रायपुर। भिलाई-रायपुर समेत आधा छत्तीसगढ़ इस समय डेंगू के प्रकोप से हलाकान है और राज्य का स्वास्थ्य महकमा दो-दूनी आठ का गणित ही बनाने में जुटा हुआ है। स्वास्थ्य आयुक्त डेंगू को महामारी करार देते हुए कलेक्टर को आवश्यक कदम उठाने के लिए पत्र लिखते हैं, स्वास्थ्य मंत्री अगले ही दिन पत्रकार वार्ता लेकर महामारी की बात को ही खारिज कर देते हैं।

स्वास्थ्य मंत्री आज दावा करते हैं कि डेंगू पर काबू पा लिया गया है, अगले ही दिन स्वास्थ्य आयुक्त दो टूक लहजे में बयान देते हैं कि ‘डेंगू का वायरस एक बार फैल गया तो उस पर काबू पाने में वक्त लगता है। यह लंबी प्रक्रिया है और इसकी समय सीमा बताना भी संभव नहीं।’ यह बात सही भी है। जिस कदर मरीजों की तादाद बढ़ रही है, वह मंत्री के दावों के विपरीत ही है।

इस बीमारी की रोकथाम और मरीजों के इलाज के लिए समुचित कदम उठाने की जगह अजय चंद्राकर चिकित्सकों को हड़काकर किस उद्देश्य की पूर्ति करना चाह रहे हैं? संस्कृत में सुभाषित है। ‘विद्यां ददाति विनयं, विनया द्याति पात्रताम्, पात्रत्वात धनमाप्नोति, धनात्धर्मं तत: सुखम। ‘ अर्थात विद्या से विनय की प्राप्ति होती है और संभवत: कम ही लोगों को यह यह जानकारी हो कि डा. रमन सिंह के मंत्रिमंडल में सिवाय प्रेमप्रकाश पांडेय के अलावा शायद ही कोई मंत्री अजय चंद्राकर जितना अध्ययनशील हो।

उनके द्वारा वाट्सएप पर भेजे जाने वाले नियमित सुभािषत संदेशों का विवेचन-विश्लेषण कर लिया जाए तो शायद ही उनसे ज्ञानवान भी हो। फिर समय-समय पर उनके सार्वजनिक बयान और व्यवहार से अहंकार की बू कहां से महसूस होने लगती है। दरअसल पद से प्रभाव, प्रभाव से पैसा और पैसे से अहंकार भी मनुष्य की कमजोरी रहा है, लेकिन यह ठीक नहीं है।

जिस मंत्रिमंडल के मुखिया डा. रमन सिंह हों, उसके किसी भी सदस्य का यह लहजा तो हर लिहाज से अनपेक्षित है। यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है कि डा. रमन सिंह की सफलता में सबसे बड़ा कारक उनकी धीरता और विनम्रता ही रही है। अजय जी के संबंध में यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अपने क्षेत्र में तमाम विकास कार्य कराने के बावजूद वह वर्ष 2008 का चुनाव महज अपनी इस व्यवहारगत कमजोरियों के कारण ही हार गए थे।

विवेकवान व्यक्ति से यह उम्मीद करना गलत नहीं कि अगर वह दूध से जल गया हो तो छाछ न सही कम से कम भविष्य में दूध तो फूंक मारकर ही पिए। निजी अस्पतालों के प्रति आक्रामकता दिखा रहे अजय चंद्राकर अपने स्वास्थ्य महकमे की विफलताओं को लेकर अगर यह सख्ती रखते तो आज प्रदेश के हालात कुछ और ही होते। प्रदेश के तमाम मेडिकल कालेज आज ‘जीरो ईयर’ की भेंट चढ़ चुके हैं, इसके लिए कौन जिम्मेदार है।

