छत्तीसगढ़ की सियासत में इन दिनों एक चर्चा बेहद जोरों से चल रही है कि बेबाक, निर्भिक, निष्पक्ष पत्रकार रूचिर गर्ग ने सक्रिय पत्रकारिता को छोड़ यूं अचानक राजनीति का दामन क्यों और कैसे थाम लिया? यह खबर न केवल सियासी गलियारों में बल्कि उन्हें जानने और समझने वालों के बीच चर्चा का केंद्र बिन्दु बना हुआ है. सवाल कई हैं, जिसके जवाब लोग अपने-अपने ढंग से ढूंढ रहे हैं, लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यही है कि रूचिर गर्ग जैसे पत्रकार का यूं अचानक राजनीति में आ जाना क्या अनायास हुआ या फिर 33 साल की उपलब्धियों से भरे कॅरियर को छोड़ देश में पत्रकारिता की मौजूदा स्थिति पर उन्होंने बड़ा संदेश देने की कोशिश की है. सवाल यह भी है कि क्या मूल्यपरक पत्रकारिता के मजबूत स्तंभ में दरारें पड़ गई हैं कि लोकतंत्र को संरक्षित, पोषित और शोषित वर्गों से बचाने वाली पत्रकारिता का ही अवमूल्यन हो चला है, जिसकी वजह से रूचिर गर्ग जैसे सशक्त पत्रकार को भी राजनीति का विकल्प बेहतर लगने लगा? सवाल यह भी है कि देश में लोकतंत्र पर मंडराते खतरे का समाधान सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही है? लोग सवाल पूछ रहे हैं. सवाल उठा रहे हैं. लेकिन इनके जवाब ढूंढने वालों के बीच रूचिर गर्ग की पत्रकारिता के उन अध्यायों पर भी नजर डालनी चाहिए कि यह पेशा उनके लिए महज रोजी रोटी का एक जरिया मात्र था या फिर मानवीय संवेदनाओं से जुड़े उन पहलूओं को ढूंढना, उन्हें नतीजे तक पहुंचाने की चेष्टा भी थी, जिन्हें आमतौर पर नकार दिए जाते रहे.
रूचिर गर्ग ने यह चेष्ठा अपनी पत्रकारिता के दौरान बार-बार की है. चाहे वह बस्तर के सुदूर अबुझमाड़ के सुखराम की कहानी हो, जिसे महज विकलांगता प्रमाण पत्र नहीं होने की वजह से मेडिकल की काउंसलिंग में शामिल नहीं किया गया या फिर तेलीबांधा में तोड़फोड़ के दौरान मकान ढह जाने से अपने चिराग को खोने वाले उस परिवार के लिए हो, जो अपने बेटे की बुझ चुकी आंखों से दूसरे की जिंदगी को रोशन करने की मशक्कत करता खड़ा रहा. रूचिर गर्ग ही थे, जिनकी सशक्त पत्रकारिता ने व्यवस्था की भेंट चढ़कर माओवादी बनने से सुखराम को बचाया. आज सुखराम संभवतः अबुझमाड़ के जंगलों से निकला पहला डाॅक्टर है, जिसने अपने जैसे सैकड़ों-हजारों लोगों की जिंदगी को बेहतर कल का रास्ता दिखाया है. रूचिर गर्ग की ही कोशिशों का यह नतीजा रहा कि अपने चिराग को खोने वाला वह परिवार आज इस बात से सुकून से जी रहा है कि दुनिया छोड़ चुके उसके बेटे की नजरों से आज किसी घर का चिराग जगमगा रहा है.
वह रूचिर गर्ग ही थे, जिन्होंने 12 साल की उस बेसहारा लड़की के करूण रूदन को सुना था, जिसके सिर से मां-बाप का साया उठ गया था. खेलने-कूदने की नन्हीं उम्र में बर्तनों को साफ करते- करते हाथों में लगे जख्मों के बीच उसकी जिंदगी कट रही थी. रूचिर गर्ग ही थे, जिन्होंने लावारिस बच्चों की लगती बेतहाशा कीमत का भांडाफोड़ किया था. रूचिर गर्ग कभी शहर में मरते तालाबों को सहेजने की आवाज बने, तो कभी कटते पेड़ों की आंसूओं को अपने लेखनी के जरिए बयां कर जिम्मेदारों के जज्बातों को उकेरने का काम किया. सत्ता हो या समाज पत्रकारिता के जरिए लोगों को उनकी संवेदना शून्य के भाव से बार-बार जगाने की कोशिशें किसी ने जारी रखी तो वह रूचिर गर्ग ही थे. रूचिर गर्ग की पत्रकारिता मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं के इर्द-गिर्द ही नहीं सिमटी रही, बल्कि सरकारी तंत्र को आइना दिखाने की हिमाकत बार-बार करने की कोशिश जारी रखी. माओवादी, राजनीति, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में तटस्थता उनकी पत्रकारिता में नजर आती रही है. पत्रकारों की मुखर आवाज बन तंत्र का विरोध करने में भी गर्ग पीछे नहीं रहे. जब रूचिर गर्ग के लिए पत्रकारिता में करने के लिए इतना कुछ था, तो फिर राजनीति का विकल्प क्यों चुना? तमाम सवालों के बीच यह सवाल सबसे बुनियादी सवाल है, जिसका जवाब वह खुद देते हैं. रूचिर गर्ग कहते हैं कि –
अब तक पत्रकारिता करते हुए आम लोगों के सवाल उठाने की कोशिश करता रहा, लेकिन अब यह महसूस होने लगा था कि ये समय तटस्थता छोड़ने का है और आम लोगों के सवालों को स्पष्ट राजनीतिक स्टैंड के साथ संबोधित करने का है. आज जिस तरह देश में सद्भाव खतरे में है, लोकतंत्र खतरे में है, अभिव्यक्ति की आजादी संकट में है. तब इन सवालों को लेकर ही राजनीति करने के मकसद से मैंने कांग्रेस पार्टी ज्वाइन की है.
पत्रकारिता में सफल भविष्य को ठुकरा कर राजनीति का हाथ थामने वाले रूचिर गर्ग के इस निर्णय से देश की कई नामचीन हस्तियां भी हतप्रभ है, लेकिन उनकी राय यही है कि रूचिर का यह निर्णय लोकतांत्रिक मूल्यों की बेहतरी का रास्ता बन सकता है. लोगों की राय यह भी है कि रूचिर गर्ग जैसी शख्सियत के राजनीति में जाने से राजनीति समृद्ध होगी, लेकिन पत्रकारिता के लिए यह क्षति जैसी है.
आशीष तिवारी
( ये लेखक की निजी राय है)