Constitution Day 2024: आज हम 10वां संविधान दिवस मना रहे हैं. निश्चित तौर पर 2015 में 26 नंवबर को संविधान दिवस मनाने का फैसला लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बढ़ावा देने और संवैधानिक मूल्यों के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए यह प्रयास अत्यन्त सराहनीय है. लेकिन एक सवाल भी खड़ा होता है कि क्या कोई दिवस मनाने की घोषणा करने के बाद उसी तारीख पर उस विषय पर चर्चा की जाए या फिर वास्तव में सालभर उसे अमल में लाया जाए. खैर, वास्तविकता इससे परे है. हम एक दिन तो ‘हमारा संविधान, हमारा स्वाभिमान’ पर बात करते हैं, देशभर में आयोजन होते हैं, लेकिन हकीकत में देखेंगे तो हर दिन संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही है और लोगों के मौलिक अधिकारों और नैतिक मूल्यों का हनन किया जा रहा है.

हम सब अक्सर नेताओं के मुंह से संविधान के बारे में सुनते और देखते रहते हैं, लेकिन सत्ताबल के आधार पर समय-समय पर संविधान की परिभाषा बदलती रही है. यदि उदाहरण के दौर पर देखेंगे तो 25 जून 1975 का वो दिन, जिस दिन संविधान की धज्जियां नहीं बल्कि संविधान का गला घोट दिया गया था. तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी थी. 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था.

लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान विपक्ष की ओर से इस तरह का प्रचार किया गया कि बीजेपी की अगुवाई वाला एनडीए 400 से ज्यादा सीटें इसलिए जीतना चाहता है, ताकि संविधान बदलकर आरक्षण की व्यवस्था को खत्म कर सके. लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने समेत अन्य विपक्षी दलों ने संविधान बचाओ यात्रा निकाला. राहुल गांधी हमेशा भारतीय जनता पार्टी पर संविधान खत्म करने की बात करते रहते हैं, लेकिन यह समझना होगा कि वास्तव में ऐसी कोई स्थिति है कि बीजेपी या मौजूदा सरकार संविधान को खत्म करना चाहती है.? इसके लिए आपको यूपीए और एनडीए सरकार के आंकड़े को समझना होगा कि किसकी सरकार में संविधान में कितने बदलाव हुए हैं.

संविधान में पहला संशोधन 1951 में अस्थायी संसद ने पारित किया था. उस समय राज्यसभा नहीं थी. पहले संशोधन के तहत ‘राज्यों’ को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की प्रगति के लिए सकारात्मक कदम उठाने का अधिकार दिया गया था. यूं तो अब तक जनवरी 2023 तक संविधान में 105-106 संशोधन हो चुके हैं. लेकिन संविधान की प्रस्तावना में केवल एक बार संशोधन किया गया है. इसके अलावा संविधान में जो कई बार बदलाव हुआ उसका मकसद पूरी तरह से राजनीतिक ही समझा गया है.

अबतक का सबसे व्यापक और विवादास्पद संविधान संशोधन 1976 का 42वां संशोधन था. जो इंदिरा गांधी के शासन के आपातकाल के दौरान हुआ था. उस वक्त ऐसा लगा था कि इस संशोधन के द्वारा सरकार कुछ भी बदल सकती है. शायद यही वजह है कि इसे ‘मिनी कॉन्स्टिट्यूशन’ भी कहा जाता है. इसमें संविधान की प्रस्तावना में तीन नए शब्द- ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ जोड़े गए. इतना ही नहीं, इस संशोधन में अहम बात ये थी कि किसी भी आधार पर संसद के फ़ैसले को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. लेकिन 1977 में सत्ता में आने पर जनता पार्टी की सरकार ने इस संशोधन के कई प्रावधानों को 44वें संविधान संशोधन के ज़रिए रद्द कर दिया. लेकिन संविधान की प्रस्तावना में हुए बदलाव से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, कांग्रेस के शासनकाल में ही 80 बार देश का संविधान बदला जा चुका है. जिसमें भारतीय गणतंत्र के पहले 14 वर्षों में ही देश का संविधान 17 बार बदल दिया गया था. यह देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का था. जबकि इंदिरा गांधी के शासनकाल में 40 बार से ज्यादा संविधान को बदलने का प्रयास हुआ. राजीव गांधी के कार्यकाल में 11 बार संशोधन हुआ. कुख्यात शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटना भी उनके कार्यकाल के इतिहास में दर्ज है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी संविधान की कॉपी लेकर लोकसभा चुनावों के समय से चल रहे थे. चुनाव के परिणाम आने के बाद भी वह संविधान की कॉपी साथ में रख रहे हैं और उसकी ‘रक्षा’ करने के दावे करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं. जबकि, हकीकत ये है कि उनके कांग्रेस सांसद रहते हुए भी मनमोहन सिंह के दोनों कार्यकालों में कम से कम 6 बार संविधान संशोधन हुए.

