बस्तर की लड़ाई सिर्फ एक सीट या वोट की लड़ाई नहीं है. बस्तर की लड़ाई आदिवासियों के उन सवालों की लड़ाई है जिनका हवाला देकर माओवादियों ने वहां पैर जमाए और उनके कथित प्रभाव के लगभग साढ़े तीन दशक बाद भी यदि कुछ हासिल हुआ है तो बंदूक, बारूद और खून में इज़ाफ़ा. बंदूक इधर की हो या उधर की, इसका अपना सैन्य अर्थशास्त्र है. ये अलग विषय है, लेकिन बस्तर सदियों के शोषण से मुक्त नहीं हुआ है. ये एक बड़ी बहस हो सकती है कि मुक्ति का रास्ता किधर है ? लेकिन हिंसक नक्सल प्रयोग (यहां समाजशास्त्र या राजनीतिशास्त्र प्रयोग शब्द के उपयोग की इजाज़त देते हैं या नहीं पता नहीं) विफल रहा है. इसकी वजह ये है कि माओवादी संसदीय लोकतंत्र को खारिज करते हुए जिस क्रांति के सपने के साथ एक विचारहीन हिंसा में लिप्त थे, उसने वैचारिक और व्यावहारिक तौर पर अंततः कथित राजनीतिक हिंसा के उनके सारे तर्कों को खोखला साबित किया और आज उनकी उपस्थिति एक हिंसक समूह की तरह ही नज़र आती है.

बस्तर के आदिवासियों के लिए उनकी जमीन शायद सबसे बड़ा सवाल है और वहां भू-अधिग्रहण से लेकर लघु वन उपज के दाम तक उनकी ज़िंदगी से जुड़े तमाम सवाल हमेशा ही संसदीय लोकतंत्र के इर्दगिर्द रहे. टाटा के लिए आदिवासियों की ज़मीन हथियाने का ज़बरदस्त संगठित विरोध सीपीआई ने किया. ये विरोध इतना तीव्र था कि भारी भरकम फोर्स भी प्रभावित ग्रामीणों के इरादों को डिगा ना सकी थी. कांग्रेस पार्टी ने इस अधिग्रहण का हर स्तर पर विरोध किया था. मुझे याद है कि इस मुद्दे पर विधानसभा में तब कांग्रेस पार्टी के तेजतर्रार विधायक मोहम्मद अकबर के सवालों पर तत्कालीन सत्ता किस तरह विचलित हुई थी. यह लड़ाई संसदीय लोकतंत्र लड़ रहा था और वो संसदीय लोकतंत्र ही है जिसने बस्तर में टाटा के लिए किए गए ज़मीन अधिग्रहण के खिलाफ जनता का फैसला सुनाया. नई सरकार बनी और आदिवासियों को उनकी ज़मीनें वापस हुईं. इस पूरी प्रक्रिया में माओवादी नहीं थे. इस पूरी प्रक्रिया में उनकी हिंसा की कोई भूमिका नहीं थी. भूमिका थी वोट की.आदिवासी जनता के लोकतांत्रिक फैसले की. आदिवासियों को मिलने वाले तेंदूपत्ता के दाम में इजाफा हुआ तो वहां संसदीय लोकतंत्र था. अविभाजित मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने ही तेंदूपत्ता संग्रहण का काम निजी हाथों से छीन कर उसका सरकारीकरण किया था. तब के नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप ने इसका विरोध किया था. वो निजीकरण के समर्थक थे क्योंकि ठेकेदारों से तगड़ी लेवी मिलती थी. आज इन्हीं आदिवासियों को सरकार तेंदूपत्ता का जो दाम दे रही है वो शायद देश में सबसे ज़्यादा है.

