संपादकीय। राजनीतिक पार्टियाँ राजनीति में सुशासन, सुचिता की बात जरूर करती है, लेकिन इसका पालन कोई भी दल सही मायने में नहीं कर पाता. क्योंकि राजनीति में अनुशासन या सुशासन नहीं, बल्कि साम-दाम-दंड-भेद जरूरी है. ऐसे में जीत के लिए आदर्श, सिद्धांत को मारना ही पड़ता है. आम तौर पर ऐसी स्थितियाँ अब बड़े से बड़े और छोटे से छोटे चुनाव में देखी जा सकती है. छत्तीसगढ़ जैसा छोटा राज्य भी इन स्थितियों को कई बार देख चुका है. उस दौर मेें भी जब राज्य का गठन हुआ था. उसके बाद भी यह सिलसिला जारी रहा, लेकिन खुलकर ऐसी स्थिति कभी बनीं, क्योंकि ऐसी स्थिति तभी बनती है जब चुनाव की प्रकिया बदलती है. छत्तीसगढ़ में छोटे स्तर के चुनाव में यह प्रकिया 2019-2020 में बदली और इस बदली हुई प्रकिया में जीत के लिए खुलकर अपनाए जाने वाले राजनीतिक हंथकंडे देखने को भी मिले, जिसे देखकर यह तो नहीं कहा जा सकता सच्चा लोकतंत्र यही है ?

बात छत्तीसगढ़ में अप्रत्यक्ष प्रणाली से सपन्न हुए चुनाव की हो रही है. शहरी सत्ता के लिए जिस तरह से महापौर, अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव हुआ वह कई सवालों को जन्म देता है ? सवाल इन मायनों में कि निर्दलियों का समर्थन जुटाकर अगर कोई सत्ता में काबिज हो जाए तो इसमें बहुत अधिक आश्चर्य नहीं हुआ जा सकता है, लेकिन जहाँ पर किसी दल का पूर्ण बहुमत से कहीं अधिक का आंकड़ा हो और फिर भी वहाँ बहुमत से कहीं दूर रहने वाली पार्टी सत्ता पर काबिज हो जाए हैरानी जरूर होती है ! कोई पार्टी अगर इस तरह जीतती है तो इसे लोकतांत्रिक प्रणाली की जीत नहीं कही जा सकती है. वास्तव में यह लोकतंत्र की हार मानी जाएगी ! हार इन मायनों में क्योंकि तंत्र(सिस्टम) में लोक ने बहुमत तो उस दल को दी नहीं, जिसने सत्ता किसी भी सूरत में हासिल कर ली. यह तो उन मतदाताओं से एक बड़ा धोखा है, जिन्होंने एक छाप या बैनर के तले अपना पार्षद चुना और फिर उन पार्षदों ने अपने छाप या बैनर के बाहर जाकर किसी अन्य छाप या बैनर का महापौर या अध्यक्ष चुन लिया है !

एक नज़र आंकड़ों पर
रायपुर नगर निगम में किसी भी पार्टी के पास पूर्ण बहुमत नहीं थी. कांग्रेस के पास 34, बीजेपी के पास 29 और निर्दलियों की संख्या 7 थी. निगम में कब्जा उसी दल का हो सकता था जिसे निर्दलियों का समर्थन मिलता. इस मामले में कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक रणनीतियों के साथ निर्दलियों का समर्थन प्राप्त कर लिया. यहाँ कांग्रेस को तोड़ने की तो नहीं लेकिन जोड़ने का काम पूरा कर लिया. इसी तरह से राजनांदगांव, धमतरी, रायगढ़, दुर्ग में कांग्रेस निर्दलियों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब रही और सत्ता पर काबिज हो गई. अन्य निगमों में कोरबा को छोड़ कांग्रेस के पास पूर्ण बहुमत है.

निगम में अच्छी बात ये रही कि गैर दलीय लोगों को संग जोड़ा गया, लेकिन पालिका और पंचायतों में कुछ शहर ऐसे जहाँ पूर्ण बहुमत के बाद भाजपा काबिज नहीं हो सका, क्योंकि यहाँ पर उनके पार्षद तोड़ लिए गए.

