाणी से आपकी कविताओं का प्रसारण होते रहा। दूरदर्शन रायपुर और भोपाल केन्द्र से भी काव्य पाठ का प्रसारण हुआ।यही नहीं दिल्ली केन्द्र से कहानी का भी प्रसारण हुआ ।इसी दौर में भारत और युनेस्को दूरदर्शन की ओर से २०-२० चुनिंदा लोक कथाओं के आदान-प्रदान को लेकर अनुबंध हुआ था। तब इस अनुबंध में आपकी दो छत्तीसगढ़ी लोककथाओं का चयन किया गया था।
सन् 1948.. यह वर्ष आपको एक नई शुरुआत और दिशा देने वाली थी। यह वो वर्ष था जब आप साहित्यकार के साथ पत्रकार बने। पत्रकार भी बने तो गांव के शिक्षक की प्रेरणा से। लेकिन हैरत की बात यह रही कि तब तक आप सिर्फ पांचवी ही पास थे। इसके बाद तो आप कई और प्रतिष्ठित अखबरों से भी जुड़ गए। लेकिन खास बात यह रही कि आप पत्रकारिता तब गांव में रहकर करते रहें। इधर पढ़ाई और पत्रकारिता के साथ-साथ आप राजनीति में भी आ गए गए थे, लेकिन राजनीति प्रवेश भी आपका बड़ा अचंभित कर देने वाला रहा।आश्चर्य ऐसा कि आप थे कांग्रेसी प्रवृत्ति के व्यक्ति, लेकिन राजनीति में आए आरएसएस के जरिए। जनसंघ ने आपको 195२ में अकलतरा विधानसभा चुनाव लड़ाने का फैसला लिया।आप ने जनसंघ की टिकिट पर ठाकुर राजपरिवार से कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ दमदारी के साथ चुनाव लड़ा।हालांकि आप चुनाव नहीं जीत सके। आप भले ही विधायक नहीं बने तो क्या हुआ।लेकिन आप सरंपच जरूर बनें।गांव वालो ने आपको निर्विरोध चुनते हुए कोटमी का सरपंच बना दिया। सरपंच बनते ही आपने पहला काम किया शराब भट्टी हटाने का। आप ने अपने कार्यकाल में गांव में विकास के कई काम किए। इसमें जुआ भी बंद कराना, स्कूल खुलवाना, वृक्षारोपण और भी बहुत कुछ। यही नहीं सन् १९५९ में जब तत्कालीन केन्द्रीय रेल मंत्री बाबू जगजीवन राम बिलासपुर दौरे पर कोटमी आए थे,तब आप कोटमी में रेल्वे स्टेशन स्वीकृत करा लिए। आप गांव वालों की इच्छा से सरपंच जरूर बन गए लेकिन आपकों कभी राजनीति रास नहीं आई। आपको करनी थी सिर्फ पत्रकारिता।लेकिन उस दौर में पत्रकारिता के दौरान समाचार भेजने के लिए बड़ी जहमत उठानी पड़ती थी।इन दिक्कतों के बीच आप कभी हारे नहीं।आपका जुनून कम नहीं हुआ।पत्रकारिता के प्रति आपकी ललक आपको गांव से निकालकर बिलासपुर खींच लाई। लेकिन सिर्फ पत्रकारिता से जिंदगी का गुजारा नहीं चलने वाला था।लिहाजा आपने बिलासपुर में जन भागीदारी से संचालित छत्तीसगढ़ विद्यालय में शिक्षक की नौकरी ग्रहण कर ली।
