रायपुर। जब कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में जीत की ख़बर मिली तो दोपहर बाद भूपेश बघेल रायपुर के प्रदेश कार्यालय पहुंचे. वे कार्यालय पहुंचते, उससे पहले कार्यकर्ताओं ने उन्हें गाड़ी से उतार लिया. खुली जीत में नारे और ढोल नगाड़ों के साथ कांग्रेस भवन लेकर आए. कार्यकर्ताओं और मीडिया ने उन्हें रात 8 बजे तक घेरे रखा. एक मिनट भी ऐसा नहीं गुज़रा जब उनके आसपास सेल्फी और बाइट लेने वालों की भीड़ न लगी हो.

दरअसल कांग्रेस भवन में कांग्रेसी अपने नायक का स्वागत करने को आतुर हुए जा रहे थे. आतुर होना स्वभाविक भी था कि क्योंकि कांग्रेसियों को 15 साल बाद सत्ता में वापसी करने का मौका जो मिला था. शायद कांग्रेसियों ने भी नहीं सोचा था कि ऐतिहासिक जीत के सत्ता हासिल करेंगे.  ऐसे में लाजिमी था कि प्रदेश कांग्रेस के नेतृत्वकर्ता भूपेश बघेल का न सिर्फ वे सब स्वागत करे बल्कि उनके साथ तस्वीरें लेकर ऐतिहासिक पल को यादगार बना ले.

कांग्रेसी ये बखूबी जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस  की इस जीत में बघेल की पिछले पांच साल की मेहनत, ज़मीनी लड़ाई और अपनी आक्रामकता को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता. लेकिन इस जीत के और साथी नायक हैं नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव. सदन का जिम्मा टीएस सिंहदेव ने संभाला तो सड़क और न्यायालय की लड़ाई कांग्रेस ने भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेसियों ने लड़ी. शुरु के दिनों में भूपेश बघेल सदन में इतने आक्रामक रहे कि सरकार के मंत्री टीएस सिंहदेव पर व्यंग करते रहे कि भूपेश की नज़र नेता प्रतिपक्ष पद पर है.

भूपेश बघेल ने पांच सालों में सड़क की जबर्दस्त लड़ाई बीजेपी के खिलाफ लड़ी. हर संभाग में पदयात्रा की. अपनी गाड़ी से करीब 2 लाख किलोमीटर का दौरा किया.  इन यात्राओं के जरिए भूपेश ने न सिर्फ संगठन को मज़बूत किया बल्कि आंदोलन करके कार्यकर्ताओं को चार्ज करते रहे.

इन बातों ने ही कांग्रेस के पक्ष में नतीजों को इतना झुका दिया. जबकि तमाम सर्वे और विश्लेषकों के अनुमान कह रहे थे कि कांग्रेस की सबसे बड़ी जीत राजस्थान में होगी. मध्यप्रदेश में जीत की संभावना दूसरे नंबर पर थी. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा का पलड़ा बराबर के करीब बताया जा रहा था. माना जा रहा था कि कांग्रेस के पास छत्तीसगढ़ में राजस्थान में अशोक गहलोत, सचिन पायलट और मध्यप्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा चेहरा कांग्रेस के पास नहीं है. अजीत जोगी की पार्टी भी कांग्रेस की संभावनाओं को कम कर देगी. लेकिन भूपेश बघेल के नेतृत्व ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ऐसा साधा कि छत्तीसगढ़ की फिज़ा ही बदल गई.

भूपेश बघेल ने साल 2013 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस की कमान संभाली. उस वक्त कांग्रेस को झीरम में अपनी पूरी एक लीडरशिप खोने का गम और 2013 के विधानसभा चुनाव में हार की टीस थी. पार्टी के कार्यकर्ता हताश थे. पार्टी संसाधनों के मामले में बीजेपी के मुकाबले काफी पीछे थी. दूसरी तरफ मोदी के प्रधानमंत्री बनने की ख़बर के बाद बीजेपी के कार्यकर्ता चार्ज थे.

भूपेश बघेल के सामने सबसे बड़ी चुनौती कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार करके बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस को खड़ा करना था. उन्हें साथ मिल रहा था नेता प्रतिपक्ष के रुप में टीएस सिंहदेव का. दोनों के नेतृत्व में कांग्रेस ने 2014 का छत्तीसगढ में चुनाव लड़ा लेकिन पार्टी को मुंह की खानी पड़ी. किसी तरीके से पार्टी को दुर्ग में एक सीट पर जीत मिली. अपने पहले ही इम्तेहान में भूपेश बघेल फेल हो गए.

फिर नगरीय निकाय और ग्रामीण निकाय के चुनाव हुए. सही उम्मीदवारों के चयन और ज़मीन पर भाजपा का डटकर मुकाबला करने से कांग्रेस ने चुनाव में जोरदार जीत दर्ज करके हताश हो चुके पार्टी कार्यकर्ताओं को यकीन दिलाया कि वो बीजेपी को हरा सकते हैं.भूपेश बघेल ने सीधी लड़ाई में यकीन किया.

राहुल गांधी की तर्ज पर उन्होंने अपने निशाने पर नेतृत्व को रखा. पांच साल भूपेश बघेल के निशाने पर मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह और संघ परिवार को ही रखा. ऐसी लड़ाई करने से उनके पूर्ववर्ती बचते रहे.

राशन कार्ड, नान घोटाला उठाकर भूपेश बघेल ने सरकार को घेरा तो दूसरी तरफ किसानों के बोनस, समर्थन मूल्य और किसानों की खुदकुशी के मुद्दे को ज़ोरशोर से उठाकर इसे 2018 चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया.

कांग्रेस छत्तीसगढ़ में पहली बार अपने बूथ स्तर पर फैले अपने संगठन के साथ चुनाव लड़ रही थी.  2017 से कांग्रेस ने बूथ स्तर पर कांग्रेस को मज़बूत करने का काम किया. प्रभारी महामंत्री पीएल पुनिया की अगुवाई में कांग्रेस ने इस पर काम किया.  विनोद वर्मा, राजेश तिवारी, करुणा शुक्ला और सुरेंद्र शर्मा की ट्रेनिंग के जरिए हर कार्यकर्ता को इस बात को बूथ की अहमियत बताई गई. जिसका फायदा चुनाव में कांग्रेस को हुआ.