तिल्दा नगर पालिका- यहाँ पर कुल वार्ड 22 है. इसमें 13 में भाजपा जीती, तो कांग्रेस 6 में जीती है. वहीं निर्दलीय 3 में काबिज है. अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पद के लिए बीजेपी के पास पूर्ण बहुमत थी, लेकिन जब चुनाव हुए तो यहाँ कांग्रेस 15 वोट हासिल कर सत्ता पर काबिज हो गई. जबकि निर्दलियों का सहारा लेने के बाद कांग्रेस के 9 ही संख्या हो रहे थे, जाहिर 6 वोट भाजपा के कांग्रेस ने अपने पक्ष में तोड़ लिए.

बेमेतरा नगर पालिका-  यहाँ पर कुल वार्ड 21 है. इसमें 12 भाजपा, तो 8 में कांग्रेस जीती है. जबिक 1 में निर्दलीय काबिज है. यहाँ भाजपा के पास पूर्ण बहुमत थी. लेकिन जब चुनाव हुए तो कांग्रेस 15 वोट हासिल कर सत्ता पर काबिज हो गई. यहाँ भी कांग्रेस भाजपा के 6 वोट तोड़ने में कामयाब रही.

नैला नगर पालिका- यहाँ कुल वार्ड 25 है. इसमें 13 भाजपा, 9 कांग्रेस और 3 पर निर्दलियों का कब्जा है. यहाँ भाजपा के पास पूर्ण बहुमत थी, लेकिन चुनाव के बाद यहाँ कांग्रेस बहुमत हासिल सत्ता पर काबिज हो गई. यहाँ भाजपा का वोट कांग्रेस को गया.

सक्ति नगर पालिका- यहाँ कुल वार्ड 18 है. इसमें 9 कांग्रेस, 8 भाजपा और 1 पर निर्दलीय काबिज है. यहाँ किसी भी के पास पूर्ण बहुमत नहीं था. लेकिन जब चुनाव हुए कांग्रेस यहाँ 13 वोट हासिल कर सत्ता पर काबिज हो गई. यहाँ 3 भाजपा के 3 वोट कांग्रेस को गए.

गुरूर नगर पंचायत-  यहाँ पर कुल वार्ड 15 है. इसमें भाजपा 8 तो कांग्रेस 7 में जीती है. भाजपा के पास पूर्ण बहुमत थी, बावजूद इसके कांग्रेस ने यहाँ सत्ता कर लिया. इसी तरह चांपा नगर पालिका,  भटगांव, कसडोल, बगीचा सहित कई ऐसे नगर पंचायतें रही जहाँ भाजपा का वोट कांग्रेस को गया है.

दरअसल सच्चाई ये है कि राजनीति में कभी सुचिता हो नहीं सकती है. इस मौके पर छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी का यह कथन उचित जान पड़ता है, जिसमें वे बेबाकी से साफ-साफ कहते हैं कि राजनीति में जीत के लिए सब जरूरी है. फिर चाहे वह जिस रूप मिले. राजनीति में साम-दाम-दंड-भेद सब अपनाने पड़ते हैं. उन्होंने खुद भी इसे अपनाया है. वास्तव में इस रूप को वर्तमान में देखा जा सकता है.

राजनीति में सौदेबाजी की अनेक कहानियाँ मौजूद हैं. इन कहानियों में सच्ची घटनाओं का उल्लेख भी है. जाहिर है भविष्य में कभी छत्तीसगढ़ के नगरीय निकाय चुनाव पर कोई कहानी लिखी जाएगी तो 2019-2020 में सपन्न हुए चुनाव की सच्ची घटनाओं का भी विवरण लिया जाएगा. उन घटनाओं का जहाँ पर तंत्र में लोक फंसा हुआ, कुचला हुआ, दबा हुआ या फिर हारा हुआ दिखाई देगा. लेकिन तंत्र में लोक का यही हार सही मायने में राजनीति की जीत है. इसलिए सभी को जीत का जश्न मनाना चाहिए.

लेख- वैभव बेमेतरिहा
यह लेखक अपना निजी विचार है.