मोदी सरकार के दो कार्यकाल की बात करें तो इस दौरान 8 संविधान संशोधन किए गए. जिसमें सबसे प्रमुख था जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने वाला कानून, जिसमें मोदी सरकार ने संविधान (जम्‍मू और कश्‍मीर में लागू) संशोधन आदेश, 2019 में लागू किया. जिससे जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष राज्य का दर्जा समाप्त हो गया है. जिसको लेकर जमकर विवाद हुआ. इस मसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के फैसले को सही ठहराया.

इसके अलावा एनडीए के कार्यकाल में एक अभूतपूर्व घटनाक्रम देखने को मिली. साल था 2023… और तारीख 18 दिसंबर, जब संसद के शीतकालीन सत्र के 11वें दिन लोकसभा और राज्यसभा से विपक्ष के 78 सांसदों को निलंबित किया गया. अगले ही दिन 49 और सांसदों को निलंबित कर दिया गया. इस तरह दो दिनों में संसद से 141 सांसदों को निलंबित कर दिया गया. यह ऐसा वक्त था जब कानून बनाने और उसके रखवालों को ही नियमों का हवाला देकर उन्हें चुप करा दिया गया. इनमें कुछ सांसदों को तो संसद के पूरे शीतकालीन सत्र के लिए सस्पेंड कर दिया गया था. ऐसे में जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों को निलंबित कर देना संविधान और लोकतंत्र का गला घोटना नहीं है तो और क्या है. हालांकि इसके पहले भी संसद सत्र के दौरान इस तरह की घटनाएं हुईं हैं. लेकिन यह तारीख किसी काले दिन से कम नहीं था.

संविधान में दिए गए आरक्षण को लेकर आए दिन बहस होती रहती है. चुनावी लाभ के तमाम राज्य सरकारें आए दिन आरक्षण में बदलाव की बात करती रहती हैं. आपको याद होगा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब एनडीए के हिस्सा नहीं थे, तब उन्होंने लोकसभा चुनाव के पहले कहा था कि सरकार में आने पर बिहार में पिछड़ो औऱ दलितों के लिए 65 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही थी. जिसके बाद इस आरक्षण के मसले को NDA ने पटना हाईकोर्ट में चुनौती दी थी. जिसे कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था. मामला सुप्रीम कोर्ट में गया, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. साथ ही सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सियासी लाभ के लिए छेड़छाड़ न करने की हिदायत दी और रिजर्वेशन स्लैब को यथावत रखने का फैसला दिया.

इसके अलावा एक अच्छी घटना भी संविधान में हुई. जिसमें महिलाओं की हिस्सेदारी सुनिश्चित की गई. यह विधेयक था महिला आरक्षण के लिए के लिए 128वां संविधान संशोधन विधेयक. विधेयक में कहा गया कि लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी. विधेयक दोनों सदनों से पास हो गया, लेकिन महिलाओं की भागीदारी में कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि आंकड़े पर गौर करेंगे तो 543 सीटों में से 33 फीसदी में कितनी सीट महिलाओं के लिए बनती हैं और कितनी महिलाओं वर्तमान में मौजूद हैं… ये बड़ा सवाल है.

भारत की 18वीं लोकसभा की 543 सीटों में से केवल 74 महिलाएं ही सांसद चुनी गई हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में महिला सांसदों की संख्या 78 थी. इस बार चुनी गईं महिला प्रतिनिधि नई संसद का केवल 13.63 फीसदी हिस्सा हैं. 31 महिला सांसद इस बार बीजेपी से हैं. कांग्रेस से 13, तृणमूल से 11, समाजवादी पार्टी से 5 और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) से 3 महिला सांसद चुनी गई हैं. बिहार की पार्टियां जनता दल-यूनाइटेड और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) से दो-दो महिला सांसद चुनी गई हैं.

एक बहुत दुर्भाग्यपूर्ण आंकड़ा भी है कि 1957 के आम चुनावों से लेकर 2024 के चुनावों तक महिला उम्मीदवारों का आंकड़ा कभी भी 1,000 के पार नहीं जा पाया है. 2024 के लोकसभा चुनावों में कुल 8,360 उम्मीदवार मैदान में थे. हालांकि, प्रत्याशियों की इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं की कुल हिस्सेदारी सिर्फ 10 फीसदी ही रही. लोकसभा की 543 सीटों पर केवल 797 महिला प्रत्याशियों ने ही इस बार चुनाव लड़ा. इसका कारण यह है कि देश की अधिकतर बड़ी पार्टियों ने भी महिलाओं को टिकट देने में उतनी उदारता नहीं दिखाई. इस आंकड़े से अंदाजा लगाया जा सकता है कि संविधान की दुहाई देने वाले राजनैतिक दल कितने संजीदा हैं.