बस्तर में संसदीय लोकतंत्र अपनी तमाम कमज़ोरियों के बावजूद बड़ी भारी कुर्बानियां दे रहा है. माओवादियों द्वारा पुलिस मुखबिरी के नाम पर गरीब आदिवासियों की नृशंस हत्याओं से लेकर झीरम घाटी में कांग्रेस पार्टी की एक पूरी नेतृत्वकारी पीढ़ी का सफाया संसदीय लोकतंत्र की कुर्बानियों का उदाहरण है. इस हमले ने कांग्रेस पार्टी को झकझोर डाला था लेकिन पार्टी ने खुद को संभाला और चुनाव मैदान में उतरी. यह ताकत संसदीय लोकतंत्र में उसकी आस्था से ही मिलती है. अब विधायक भीमा मंडावी की हत्या का उदाहरण सामने है. ऐसा नहीं है कि संसदीय लोकतंत्र में सरकारें निरंकुश और तानाशाह फैसले नहीं करती हैं. सलवा जुडूम इसी लोकतंत्र पर कलंक की तरह गुदा हुआ है. ऐसी निरंकुशता के खिलाफ कहीं सुप्रीम कोर्ट है, कहीं संसद और कहीं विधानसभा है. संविधान में आस्था रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हैं और चुनाव तो हैं ही. बस्तर में सामाजिक कार्यकर्ताओं की लंबी सूची है जिन्होंने संसदीय लोकतंत्र के औजारों से ही इसकी हिफाज़त की लड़ाई लड़ी. सरकारों से इनकी शिकायतें भी गैरवाजिब नहीं हैं लेकिन तब भी जवाब संसदीय लोकतंत्र है, इस देश का संविधान है.

बस्तर में पिछले चुनावों में जिस तादाद में नदी ,पहाड़ ,जंगल लांघ कर ,माओवादी बंदूकों के खतरे के बीच आदिवासी वोट डालने निकले वो संसदीय लोकतंत्र में उनकी आस्था और उम्मीदों को ही दर्ज करता है. दरअसल बस्तर का आदिवासी वोटर ही संसदीय लोकतंत्र को यह प्रेरणा भी देता है कि ये लड़ाई कठिन है पर ज़रूरी है. इस वोटर के लिए सबसे बड़ा सवाल उसकी जमीन,उसकी नदियां ,उसके जंगल और पहाड़ हैं. ये खतरे में हैं. इन पर खतरा ऐसे लोगों से भी है जो संसदीय लोकतंत्र के भीतर बैठ कर उसकी जड़ें खोदते हैं. अगर एक तरफ बस्तर में लोकतंत्र पर नक्सल बंदूकों का हमला है तो दूसरी ओर ये लोग हैं जो बस्तर पर विकास का नाम लेकर हमला कर रहे हैं. इनके खिलाफ भी औजार वोट ही है.

बस्तर में लोकतंत्र के सवाल इन बड़े उदाहरणों से भी ज़्यादा बड़े हैं. संसदीय लोकतंत्र अपनी कमजोरियों,ढेरों विफलताओं और हर तरह की बाधाओं के साथ तमाम हमलों को झेलते हुए एक कठिन सफर पर है. फिर भी बार-बार, हर बार यही दर्ज हो रहा है कि अभी तो रास्ता संसदीय लोकतंत्र ही है और इस रास्ते पर बस्तर की जनता का विश्वास संसदीय लोकतंत्र की शायद सबसे बड़ी सफलता भी है. विधायक भीमा मंडावी की हत्या के बाद यह आशंका व्यक्त होने लगी कि इससे मतदान का प्रतिशत प्रभावित होगा. यह आशंका निराधार तो नहीं है लेकिन अब तक का अनुभव कहता है कि बस्तर इस डर से आगे बढ़ा चुका है. संसदीय लोकतंत्र के सफर पर आगे…..आदिवासी की प्रतिबद्धता और आस्था उसके अपने अनुभवों से भी समृद्ध होती हैं. उसका ताज़ा अनुभव है कि उसके एक वोट ने उसके हक में बड़े फैसले करवाये हैं. उम्मीद है कि आज भी बस्तर ही संसदीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा हौसला बनेगा, लेकिन ये उम्मीद अभी भी नहीं है कि माओवादी इस बात को महसूस कर पाएंगे कि अभी तो रास्ता उधर नहीं ,इधर है !

रूचिर गर्ग के फेसबुक पोस्ट से साभार