शायर सुमित शर्मा की ओर से
रायपुर। आज मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की पुण्यतिथि है. प्रगतिशील लेखक के तौर पर कैफ़ी आज़मी की पहचान रही है. कैफ़ी आज़मी का नाम हिन्दुस्तान के आलातरीन शायरों में शुमार किया जाता है. उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के एक छोटे से गांव मिजवां में सन् 14 जनवरी 1919 में जन्मे कैफ़ी साहब का मूल नाम अख्तर हुसैन रिज़वी था. कैफ़ी आज़मी के पिता उन्हें एक मौलाना के रूप में देखना चाहते थे, लेकिन कैफ़ी आज़मी को उससे कोई सरोकार नहीं था और वह मजदूर वर्ग के लिए कुछ करना चाहते थे.
रायपुर। आज मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की पुण्यतिथि है. प्रगतिशील लेखक के तौर पर कैफ़ी आज़मी की पहचान रही है. कैफ़ी आज़मी का नाम हिन्दुस्तान के आलातरीन शायरों में शुमार किया जाता है. उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के एक छोटे से गांव मिजवां में सन् 14 जनवरी 1919 में जन्मे कैफ़ी साहब का मूल नाम अख्तर हुसैन रिज़वी था. कैफ़ी आज़मी के पिता उन्हें एक मौलाना के रूप में देखना चाहते थे, लेकिन कैफ़ी आज़मी को उससे कोई सरोकार नहीं था और वह मजदूर वर्ग के लिए कुछ करना चाहते थे.
1942 मे कैफ़ी आज़मी उर्दू और फारसी की उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ और इलाहाबाद भेजे गए. लेकिन कैफ़ी ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की सदस्यता स्वीकार कर पार्टी कार्यकर्ता के रूप में कार्य करना शुरू कर दिया और फिर अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गए. कैफ़ी साहब की रचनाओं में मज़लूमों का दर्द पूरी शिद्दत से उभर कर सामने आता है. 10 मई 2002 को कैफ़ी साहब इस दुनिया को अलविदा कह चले गए. लेकिन उनकी लिखीं तमाम रचनाएं आज भी उन्हें सबके दिलों में ज़िंदा रखे हुए है.
सुमित ने लल्लूराम डॉट कॉम को कैफ़ी आज़मी के सैकड़ों गीत-गज़ल और नज़्म में से उनका सबसे प्रसिद्ध कलाम भेजा है. वो कलाम हम ने पाठकों से साझा कर रहे हैं-
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी ।
ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी,
पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हमने,
इन मकानों को ख़बर है न, मकीनों[1] को ख़बर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हमने ।
हाथ ढलते गए साँचों में तो थकते कैसे,
नक़्श के बाद नए नक़्श निखारे हमने,
की ये दीवार बुलन्द, और बुलन्द, और बुलन्द,
बाम-ओ-दर[2] और ज़रा और निखारे हमने ।
आँधियाँ तोड़ लिया करतीं थीं शामों की लौएँ,
जड़ दिए इस लिए बिजली के सितारे हमने,
बन गया कस्र[3] तो पहरे पे कोई बैठ गया,
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश[4]-ए-तामीर[5] लिए ।
अपनी नस-नस में लिए मेहनत-ए-पैहम[6] की थकन,
बन्द आँखों में इसी कस्र[7] की तस्वीर लिए,
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक,
रात आँखों में खटकती है सियाह[8] तीर लिए ।
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी ।
शब्दार्थ
1मकानों के निवासी 2 छत और दरवाज़े 3 महल 4 शोरगुल
5 सृजनात्मकता 6 छुपी हुई मेहनत 7 महल। 8 अन्धेरा