शिक्षक की नौकरी के साथ पत्रकारिता चलती रही।सुबह आप विद्यालय में सेवाएं देते फिर बाकी समय पत्रकारिता को। आप सन् 1952 से लेकर 79 तक हिदुस्थान समाचार समिति, सन् 1982 में नई दुनिया के बिलासपुर जिला प्रतनिधि रहें।फिर नई दुनिया के छत्तीसगढ़ राज्य प्रतनिधि के रूप में भी काम करते रहें। आप बिलासपुर से ही निकलने वाले लोक स्वर अखबार के संपादक भी रहें।आपने शिक्षक संदेश और क्षितिज त्रैमासिक पत्रिका का भी संपादन किया।वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैय्यर जी भी यही मानते है कि आप जैसे कर्मठ और इमानदार पत्रकार विरले हैं। पत्रकारिता के इसी दौर में आपकी मुलाकात जनसत्ता के संस्थापक स्वर्गीय प्रभाष जोशी से दो बार हुई।पहली मुलाकात बिलासपुर प्रवास के दौरान और दूसरी कलकत्ता में।ये प्रभाष जोशी की आत्मीयता और आपके विराट व्यक्तिव का प्रभाव था कि जोशी जी भी आपकों प्रणाम करते रहें। वैसे आपके चाहने वालों में स्वर्गीय प्रभाष जोशी ही नहीं।बल्कि स्वर्गीय खुशवंत सिंह जैसे पत्रकार भी रहें।
खैर मूलरूप से पत्रकारिता में रमने के बाद आप भले ही राजनीति से दूर हो गए। लेकिन भाजपा और संघ के नेताओं के साथ आपका घूमना-फिरना और उठना-बैठना चलता रहा। आप अविभाजित मध्यप्रदेश के सिंचाई मंत्री रहे स्वर्गीय मनहरण लाल पाण्डेय के मित्र के रूप में सदैव रहें। यही नहीं आपने छत्तीसगढ़ में कई स्थानों पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी के साथ भी दौरा किया। लीजिए हम आपकी राजनीति और पत्रकारिता की बात करते-करते आपकी आगे की शिक्षा और साहित्य के बारे में तो बताना भूल ही गए थे।मैट्रिक की शिक्षा आपने सन् 1956 में स्वधायी छात्र के रूप में बनारस से ली। फिर कला विषय में 1968 में बीए।1976 में एमए की पढ़ाई पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्याल से की।इसे एक संयोग ही कहे कि एमए की परीक्षा में ऐच्छिक विषय छत्तीसगढ़ी के प्रश्न पत्र में आपकी कविता पर ही आपको उत्तर लिखना था। आपकी इसी प्रतिभा को लेकर सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और साहित्यकार सुशील त्रिवेदी ये सवाल उठाते है कि आपको पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय प्राध्यपक क्यों नियुक्त नहीं किया। वे इसे श्यामलाल जी के साथ अन्याय करार देते हैं।
पत्रकारिता की जुनून और साहित्य अनुराग ने आपको समाज से ऐसा जोड़ा कि आपको घर की खबर ही नहीं होती।आप परिवार के बीच समय ही नहीं गुजार पाते।बावजूद इसके घर के लोग कभी आप से नाराज नहीं हुए। क्योंकि मर्म स्पर्शी स्वभाव, मधूर वाणी और संवेदनशीलता ने आपको परिवार से सदैव जोड़े रखा।शायद यही वजह है कि आपकी बहुओं ने आपमें हमेशा ससुर की जगह पिता वाली छवि ही देखी। वैसे आपने घर के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभाई।आप अपने पुत्रों के लिए न सिर्फ पिता रहें, बल्कि गुरू भी रहें।शायद इसी गुरूत्व का प्रभाव था कि आपकी विरासत को आपके सुपुत्र बतौर पत्रकार निभा रहे हैं। जिस तरह से आप अपने घर वालों के लिए आदर्श है वैसे ही आप न जाने-कितने लोगों के प्रेरणास्त्रोत बने।इसके पीछे आपकी नेकी, आपका सिद्धांत, आपका स्वाभिमान रहा।