संविधान निर्माण के समय एक विडंबना और थी, कई दफा बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर का विरोध भी हुआ. संविधान निर्माण के दौरान रामराज्य परिषद जैसे हिंदुत्ववादी संगठनों ने प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर का जमकर विरोध किया था. रामराज परिषद के अध्यक्ष करपात्री का कहना था कि एक अछूत द्वारा लिखे गए संविधान को वे स्वीकार नहीं करेंगे. 26 नवंबर 1949 को संविधान पारित होने के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी खुलकर संविधान का विरोध किया था. अपने मुखपत्र ऑर्गेनाइजर के संपादकीय में लिखा कि ‘भारत के संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है क्योंकि इसमें मनु की संहिताएं नहीं हैं, इसलिए उन्हें यह संविधान स्वीकार नहीं है. अब सवाल यह है कि बीजेपी या बीजेपी के लोग संविधान को कितना आत्मसात करते हैं या कर रहे हैं, यह वही बता सकते हैं.

संविधान संशोधन 1976 में 42वें संशोधन में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए तीन शब्दों को हटाने के लिए लंबे समय से बीजेपी के कई नेता लड़ाई लड़ते आ रहे हैं. अभी हाल ही में बलराम सिंह, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और अश्विनी उपाध्याय की संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती थी. लेकिन बीते रोज सुप्रीम कोर्ट ने मामले पर सुनवाई करते हुए याचिका खारिज कर दी. याचिका में संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द को हटाने की मांग की थी, लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने दलील खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि ‘हम भारत के लोग के लिए धर्मनिपेक्षता और समाजवाद दोनों ही आवश्यक विषयवस्तु हैं’. सीजेआई ने कहा, “इतने साल हो गए हैं, अब इस मुद्दे को क्यों उठाया जा रहा है.” इधर, आज संविधान दिवस के मौके पर ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कांग्रेस पर बड़ा हमला भी बोला. उन्होंने कहा कि भारत के मूल संविधान में सेक्युलर और समाजवादी शब्द नहीं थे. बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के संविधान में “दो शब्द” नहीं थे. सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द संविधान में नहीं थे. इमरजेंसी के दौर में कांग्रेस ने चोरी से चुपके से यह शब्द जोड़े हैं.

संविधान बनाने के बाद बाबा साहब ने 1949 में नई दिल्ली में अपने एक भाषण के दौरान कहा था, “संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों. यह कौन कह सकता है कि भारत की जनता और उसके दल कैसा आचरण करेंगे. अपना मक़सद हासिल करने के लिए वे संवैधानिक तरीके अपनाएंगे या क्रांतिकारी तरीके? यदि वे क्रांतिकारी तरीके अपनाते हैं तो संविधान चाहे जितना अच्छा हो, यह बात कहने के लिए किसी ज्योतिषी की आवश्यकता नहीं कि वह असफल ही रहेगा.” संविधान बनाने के बाद भीमराव आंबेडकर ने ये भाषण नवंबर 1949 को नई दिल्ली में दिया था.

बाबा साहेब ने एक बात और कही थी, “यदि हम संविधान को सुरक्षित रखना चाहते हैं, जिसमें जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा बनाई गई सरकार का सिद्धांत प्रतिष्ठापित किया गया है तो हमें यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि ‘हम हमारे रास्ते खड़ी बुराइयों, जिनके कारण लोग जनता द्वारा बनाई गई सरकार के बजाय जनता के लिए बनी सरकार को प्राथमिकता देते हैं, की पहचान करने और उन्हें मिटाने में ढिलाई नहीं करेंगे.’ देश की सेवा करने का यही एक रास्ता है. मैं इससे बेहतर रास्ता नहीं जानता.” लेकिन यह सभी राजनीतिक दलों को आकलन करने की जरुरत है कि बाबा साहेब की इन बातों को कितना अमल में लाया जा रहा है.

खैर ये तो भारत की तासीर रही है कि कोस-कोस पर पानी बदले ढाई कोस पर वाणी यानी कि बोली या भाषा कह लीजिए. कुछ ऐसा ही कार्य सियासी दलों ने भारतीय संविधान के साथ किया. अपनी सहूलियत के हिसाब से इसको समय-समय बदलते रहा है.

राजकुमार पाण्डेय (पत्रकार)

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