लखनऊ। आज के दिन को भला कौन भूल सकता है। 1992 6 दिसंबर को एक ऐसी घटना घटी थी जो भारत के इतिहास में दर्ज हो गयी। जी हां… आपने सही सुना आज ही के दिन उत्तर प्रदेश के अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई गई थी।जिसने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। चलिए जानते हैं बाबरी मस्जिद के इतिहास के बारे में….
क्या है बाबरी मस्जिद का इतिहास
बाबरी मस्जिद भारत की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक थी। जहीर उद-दीन मुहम्मद बाबर 1526 ई. में पानीपत के पहले युद्ध में दिल्ली सल्तनत के अंतिम वंशज सुल्तान इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में एंट्री किया था।बाबर ने भारत में मुगल वंश की स्थापना किया और यहां एक बड़े पैमाने पर मस्जिदों का निर्माण कराना शुरू कर दिया था।इसी क्रम में बाबर ने पानीपत में पहली मस्जिद बनवाई थी।इसके दो साल बाद बाबर ने 1527 में अयोध्या में एक मस्जिद बनवाई, जो बाबरी मस्जिद के नाम से जानी जाती है। बताया जाता है कि इस मस्जिद को बनवाने के लिए बाबर ने एक ऐसी जगह चुनी थी जिसे हिंदू अपने अराध्य श्रीराम का भूमि मानते थे।
आज है बाबरी विध्वंस की 30वीं बरसी
आज 6 दिसंबर को बाबरी विध्वंस की 30वीं बरसी है।आज ही के दिन 1992 में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया था। इस घटना के बाद से भारत के अलग-अलग हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। कई हजार लोग मारे गए थे और साथ ही देश को भारी नुकसान भी हुआ था।कई सालों तक यह मामला कोर्ट में चला,लेकिन आखिरकार कोर्ट का फैसला आने के बाद साल 2020 में राम मंदिर बनाने के लिए यहां खुदाई की गई। इस घटना को कभी भूलाया नहीं जा सकता है।
बता दें कि बाबरी विध्वंस की 30वीं बरसी पर अयोध्या और मथुरा में हाई अलर्ट घोषित करते हुए सुरक्षा व्यवस्था के कड़े इंतजाम किए गए हैं। चप्पे-चप्पे पर पुलिस ड्रोन से नजर बनाए हुए हैं।इसके साथ ही अलग-अलग जगहों पर पुलिस बल तैनात हैं।
बाबरी मस्जिद विध्वंस केस में कब और क्या-क्या हुआ
छह दिसंबर 1992 को सोलहवीं सदी की बनी बाबरी मस्जिद को कारसेवकों की एक भीड़ ने ढहा दिया जिसे लेकर देश भर में सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया, हिंसा हुई और हज़ारों लोग इस हिंसा की बलि चढ़ गए।
बाबरी मस्जिद गिरने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने मस्जिद दोबारा तामील करने की घोषणा की और दस दिन बाद मस्जिद ढहाने की घटना और उसके पीछे कथित षड्यंत्र की जांच के लिए जस्टिस एमएस लिब्राहन की अध्यक्षता में एक जांच आयोग का गठन किया।
जांच आयोग ने सत्रह साल बाद अपनी रिपोर्ट पेश की, लेकिन अदालत में इस मामले में फ़ैसला आने में इतना लंबा वक़्त लग गया कि उससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने उस जगह पर ही मंदिर बनाने का फ़ैसला भी दे दिया और मंदिर निर्माण की कोशिशें भी शुरू हो गई।
छह दिसंबर 1992 को कई दिनों से अयोध्या में कारसेवा के लिए डटे कारसेवकों ने विवादित ढांचे को गिरा दिया और वहां एक अस्थाई मंदिर बना दिया।उसी दिन इस मामले में दो एफ़आईआर दर्ज की गई।
पहली एफ़आईआर संख्या 197/1992 उन तमाम कारसेवकों के ख़िलाफ़ दर्ज की गई थी जिसमें उन पर डकैती, लूट-पाट, चोट पहुंचाने, सार्वजनिक इबादत की जगह को नुक़सान पहुंचाने, धर्म के आधार पर दो गुटों में शत्रुता बढ़ाने जैसे आरोप लगाए गए थे।
दूसरी एफ़आईआर 198/1992 भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और आरएसएस से जुड़े उन 8 लोगों के ख़िलाफ़ थी जिन्होंने रामकथा पार्क में मंच से कथित तौर पर भड़काऊ भाषण दिया था।
इस एफ़आईआर में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, वीएचपी के तत्कालीन महासचिव अशोक सिंघल, बजरंग दल के नेता विनय कटियार, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा, मुरली मनोहर जोशी, गिरिराज किशोर और विष्णु हरि डालमिया नामज़द किए गए थे।
पहली एफ़आईआर में दर्ज लोगों के मुक़दमे की जांच बाद में सीबीआई को सौंप दी गई जबकि दूसरी एफ़आईआर में दर्ज मामलों की जांच यूपी सीआईडी को सौंपा गया। साल 1993 में दोनों एफ़आईआर को अन्य जगहों पर ट्रांसफ़र कर दिया गया।