आपके इन आदर्शों के बीच कुछ रोचक पहलू भी रहे।कुछ आप बता रहे, कुछ वे लोग जिनके जीवन में बहुत कुछ ऐसा हुआ जिस पर उन्हें सहज ही विश्वास नहीं होता। वैसे आपकी खासियत ये है कि आप किसी की मदद करते तो उसे कभी दर्शाते नहीं। आप अपने मित्रों को हमेशा प्रोत्साहित करते रहते। आप जितने सिद्धांतवादी प्रवृत्ति के हैं वैसे ही आप अल्लड़ मस्त भी हैं। वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैय्यर जी ऐसी मस्ती से जुड़ा एक तथ्य बता रहें।
वैसे आपको छत्तीसगढ़ी का सम्राट कहे तो कोई गलत न होगा। छत्तीसगढ़ी के प्रति आपका समर्पण किसी त्याग और तपस्या से कम नहीं है।आपकी नस-नस-रग-रग में छत्तीसगढ़ी बसता और रचता है।भले ही छत्तीसगढ़ी साहित्य में आपकी प्रकाशित किताब गिने-चुने ही हो, लेकिन बारे में कहा जाता है कि आपने आधुनिक पीढ़ी को छत्तीसगढ़ी में लिखना-पढ़ना सीखाया है।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद जब छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के लिए आवाज बूलंद होने लगी, तो तमान संघर्षरत छत्तीसगढ़ी प्रेमी की बीच आप भी सौम्य रूप से मूखर रहें।राज्य सरकार ने आखिरकार 28 नवंबर 2007 को छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दे दिया।सरकार ने राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिए छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग का गठन किया।छत्तीसगढ़ी के प्रति आपके समर्पण को ध्यान में रखते हुए सरकार ने आपको छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग का प्रथम अध्यक्ष बना दिया।आपने 3 वर्षों तक आयोग में अपनी सेवाएं दी।आपने अपने कार्यकाल के दौरान पूरी ईमानदारी और निष्ठा से छत्तीसगढ़ी के प्रचार-प्रसार के लिए काम किया।लेकिन आप इस बात से बेहद दुखी रहे कि आपकी मंशा के अनुरूप सरकार की ओर से कार्य नहीं किए गए। छत्तीसगढ़ी को बढ़ावा देने की बात आई तो फिर आप बोलने से कभी चूके नहीं। फिर चाहे राज्यपाल को ही बोलना क्यों न पड़े।
वैसे आपको इसका बड़ा दुख है कि जिस उम्मींद से राज्य का गठन हुआ या कहिए जो सपने आप लोगों ने देखें थे वैसा छत्तीसगढ़ आप नहीं देख पा रहें हैं। हालांकि आप जात-पात, अमीर-गरीब, धर्म-संप्रदाय से परे होकर जिंदादिली से रहते है। आपकी यही जिंदादिली आपको समाज के हर वर्ग से जोड़ती है। वनवासियों के प्रति आपके मन में विशेष अनुराग है। यही खिंचाव आपको कई बरस से केंदई के घने जंगलों के बीच बसे वनवासी आश्रम में ले जा रही है।आप हर साल यहां होने वाले वनवासी सामुहिक विवाह समारोह में शिरकत करते हैं।स्वामी शारदानंद महराज के सानिध्य में होने वाले इस विवाह समारोह में आप आश्रम के संरक्षक के तौर पर भी काम कर रहे हैं।आप को यहां पहुंचते ही ऐसी ठंडक और सुकून मिलती है कि आप सहज ही कह उठते..