सुपाबेड़ा से लेकर महासमुंद के गर्भाशय तक की कहानियां सरकारी निकम्मेपन का जीता-जागता दस्तावेज हैं। गैर जरूरी दवाओं की खरीद बड़े पैमाने पर कर कमीशनखोरी को सफलता के नए कीर्तिमान गढ़ते राज्य के औषधि निगम को प्रदेश देख रहा है और मंत्री मौन हैं। यह स्थिति सराही नहीं जा सकती। अपनी असफलता को पड़ोसी के कंधों पर टांगना बहादुरी नहीं बुजदिली है।

सरकारी अस्पतालों की हालत सुधारने में नाकाम रहे प्रदेश के यशस्वी स्वास्थ्य मंत्री अजय चंद्राकर ने भिलाई में डेंगू से हुईं अनाधिकारिक चौबीस मौतों के बाद अपने रायपुर स्थित बंगले से हंटर फटकारते हुए कहा-‘निजी अस्पताल डेंगू के मरीजों के इलाज में सहयोग करें नहीं तो सरकार सख्त कार्रवाई करेगी।’ सत्ता का यह लहजा उन चिकित्सकों के प्रति है जिन्हें समाज अब तक भगवान का दर्जा देता आया है।

बचपन से सीखा तो माननीय मंत्री ने यही होगा कि सहयोग हासिल करने के लिए आग्रह की जरूरत होती है आदेश की नहीं, लेकिन जवानी में मिली सत्ता की चकाचौंध में बचपन में मिली सीख अमूमन धुंधला जाती है। लिहाजा विनम्रता का स्थान हमारे हुक्मरानों के व्यवहार से शनै: शनै: लुप्त हो जाने में आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है। हां, अफसोस जरूर होता है। वह भी इसलिए क्योंकि हंटर जिन पर फटकारा गया, वह डाक्टर हैं कोई ढोर नहीं, जिन्हें आप चाबुक फटकार कर रास्ते पर ले आएंगे।

जिन चिकित्सकों ने अपने जीवन के बेहतरीन 10 से 15 वर्ष इस पेशे के लायक बनने में बतौर छात्र बिताए हों, वह सत्ता और समाज दोनों से ही सम्मान की अपेक्षा रखने के तो कम से कम हकदार हैं हीं। चिकित्सक मरते हुए इंसान की ईश्वर के अलावा इकलौती उम्मीद होता है। मरीज और उसके परिजन अपनी दुआ से भी ज्यादा भरोसा अपने डॉक्टर की दवा पर करते हैं। उस चिकित्सक समुदाय के साथ यह लहजा स्वीकारा नहीं जा सकता।

गौरतलब है कि अन्य किसी पेशे में छात्र जीवन इतना लंबा नहीं होता है जो चिकित्सा के पेशे में होता है। वह चिकित्सक अपने हुनर और समर्पण से मरीज की निगाह में भगवान का दर्जा पाता है तो उसके प्रति सत्ता का स्वर हमेशा ही ‘विनम्र’ होना चाहिए। वैसे भी लोकतंत्र में तो प्रजा के प्रति सत्ताधीशों को विनम्र होना ही चाहिए, क्योंकि आप जन के ‘सेवक’ हैं ‘मालिक’ नहीं। आखिरी बात!

ऐसा कौन चिकित्सक है प्रदेश में जो जरूरत के क्षणों में मरीज को देखने से इनकार कर दे। तमाम चिकित्सक समय समय पर अनेक स्वास्थ्य शिविरों में निशुल्क सेवाएं देते नजर आते रहे हैं। यहां तक कि स्वयं डाक्टर रमन सिंह द्वारा अपने माता-पिता की स्मृति और मंत्री राजेश मूणत द्वारा लगाए जाने वाले शिविरों में शामिल हुए डाक्टरों ने कभी इसके एवज में एक रुपए की भी अपेक्षा की हो ऐसा सुनने को नहीं मिला। यह सहयोग चिकित्सकों से आदेश करके नहीं, आग्रह करके ही हासिल किया गया। अभी भी अगर सरकार अव्हान करेगी तो प्रदेश के तमाम चिकित्सक अपना तन-मन और धन जनता के लिए लगाने में पीछे नहीं हटेंगे, यह हमारा दृढ़ विश्वास है।

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