वैभव बेमेतरिहा । मैंने पत्रकारिता का इतिहास पढ़ा है. पत्रकारिता के उस युग को पढ़ा है जिसे स्वर्णिम युग कहा गया है. उस दौर के बारे में पढ़ा है जब संसाधनों के अभाव और चुनौतियों के बीच पत्रकारों ने काम किया है. मैं पहले ही बता रहा हूँ यह सब मैंने किताबों में पढ़ा है, अपने प्राध्यपकों और वरिष्ठ पत्राकरों से व्याख्यानों में सुना है. मैंने पत्रकारिता के स्वर्णिम युग को देखा नहीं.

इसी तरह मैंने बीते कई दशकों के आम चुनावों के बारे में भी पढ़ा है, आम चुनावों की रिपोर्टिंग के बारे में पढ़ा है, संगोष्ठियों और व्याख्यानों में सुना है, यूट्यूब पे देखा है. लेकिन मैंने बतौर पत्रकार जिसे पढ़ा उसे पढ़ाई के दौरान मैंने अनुभव नहीं किया.  जो अनुभव किया, जो कर रहा हूँ, जो देख रहा हूँ, जो सच है वो लिख रहा हूँ. मैं बीते एक दशक से टीवी पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत् हूँ. इस दौरान में 2008 से लेकर 2018 के तीन विधानसभा चुनाव और 2009 से लेकर 2019 के तीन आम चुनावों की रिपोर्टिंग की है.

2008-09 मैं बिल्कुल नया था. लिहाजा चुनाव की रिपोर्टिंग मेरे लिए बिल्कुल नया और सिर्फ सीखने जैसा था. 2013-14 के चुनाव में 5 साल के अनुभव थे. लिहाजा पत्रकारिता के अंदर और बाहर की हर बारीक गतिविधियों पर नज़र थी, चुनाव के दौरान होने वाली रिपोर्टिंग की समझ हो चुकी थी. सत्ता पक्ष और विपक्ष को लेकर संस्थान के हिसाब कैसे रिपोर्टिंग की जाती यह भी जान चुका था. कब, कहां, किसे, किस रूप में दिखाया, बताया जाएगा यह सब पहले से ही तय होता है यह जान गया था. फिर भी मैंने थोड़ी आज़ादी 2013 के विधानसभा और 14 के आम चुनाव में अनुभव किए. उस दौरान कहीं-कहीं पर पत्रकारिता का स्तर राजनीतिक दलों के स्तर से बेहतर ही थे. कहा जा सकता है था कि एक बेहतर लोकतंत्र के निर्माण में मीडिया की भूमिका है. इस भूमिका को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता. तब प्रेस की आज़ादी पर सवाल उठाना बेमानी कहा जा सकता था.

2018 और 19 का चुनाव. बतौर पत्रकार अब मैं पत्रकारिता में 10 साल पूरे कर चुका था. लिहाजा चुनाव में रिपोर्टिंग को लेकर पर्याप्त अनुभव थे. 2018 में विधानसभा चुनाव में पहली बार देखा था कि सत्ता का कितना व्यापक असर मीडिया घरानों पर रहता था. यह भी देखा था कि पत्रकारों के बीच भी कैसे एक सत्ताधारी दलनुमा संगठन खड़ा होता जाता है. और यह भी महसूस किया था कि सत्ता के दबाव में कैसे सच से परे झूठ परोसी जाती है. विपक्ष की खबरों को कैसे गिराया जाता, कैसे उसे कमतर दिखाया जाता है, कैसे एग्जिट पोल्स तैयार होते हैं, कैसे पैसों की ताकत पर सर्वे खरीद लिए जाते हैं. यह सब मैंने कहीं पढ़ा नहीं था मैं अपनी खुली आंखों से देख रहा था.

सच्चाई ये है कि 2019 का आम चुनाव में मैं पत्रकारिता के सबसे नीचे गिरते स्तर को देख रहा था. मैं इसे 21वीं सदी में पत्रकारिता के सबसे खराब दौर कह सकता हूँ. क्योंकि यहाँ टीवी चैलनों पर होने वाले बहस, मुद्दे सब प्रायोजित तरीके से परोसे जा रहे हैं. कई चैलनों और अखबारों में वही दिखाया और लिखा जा रहा था जैसे कहीं से कोई और कमांड कर रहा हो. पत्रकारिता के पुरोधा हमरे गणेश शंकर विद्यार्थी जो कहा था ठीक उसके उलट स्थितियों को मैंन देख रहा था महसूस कर रहा था. देश के तुर्रमखां पत्रकार, मीडिया घराना सत्ता के साथ चल रहा था और सवाल विपक्ष से कर रहा था. जबकि विद्यार्थी ने तो यही कहा थे सत्ता से सवाल करने वाला विपक्ष होता है.

