लेख, टीवी एंकर, संदीप अखिल, रायपुर। विचार यात्रा को प्रारंभ करने के पूर्व मैं छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की उस पावनधरा (पुरानी बस्ती)  की  वह भूमि जो उस महान मनीषी के चरण रज से धन्य हुई थी उसे नमन करता हूँ. स्वामी विवेकानंद जी का  उदात्त मानवतावादी  चिंतन बहुत समृद्ध है, सम्पन्न है और विशाल है। अपने छोटे से ज्ञान कटोरे  में उस व्यापक विराट उदात्त उदार विचारधारा को समेट पाना मुश्किल है. फिर भी आज के कुछ व्यवहारिक विषय जो आज भी प्रासंगिक हैं उनके कुछ बिंदुओं पर चर्चा करना चाहता हूं. आज हम हमारा चिंतन हमारा समाज हमारी परंपराएं, हमारे नैतिक मूल्य कितने भटक गए हैं इस विषय के लिए स्वामी जी के शिकागो धर्म सम्मेलन का पहला ही संबोधन वाक्य पर्याप्त है।

अपने संबोधन से उस मनीषी ने विश्व के धर्म  वक्ताओं को हिला कर रख दिया था. भारतीय उच्च संबंधों की मान्यताओं का कीर्ति ध्वज फहराया था, उन्होंने कहा था, “भाइयों और बहनों.”

इन दो पवित्र संबोधन एवं संबंधों पर यदि हम आज के सामाजिक  परिवेश पर विचार करेंगे तो पाएंगे उसी मनीषी के इस देश में दोनों संबंध भाइयों और बहनों आज निरीह से हो गये है, बौने हो गये है. या यूँ कहूँ कि विकलांग हो गए हैं, जो गिरते मानवीय मूल्यों और विकसित संस्कृति के अंधानुकरण की धुन्ध में अपने अस्तित्व को उसी के देश में खोज रहे हैं. क्या आज के समाज में उस उच्च विचार मनीषी के मानकों मापदंडों के अनुरूप हम भाई और बहन बन पाए हैं ? जब प्रस्तावना के संबोधन के अनुरूप नहीं हो पाए तो उपसंहार का प्रश्न ही नहीं होता. इसलिए स्वामी जी द्वारा बोले गये हर वाक्य, हर संबोधन एक बीज मंत्र है जो सदैव प्रासंगिक है. उन्होंने उस समय देखा की धर्म भोगवाद की राख के ढेर में चिंगारी के भाँति सुलग रहा है, धर्म भारत का नाड़ी केंद्र है और उन्होंने निश्चय किया, कि इस राख के ढेर को उड़ाना होगा तब धर्म की चिंगारी अपने अस्तित्व में आएगी और भारत में नया आलोक आएगा, नए वैचारिक युग की शुरुआत होगी. उन्होंने एक उदारवादी धर्म व्यवस्था कि नई व्याख्या दी, वह था मानवतावादी धर्म उसमें सभी जाति वर्ग संप्रदाय की मान्यताओं के सम्मान के साथ एक नेक इंसान, एक सफल किसान, एक समृद्ध व्यापारी एवं कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी की परिकल्पना थी. जिससे समाज के वैचारिक चिंतन का ढांचा सुदृढ़ होगा, इसके केंद्र में होगा अच्छा मानव बनना.

अच्छे समाज के लिए अच्छा इंसान बनना आवश्यक है उन्होंने संवेदना की नब्ज़ को टटोला, संवेदनहीन समाज शुष्क नीरस और कठोर होता है, उसमें संवेदना जागृत करने की आवश्यकता होती है. उन्होंने एक छोटे से सूत्र से बहुत बड़ा समाधान दिया, ‘नर नारायण’ की सेवा ‘दरिद्र नारायण ‘की सेवा. इस छोटे से उपक्रम सूत्र में बड़ी सुखद सम्भावनाएँ छिपी हुई थी. ‘नर में नारायण’ को देखने से धर्म अपनी विराटता को पाएगा और ‘दरिद्र नारायण’ की सेवा से संपन्नता और विपन्नता की खाई कम होगी. इंसान -इंसान के समीप आएगा, दोनों में संवाद होगा और इसी संवाद सामीप्य से बंधुत्व  की ठोस मजबूत आधारशिला रखी जाएगी. यही था उनका एकात्म  मानवतावादी दृष्टिकोण, एक अच्छा मनुष्य ही एक अच्छा नागरिक बन सकता है. आज सोचिए! विकास के इस वैज्ञानिक युग में हम चंद्रमा के नजदीक हो गए, खगोल की सीमा जानकर नक्षत्रों के समीप हो गए पर जरा सोचिए, एकांत में, कि आज इंसान, इंसान से कितना दूर हो गया, उनकी समरस समाज बनाने की परिकल्पना थी, पाखंड प्रदर्शन के प्रति उनकी  मान्यताएं  भिन्न थीं.

वे स्वच्छ निर्मल विचार से भारत के समाज का ताना बाना बुनना चाहते थे. एक उदार मानवतावादी दृष्टिकोण था उनका, उनकी मान्यता थी, “क्या करेगा प्यार वह जहान से, क्या करेगा प्यार वह भगवान से, जन्म लेकर गोद में इस धरा के, कर न पाया जो प्यार इंसान से, “मेरा विश्वास है कि जब भी देश और देश की युवा शक्ति अपने मार्ग से भटकने लगेंगे तो कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद जी के विचार समाधान के सूरज के रूप में आकर उस अंधकार को दूर कर देंगे.