आवारागर्दी करने की छूट मिले, ऐसी मांग करने वाली “सो कॉल्ड” महिलाएं या लड़कियां खुद को नारीवादी या फेमिनिस्ट बताने का प्रयास कतई न करें… मेरा मानना है कि, आज के समय में या फिर कहूँ की कुछ साल पहले से फेमिनिज्म के शब्द को जिस तरह से परोसने की कोशिश की गई है वो दरअसल अब सिर्फ मजाक बन कर रह गया है..

नारीवादी होने, फेमिनिस्ट होने या आज़ादी ढूंढने का तात्पर्य सिर्फ इससे नहीं है कि, वेब सीरीज में या फिल्मों में जो आपको सिगरेट फूंकता हुआ दिखाया जा रहा है, शराब पीता हुआ , एक से अधिक पुरुषों के साथ संबंध बनाता हुआ दिखाया जा रहा है.. असल जिंदगी में भी ऐसी ही चीजें करने की छूट आपको मिले…आप भी ठेले पर खड़े हो कर सिगरेट पी सके.. और अगर कोई आपको ऐसे करने से टोक रहा है या बुरी नजर से देख रहा है.. तो आप फेमिनिज्म का झंडा लेकर उसके खिलाफ चढ़ाई कर दे और ये कहे कि, महिला होने के नाते मैं ये सब कर सकती हूं…

श्रिया पाण्डेय- पत्रकार

बेशक आप ये सब कर सकती हैं लेकिन सिर्फ दिखाने के लिए कि हां हम भी ये कर रहें हैं क्योंकि हम नारीवादी हैं तो गलत है.. आप ठेले पर सिगरेट पिये, बार मे ड्रिंक करे या खुले जगह पर अपने बच्चे को स्तन पान कराएं.. इससे सच में किसी को फर्क नहीं ही पड़ता… और अगर पड़ता भी है तो इस बात की परवाह कौन करता है…

लेकिन कोई देखने की भी हिमाकत कैसे कर सकता है.. महज इस बात को लेकर कोई फेमिनिस्ट होने या फेमिनिज्म का ढिंढोरा पीटे तो माफ करना “मुझे ऐसे नारीवादी विचार और लोगो से एलर्जी है”..

खुले में स्तनपान करना है या नहीं करना है ये आपके व्यक्तिगत विचार हो सकते हैं पर ये कहना कि देखों मैंने जमाने की परवाह नहीं की और खुलेआम ये कर रही हूँ तो माफ करना मैं इसमें आपकी तारीफ़ नही करूंगी बल्कि मुझे आपकी छोटी सोच पर दया आएगी..

जब मां अपने बच्चे को दूध पिलाते वक़्त चुन्नी लेकर ढँकती है तो वो इसलिए नहीं है कि, लोग देख कर मजाक न उड़ाए बल्कि वो चुन्नी इसलिए लेती है ताकि उसके लाल को किसी की नजर न लगे और वो दूध पीना कम न कर दे..

हर बेशर्मी को आधुनिकता से जोड़ने के बाद फेमिनिज्म का ढिंढोरा पीटना सही नहीं है..मंदिर में शॉटस पहन कर जाए या बिकनी पहन कर.. निःसंदेह ये आपका अपना निजी विचार हो सकता है पर इसे हर महिला पर लागू करवाकर खुद नारीवादी का समर्थक कहना, हर महिला का अपमान है क्योंकि ऐसा कर के आप कौन सी आज़ादी की जंग जितना चाह रही हैं.. यहां थोड़ा ऐसे समझते हैं कि फर्ज करें कि कोई पुरूष कच्छे में मन्दिर में प्रेवश करे तो आप उसे बेहुदा बेशर्म कहने से बाज नही आएंगे.. फिर खुद के लिए ये शब्द क्यों चुभते हैं..

बीच सड़क पर कोई पुरूष अपने कपड़े उतार दे तो उसे पुलिस उठा कर ले जाती है लेकिन लड़की ये करे तो वो उसके विरोध प्रदर्शन का एक जरिया है.. और वो ऐसा कहीं भी, कभी भी कर सकती है क्योंकि उसके पास फेमिनिज्म का तमगा है…

सेक्स,दारू, सिगरेट और लिपस्टिक लगाने की आज़ादी ही मात्र आज के समय में फेमिनिज्म का पर्याय बन कर रह गई है.. अब तो खुद को फेमिनिस्ट कहने में भी शर्म आने लगी है..पीरियड्स के बारे में बात न करना कोई टेबू नहीं है.. जरूरत पड़ने पर की जा सकती है.. पर इसे फेसबुक पर पोस्ट कर जश्न मनाना कोई तरीका नहीं होता ..और अगर आप कर भी रहे हैं तो फिर इसे एन्जॉय करिए.. फिर परवाह मत करिए कि लोग क्या कमेंट कर रहे हैं.. और ऐसे लोगों को कम से कम फेमिनिज्म का पाठ न ही पढ़ाएं तो बेहतर है..

नौकरी, करियर, हक की लड़ाई की बात उठाते वक्त फेमिनिज्म कहां मर जाती है और लोग अपना जमीर बेच कर कम्प्रोमाईज़ का रास्ता कैसे चुन लेती हैं..

माफ करना महिला हूँ कई मामलों में नारीवादी भी हूँ पर मुझे आवारागर्दी और आज़ादी में फर्क पता है.. महिलाओं की लड़ाई सुट्टे, दारू और सेक्स तक सीमित नहीं है.. और नहीं करने देंगे..ऐसे विषयों को लेकर जो ये कहे कि ये हमारा अधिकार है तो सुनो अधिकार है तो रखो पर दुनिया को बताने की कतई जरूरत नहीं है कि आप कितने खुले विचारों की हैं..

और ऐसे विषयों पर आपके खुले विचार कहीं से सामने नहीं आते बल्कि सवाल खड़े होते हैं कि सच मे आप कैसी आज़ादी की मांग कर रहीं हैं..

लेखक- श्रिया पाण्डेय, पत्रकार

नोट- ये लेखक निजी विचार हैं