राजनीतिक दल, राजनेताओं की तरह पत्रकारिता-पत्रकारों की भाषा, मर्यादा सब गिरी हुई नज़र आ रही है. लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व कहलाने वाला आम चुनाव मीडिया के आगे सत्ता के हिसाब से मजाक बनता हुआ दिखाई दे रहा है. यकीन नहीं हो रहा था कि पत्रकारिता का स्वर्णिम युग वाला इतिहास प्रधानमंत्री के फनी इंटरव्यू पर भारी पड़ रहा है. एक-दुक्के मीडिया घराने और कुछ पत्रकारों को छोड़ दें तो ज्यादातर मीडिया संस्थानों और पत्रकारों ने यही दिखाया और बताया कि यह प्रधानमंत्री का सबसे अच्छा इंटरव्यू है. टीवी चैनलों में घंटों-घंटों, कई-कई दिन तक इसे दिखाया गया. लेकिन तुर्रमखां मीडिया संस्थानों और पत्रकारों ने इस पर सवाल नहीं किया, कटाक्ष नहीं किया. यह भी देखने को मिला कि 5 साल में पहली बार प्रेसवार्ता में आने वाले प्रधानमंत्री का सवालों के जवाब नहीं देने पर पत्रकारों ने कोई विरोध नहीं किया. प्रेस क्लब ने भी कोई विरोध नहीं किया न ही संपादकों के संगठन के तरफ से सवाल उठाए गए कि जब सवालों का जवाब नहीं देना था तो फिर प्रधानमंत्री प्रेसवार्ता में आए क्यों ?

मैंने आम चुनाव के बीच पत्रकारिता के इस खराब दौर में यह भी देखा कि कैसे तीखे सवाल करने वाले पत्रकार सत्ता के इशारे पर मीडिया घरानों से निकाल दिए जाते हैं, कैसे उन्हें किसी भी संस्थान में न रखा जाए इसके लिए मजबूर कर दिया जाता है ? और यह भी उतना ही हास्यपद लगा कि पुलवामा आतंकी अटैक पर सवाल करने से कैसे उसे रास्ट्रवाद के खिलाफ बता दिया जाए. वास्तव में पत्रकारिता का इससे खराब दौर मैंने नहीं देखा कि चुनावों में इंटरव्यू करने वाले पत्रकारों ने प्रधानमंत्री से तीखे सवाल नहीं किए. जबकि एक से बढ़कर एक नामचीन पत्रकारों ने उनसे एक घंटे तक का लंबा साक्षात्कार किया. किसी ने पुलवामा अटैक, राफेल डील, 2018 विधानसभा चुनाव के नतीजे, राष्ट्रवाद के एजेंडे पर सवाल नहीं किया. सवाल किया भी तो ये… क्या खाना पंसद, क्या पहना पसंद, क्या ओढ़ना पसंद, क्या छोड़ना पसंद ? दूसरी ओर विपक्ष के नेता राहुल गांधी से पत्रकारों ने वही सारे सवाल पूछे जो खुद राहुल गांधी सत्ताधारी दल से और मीडिया से पूछ रहे थे. पत्रकारिता में यह मिलावट और गिरावट का सबसे खराब दौर मैं देख रहा हूँ.

मैं नहीं जानता की आपातकाल के लिए पत्रकारिता किस दौरा से गुजरा था ? पढ़ने और सुनने में तो यही जाना कि वह भी सबसे बुरा ही था. लेकिन यह भी सुना और पढ़ा कि उस दौरान में सच डंके की चोट बोला भी गया और लिखा भी. लेकिन आज की पत्रकारिता में जैसे सच कहीं खो सा गया है जो लिखा जा रहा, जो दिखाया जा रहा है सच उसके आस-पास भी नहीं. इस सच को मैं बतौर पत्रकार बेहद करीब से महसूस कर रहा हूँ. फिर क्षेत्रीय मीडिया और ग्रामीण पत्रकारिता में थोड़ी नैतिकता अब भी राष्ट्रीय मीडिया की अपेक्षा बाकी यह कह सकता हूँ. क्योंकि रास्ट्रीय मीडिया जगत का चेहरा आज सबसे ज्यादा धूमिल दिखाई पड़ रहा है. ऐसा लग रहा जैसे सत्ता की आंधी में भगत-गांधी की पत्रकारिता मर गई है और गोडसे की जीवित हो गई है.लेखक-टीवी पत्रकार