नदी-पहाड़,जंगल को लेकर आप चितिंत नजर आते है। छत्तीसगढ़ में होते वनों के दोहन आपको उद्देलित कर देता है।पर्यावरण के लिए बचपन से ही पक्षधर रहे आप प्रदेश में होते इसके नुकसान से विचलित हो उठते हैं।तभी तो शायद आप पेड़ काटने वालो के खिलाफ मौत की सजा जैसे कठोर कार्रवाई की मांग करते हैं।
लीजिए हम आपके व्यक्तिव में इतने खोते चले गए कि आपके कृत्विव की चर्चा भी अभी तक नहीं कर पाएं।लेकिन इससे पहले जरा चर्चा शास्त्रीय संगीत की कर ले।जिसमें आपकी न सिर्फ रूचि है ,बल्कि आप इसमें पारंगत भी हैं। बचपन से आपका रुझान संगीत और रासलीला की ओर भी रहा।आप गांव से कुछ दूर नरियरा गांव के रासलीला में कृष्ण का अभिनय किया करते थे।यही से ही आपने एक तरह से शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण प्राप्त किया।और जब भी मन करता आप इसी तरह घर पर ही अलाप भरने लगते, और खो जाते भक्ति संगीत में….शास्त्रीय संगीत में…।
आपके व्यक्तिव के आगे आपके कृत्तिव थोड़े कम है।लेकिन कम रचनाओं ने ही उन ऊंचाईयों को छू लिया है, जो हर रचनाकार की बस की बात नहीं।आप भले ही पत्रकारिता में ज्याद सक्रिय रहे, लेकिन आपकी साहित्यक यात्रा की शुरूआत तो पत्रकारिता से पहले से हुई थी। आपकी प्रकाशित साहित्यों में-
सन् १९५४ रामबनवास (छत्तीसगढ़ी),
भोलवा भोलाराम बनिस कहानी संग्रह(छत्तीसगढ़ी),
मेरे निबंध (हिन्दी निबंध संग्रह)
छत्तीसगढी काव्य संग्रह पर्रा भर लाई
आपकी अप्रकाशित कृतियों में-
छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य,
छत्तीसगढ़ी लोककथाएं,
स्मृति शेष विभूतियाँ
और मेरी कलम से
वहीं आपके “व्यक्तिव एंव कृतित्व विषय” पर वर्ष 1९८६-८७ में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर से लघु शोध प्रबंध भी हुआ।
इसके साथ ही पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से “समकालीन छत्तीसगढ़ी काव्य के संदर्भ में पं.श्यामलाल चतुर्वेदी के काव्य अनुशीलन विषय पर हिन्दी में पीएचडी के उपाधि हेतु शोध प्रबंध” विशेष है।
आपकी सबसे चर्चित काव्य संग्रह रही पर्राभर लाई। इस संग्रह की सबसे चर्चित रचना रही बेटी के बिदा। छत्तीसगढ़ी में लिखित इस रचना ने आपकों खूब वाहवाही दिलाई।लोग इसे सुनते या पढ़ते तो आंखों से आंसू निकल पड़ते।आपकी इस कालजयी रचना की प्रेरणा बनी थी आपकी पत्नी, जिनके प्रथम विदाई के दृष्य को देखकर आप खुद भी भाव विभोर हो गए थे।
आपने अपनी पत्रकारिता और साहित्य यात्रा के दौरान अनेक पुरस्कार और सम्मान प्राप्त किए..
सन् २००४ में छग शासन का राज्य अलंकरण – पं. सुंदरलाल शर्मा सम्मान
भोपाल में गणेश शंकर विद्यार्थी स्मृति सम्मान
रायपुर में ठाकुर प्यारेलाल स्मृति सम्मान
सन् २००२ भिलाई में कुमारीदेवी चौबे स्मृति वंसुधरा सम्मान
भोपाल में मप्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन में सम्मान
मैनपुरी उत्तरप्रदेश में एकरसानंद आश्रम की ओर से मंडल रत्न सम्मान
प्रयागराज इलाहाबाद चण्डीधाम संस्थान की पं.देवीदत्त शुक्ल शोध सम्मान
पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय की ओर से पदुमललाल पुन्नालाल बख्शी साधना सम्मान
सन् २०१३ में पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय की ओर से छत्तीसगढ़ रत्न सम्मान
इसके साथ ही अनेक साहित्य संस्थान, कला मंच और समाजिक संस्थानों की ओर ऐसे अनगिनत सम्मान आपको मिले है…..
आप कई सार्वजनिक संस्थानों में अध्यक्ष, संरक्षक के तौर भी सक्रिय रहे है….
आप छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के उपाध्यक्ष रहे
छग प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संरक्षक है
भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर के उपाध्यक्ष
वनवासी आश्रम केंदई के संरक्षक है
इस तरह से देखें तो लगता है कि आपका व्यक्तिव इतना विशाल है कि उसे हम शब्दों की सीमा में नहीं बांध सकते।हम शायद लिखते चले जाए ..हमारे शब्द कम पड़ जाएंगे… लेकिन आपके व्यक्तिव से जुड़े किस्से, कहानी या स्मृतियाँ नहीं….।
देखिये वीडियो
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