रायपुर. इस हेडिंग को पढ़कर कईयों के मन में गुस्सा आ रहा होगा. आना भी चाहिए. लेकिन गुस्सा उस वक्त कहां चला जाता है जब आपके शहर की पहचान, उसकी धरोहरों के साथ मनमानी की जाती है. शहर के बड़े पेड़ों को काटने का फैसला किसका है, ये पूछने की हिम्मत किसी ने क्यों नहीं की. क्यों सब उस वक्त खामोश रहते हैं जब शहर की पहचान रहे तालाब पट जाते हैं. सैकड़ों साल पुराने पेड़ कट जाते हैं. जबकि इन्हीं तालाब और पेड़ों के साथ  इतिहास की ना जाने कितनी यादें जुड़ी हुई हैं. अगर आपको आपके शहर की पहचान रहे तालाब और पेड़ों से नहीं है. तो माफी मांगते हुए बड़े अदब के साथ कहूंगा आप मुर्दों के शहर के वासी हैं. और रायपुर का दुर्भाग्य है कि ये शहर ज़्यादातर ऐसे ही लोगों से पट चुका है.

याद करिए, ये वही रायपुर है जहां कभी एक टेलर मास्टर ने कपड़े की सिलाई के दाम बढ़ा दिये थे तो शहर में हड़ताल हो गई थी. लेकिन आज इस शहर में बेमतलब का स्काई वाक लगाने का काम शुरु हो जाता है, एक नहर को पाटकर सड़क बना दी जाती है तब भी कोई चूं से चां नहीं करता. इस शहर में रोज़ कुछ तोड़ने का, कहीं उजाड़कर दूसरी जगह बसाने का खेल चल रहा है, लेकिन विरोध का कोई स्वर मध्यम सप्तक जितना ऊंचा भी नहीं सुनाई पड़ता.

जब लोगों को ये समझाया जाता है कि पेड़ ट्रेफिक और विकास में बाधा बन रहे हैं तो पेड़ों को काटने पर किसी को ऐतराज नहीं होता. लेकिन कोई ये क्यों  नहीं पूछता कि उन होर्डिंग्स को क्यों नहीं हटा रहें है जो लोगों की जान के लिए बड़े खतरे और यातायात के लिए चुनौती है. क्यों कोई विरोध नहीं होता जब तालाबों को प्लाट के लिए पाट दिया जाता है. इस शहर को जितना बीमार यहां की आबोहवा बना रही है. उससे ज़्यादा इस शहर की खामोशी बना रही है.

इस शहर में अधिकारी नेता जो चाहते हैं, फैसला लाद देते हैं. ना कोई सवाल पूछता है ना कोई विरोध करता है. शहर के लोगों ने अपना और अपने शहर की किस्मत नेताओं और अधिकारियों के हाथों में गिरवी रख दी है. इसलिए अधिकारी जिसे चाहे उसे तोड़े, जिसे चाहे उसे बनाए. उनके फैसलों में शहर के लोगों का हिस्सा ज़ीरो बटे सन्नाटा ही है. वो जो चाहे सोचें. लोग सहमत हो या न हों. करेंगे वो अपने मन की. शहर के ऐतिहासिक महत्व की चीजों को तोड़कर, बार-बार प्लान बदलकर शहर के साथ जितने चाहें वो प्रयोग कर सकते हैं.

हमारे शहर के फैसले में लोग कहां हैं. अगर कहीं नहीं हैं तो क्यों नहीं है. क्या सिर्फ इसलिए कि शहर के लोग प्रतियोगी परीक्षाओं या चुनाव से चुनकर नहीं आए हैं. क्या शहर के लोगों की समझ कुछ और काम करने से कम हो जाती है. जो लोग पीढ़ियों से इस शहर में रह रहे हैं वो तय करेंगे कि शहर कैसे बनेगा और संवरेगा या फिर सिर्फ वो लोग जिनके जिम्मे सिर्फ शहर की व्यवस्था को सुचारु और  ढंग से चलाने का जिम्मा है.

लेकिन ये सोचने का वक्त किसके पास है. क्योंकि रायपुर अब रायपुरिहों का नहीं रायपुरियन्स का शहर है. इस नए स्वरुप में शहर का मिज़ाज भी बदल चुका है. खामोशी शहर की पहचान बन चुकी है. लेकिन खामोशी को मुर्दानी की निशानी मानी जाती है. अगर ये मुर्दानी नहीं होती तो उस जिला प्रशासन कमेटी से लोग पूछते कि कमेटी में बायो डाइवर्सिटी और पर्यावरण को समझने वाले कितने लोग हैं.

क्या किसी को मालूम है कि ये पेड़ शहर के प्रदूषण की कितनी मात्रा को कम करते थे या कितने कार्बन डाय ऑक्साइड से कितना ऑक्सीजन बनाते थे. या एक पूरा भरा पेड़ जो दस टन एसी की ज़रूरत को कम करता था उसकी भरपाई कैसे होगी. अगर ये मुर्दों का शहर ना बन चुका होता तो लोग पूछते कि क्या इस बात का अध्यय़न किया कि जानकारी के मुताबिक जो 34 विशालकाय पेड़ काटने हैं उसके बाद शहर का वाटर टेबल कितना नीचे जाएगा. सोचने का विषय ये भी है कि कि गिद्ध जैसे पक्षी जो ऊंचे पेड़ों पर ही बैठते हैं वो इन पेड़ों के कटने से कहां जाएंगे. या फिर ये मान लिया जाए कि जो नई स्मार्ट सिटी बनाई जा रही है उसमें केवल इंसानों और इंसानों के रहने की व्यवस्था है. ना पेड़-पौधों के लिए ना ही जीव-जंतुओं के लिए और ना ही किसी वाटर बॉडी के लिए. आधुनिक शहर के निर्माता इन सबको शहर के चमचमाते चेहरे पर धब्बे की तरह देखते हैं.

अगर आप अपने आपको जगाकर इन सवालों का जवाब खोजें तो पाएंगे कि तो पाएंगे कि इन बातों की जानकारी शायद किसी को कमेटी में नहीं रही होगी. न ही किसी ने जानने की कोशिश की होगी. अगर मालूम होता तो पेड़ को हटाने के दूसरे विकल्पों पर विचार किया जाता. वनमित्र एवार्ड से सम्मानित अंबिकापुर के ओपी अग्रवाल अपनी बातचीत में अक्सर कहते हैं कि बड़े-बड़े पेड़ अमेरिका में 80 के दशक में हटाए जाते रहने की प्रथा थी. यूरोप के कई देश पेड़ की बजाय रास्ता और मकान को तोड़ने का विकल्प चुनते हैं. कुछ साल पहले पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने वाली मशीनों को नुमाईश के लिए रायपुर में मंगवाया गया था. लेकिन अगर नुमाईश की बजाय काम की मशीन होती तो कई पेड़ों को बचाया जा सकता था.

हालांकि इस मुर्दाने शहर में अब भी कुछ पुरानें पेड़ों की तरह जिंदा बचे लोग भी हैं. जो खुलकर विरोध नहीं करते लेकिन सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर विरोध की रस्मअदायगी कर देते हैं. ये ठीक उसी तरह का मामला है जैसे किसी की मौत के बाद अति व्यस्त आवाम के नुमाइंदे चार दिन बार तेरहवीं की रस्मअदायगी करके अपने अति व्यस्त कामों में लग जाते हैं. लेकिन इनकी आवाज़ में इतना दम नहीं होता कि सत्ता तक सुनाई पड़े.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)