कारसेवकों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर संख्या 197 की सुनवाई के लिए ललितपुर में एक स्पेशल कोर्ट का गठन किया गया जबकि एफ़आईआर संख्या 198 की सुनवाई रायबरेली की विशेष अदालत में ट्रांसफ़र की गई।
इस बीच, पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश के तहत रामलला की सुरक्षा के नाम पर क़रीब 67 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया। सात जनवरी 1993 को इस अध्यादेश को संसद की मंज़ूरी मिलने के बाद इसे क़ानून में तब्दील कर दिया गया।
बाबरी विध्वंस के दस दिन बाद मामले की जांच के लिए बनाए गए लिब्राहन आयोग को जांच रिपोर्ट सौंपने के लिए अधिकतम तीन महीने का समय दिया गया था, लेकिन समय-समय पर इसकी अवधि बढ़ती रही और 17 साल के दौरान आयोग का कार्यकाल 48 बार बढ़ाया गया।
लिब्राहन आयोग ने 30 जून 2009 को अपनी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को सौंपी और इस दौरान आयोग के काम-काज पर क़रीब 8 करोड़ खर्च हुए।
बाबरी मस्जिद विध्वंस की जाँच रिपोर्ट में लिब्राहन आयोग ने पाया कि मस्जिद को एक गहरी साज़िश के तहत गिराया गया था। आयोग ने साज़िश में शामिल लोगों पर मुक़दमा चलाए जाने की सिफ़ारिश भी की थी।
बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में उसी दिन दर्ज कराए गए दो अहम मुक़दमों के अलावा 47 और मुक़दमे दर्ज कराए गए जिनमें पत्रकारों के साथ मारपीट और लूटपाट जैसे आरोप लगाए गए थे। बाद में इन सारे मुक़दमों की जाँच सीबीआई को दी गई।
इसके लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट की सलाह पर लखनऊ में अयोध्या मामलों के लिए एक नई विशेष अदालत गठित हुई, लेकिन उसकी अधिसूचना में दूसरे वाले मुक़दमे का ज़िक्र नहीं था।
यानी एफ़आईआर संख्या 198 के तहत दूसरा मुक़दमा रायबरेली में ही चलता रहा।साथ ही मुक़दमों को ट्रांसफर किए जाने से पहले साल 1993 में एफ़आईआर संख्या 197 में धारा 120बी यानी आपराधिक साज़िश को भी जोड़ दिया गया।मूल एफ़आईआर में यह धारा नहीं थी।
5 अक्टूबर 1993 को सीबीआई ने एफ़आईआर संख्या 198 को भी शामिल करते हुए एक संयुक्त आरोप पत्र दाखिल किया क्योंकि दोनों मामले एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।
आरोप पत्र में बाला साहेब ठाकरे, कल्याण सिंह, चंपत राय, धरमदास, महंत नृत्य गोपाल दास और कुछ अन्य लोगों के नाम अभियुक्तों में जोड़े गए।
8 अक्टूबर 1993 को यूपी सरकार ने मामलों के ट्रांसफर के लिए एक नई अधिसूचना जारी की जिसमें बाकी मामलों के साथ आठ नेताओं के ख़िलाफ़ एफ़आईआर संख्या 198 को जोड़ दिया गया। इसका अर्थ यह था कि बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से जुड़े सभी मामलों की सुनवाई लखनऊ की स्पेशल कोर्ट में होगी।
साल 1996 में लखनऊ की विशेष अदालत ने सभी मामलों में आपराधिक साज़िश की धारा को जोड़ने का आदेश दिया। इस मामले में सीबीआई एक पूरक आरोप पत्र दाख़िल करती है जिसके आधार पर अदालत इस नतीजे पर पहुंचती है कि लालकृष्ण आडवाणी सहित सभी नेताओं पर आपराधिक साज़िश के आरोप तय करने के लिए पहली नज़र में पर्याप्त सबूत थे।
विशेष अदालत ने आरोप निर्धारण के लिए अपने आदेश में कहा कि चूँकि सभी मामले एक ही कृत्य से जुड़े हैं, इसलिए सभी मामलों में संयुक्त मुक़दमा चलाने का पर्याप्त आधार बनता है,लेकिन लालकृण आडवाणी समेत दूसरे अभियुक्तों ने इस आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दे दी।
12 फ़रवरी 2001 को हाईकोर्ट ने सभी मामलों की संयुक्त चार्जशीट को तो सही माना,लेकिन साथ में यह भी कहा कि लखनऊ विशेष अदालत को आठ नामज़द अभियुक्तों वाला दूसरा केस सुनने का अधिकार नही है,क्योंकि उसके गठन की अधिसूचना में वह केस नंबर शामिल नहीं था।
सरल शब्दों में कहें तो आडवाणी और अन्य हिंदूवादी नेताओं पर दर्ज मुक़दमा क़ानूनी दांव-पेच और तकनीकी कारणों में फंसा रहा। दरअसल, अभियुक्तों के वकील यह साबित करने में क़ामयाब रहे कि उत्तर प्रदेश सरकार की प्रशासनिक चूक के कारण उनके ख़िलाफ़ ग़लत तरीक़े से आरोप लगाए गए हैं।
इस कथित प्रशासनिक चूक का इस्तेमाल आडवाणी और अन्य ने आपराधिक साज़िश के आरोप हटाने के लिए किया,क्योंकि ये आरोप केवल एफ़आईआर संख्या 197 के मामले में डाले गए थे।
हाईकोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिया कि यदि उनके पास आडवाणी और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ आपराधिक षड्यंत्र के सबूत हैं तो रायबरेली कोर्ट में सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल करे। साल 2003 में सीबीआई ने एफ़आईआर 198 के तहत आठ लोगों के ख़िलाफ़ सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाख़िल की।
हालांकि बाबरी मस्जिद ढहाने के आपराधिक साज़िश के आरोप को सीबीआई इसमें नहीं जोड़ सकी,क्योंकि बाबरी मस्जिद ढहाने में आपराधिक साज़िश वाली एफ़आईआर संख्या 197 और भड़काऊ भाषण वाली एफ़आईआर संख्या 198 दोनों अलग-अलग थीं।
इस बीच रायबरेली कोर्ट ने लालकृष्ण आडवाणी की एक याचिका सुनवाई के लिए स्वीकार की और उन्हें आरोपों से यह कहते हुए बरी कर दिया कि उनके ख़िलाफ़ केस चलाने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं।
साल 2005 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने रायबरेली कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और कहा कि आडवाणी और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमे चलते रहेंगे। यह मामला कोर्ट में आगे बढ़ा ज़रूर, लेकिन उसमें आपराधिक साज़िश के आरोप नहीं थे। साल 2005 में रायबरेली कोर्ट ने मामले में आरोप तय किए और साल 2007 में इस मामले में पहली गवाही हुई।
इसके दो साल बाद लिब्राहन आयोग ने भी अपनी नौ सौ पेज की रिपोर्ट सौंपी जिसे बाद में सार्वजनिक किया गया।इस रिपोर्ट में संघ परिवार, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और भाजपा के प्रमुख नेताओं को उन घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार माना जिनकी वजह से बाबरी विध्वंस की घटना हुई।
साल 2010 में दोनों मामलों को अलग करने का निचली अदालत का फ़ैसला इलाहाबाद हाइकोर्ट ने भी बरकरार रखा। साल 2001 में इस मामले में हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सीबीआई ने पुनर्विचार याचिका दायर की थी।
हाइकोर्ट ने कहा कि मामले में दो प्रकार के अभियुक्त थे- पहले वो नेता जो मस्जिद से 200 मीटर की दूरी पर मंच से कार सेवकों को भड़का रहे थे और दूसरे ख़ुद कारसेवक. यानी एलके आडवाणी और अन्य नेताओं के नाम आपराधिक साज़िश में नहीं जोड़े जा सकते थे।
इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सीबीआई ने साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया और 20 मार्च 2012 को एक हलफ़नामा दायर किया जिसमें दोनों मामलों की एक साथ सुनवाई के पक्ष में दलील दी गई।मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साल 2015 में एलके आडवाणी, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी और कल्याण सिंह सहित वरिष्ठ भाजपा नेताओं को नोटिस जारी कर बाबरी मस्जिद विध्वंस केस में आपराधिक साज़िश की धारा नहीं हटाने की सीबीआई की याचिका पर जवाब देने को कहा।
साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला रद्द कर दिया और साज़िश के आरोप फिर लगाए गए और दोनों ही मामलों को एक साथ सुनवाई करने की अनुमति दी गई।
सुप्रीम कोर्ट ने इस गतिरोध को हमेशा के लिए ख़त्म करते हुए लाल कृष्ण आडवाणी और 20 अन्य लोगों सहित कई अभियुक्तों के ख़िलाफ़ साज़िश का आरोप फिर से लगाने का आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का एक अहम पहलू यह भी था कि कोर्ट ने सुनवाई पूरी करने के लिए एक समय सीमा यानी डेडलाइन तय कर दी।पहले यह डेडलाइन दो साल की दी गई थी,लेकिन बाद में डेडलाइन को नौ महीने और बढ़ा दिया गया। कोरोना संकट के चलते सुप्रीम कोर्ट ने इसे और बढ़ाते हुए और हर दिन सुनवाई करते हुए 31 अगस्त तक सुनवाई पूरी करने के निर्देश दिए।
इस तरह बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड में कुल 49 लोगों को अभियुक्त बनाया गया जिसमें 17 लोगों की अब तक मौत हो चुकी है। बाक़ी बचे लोगों से सीबीआई ने पूछताछ पूरी कर ली है। इन लोगों में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार, उमा भारती, कल्याण सिंह, रामविलास वेदांती, साध्वी ऋतंभरा, चंपत राय, नृत्य गोपाल दास जैसे लोग शामिल हैं।
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