डॉ. वैभव बेमेतरिहा –

रायपुर. छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव-2023 को लेकर हमारी स्पेशल रिपोर्ट की ये 10वीं कड़ी है. इसी श्रृंखला में दल बदलने वाले शीर्ष नेताओं की कहानी भी आप पढ़ रहे हैं. पार्टी छोड़ने और नई पार्टी से जुड़ने वाले नेताओं की सफलता और विफलता पर आधारित यह तीसरी स्टोरी है. यह कहानी उस राजनेता की है, जिनकी पहचान विधायक, सांसद, मंत्री रहने के बाद भी संत कवि और भागवताचार्य के तौर पर पहले रही है.

संत कवि स्व. पवन दीवान

एक सफल संत कवि, भागवताचार्य, खिलाड़ी और राजनेता के तौर पर जाने और माने गए. जिन्होंने एक पंक्ति में जीवन के मूल्य को यह कहते हुए समझा दिया था….तहूँ होबे राख…महूँ होहू राख. जीवन के इस गुढ़ रहस्य को समझने वाले नेता जीवन में राजनीति के उतार-चढ़ाव को शायद ठीक से नहीं समझ पाए. लिहाजा उन्हें राजनीति में उतनी सफलता नहीं मिली, जितनी लोकप्रियता संत कवि और भागवताचार्य के तौर पर मिली.

जन्म-शिक्षा

पवन दीवान का जन्म 1 जनवरी सन् 1945 को राजिम के पास ग्राम किरवई में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई. उनके पिता का नाम सुखराम धर और माता का नाम किर्ती देवी दीवान था. पिता शिक्षक थे. ननिहाल आरंग के पास छटेरा गांव था. स्कूली शिक्षा किरवई और राजिम से पूरी की. जबकि उच्च शिक्षा सागर विश्वविद्यालय और रविशकंर शुक्ल विवि रायपुर प्राप्त की थी. हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी में एमए की डिग्री उन्होने हासिल की थी. अध्यनकाल के समय ही वैराग्य की भावना बलवती हो गई थी. 21 वर्ष की आयु में हिमालय की तरायु में जाकर स्वामी भजनानंदजी महराज से दीक्षा लेकर सन्यास धारण कर लिया और फिर वे पवन दीवान से अमृतानंद बन गए. इसके बाद आजीवन सन्यास जीवन में रहे और गाँव-गाँव जाकर भागवत कथा का वाचन करने लगे थे.

खेल-कविता

अध्यनकाल के दौरान उनकी रुचि खेल में भी रही. फुटबाल के साथ बालीबाल में वे स्कूल के दिनों में उत्कृष्ट खिलाड़ी रहे. इस दौरान ही कविता लेखन की शुरुआत भी कर दी थी. धीरे-धीरे मंच के एक धाकड़ कवि बन चुके थे. छत्तीसगढ़ी और हिंदी में काव्य लेखन किया. उनकी कुछ कविताएं जनता के बीच इतनी चर्चित हुई कि वे जहां भी भागवत कथा वाचन करने जाते, लोग उनसे कविता सुनाने की मांग अवश्य करते. इन कविताओं में ‘राख’ और ‘ये पइत पड़त हावय जाड़’ प्रमुख रहे. वहीं कवि सम्मेलनों उनकी जो कविता सबसे चर्चित रही उसमें ‘एक थी मेरे गाँव की लड़की चंदा उसका नाम था’ शामिल है.

उनकी प्रकाशित पुस्तकों में कविता संग्रह ‘मेरा हर स्वर इसका पूजन’ और ‘अम्बर का आशीष’ उल्लेखनीय हैं. ‘अंतरिक्ष’ ,’बिम्ब’ और ‘महानदी’ नामक साहित्यिक पत्रिकाओं का सम्पादन किया.

भागवत-राजनीति

संत कवि भागवत कथा वाचन, कवि सम्मेलनों से राजिम सहित पूरे अँचल में प्रसिद्ध हो चुके थे. उनके शिष्यों की संख्या लगातार बढ़ते ही जा रही थी. राजनीतिक दल के लोगों से उनका मिलना-जुलना जारी था. और उनकी यही बढ़ती हुई लोकप्रियता एक दिन उन्हें राजनीति में ले आई.

दरअसल स्व. दीवान भी छत्तीसगढ़ के उन बड़े राजनेताओं में से एक रहे, जो दल बदलते रहे और भूल करते रहे. कभी खुद की पार्टी, कभी जनता दल, कभी कांग्रेस, तो कभी भाजपा. पार्टी छोड़ने का सिलसिला चलते ही रहा.

राजनीतिक जीवन की शुरुआत 60 के दशक से होती है. 1967 में पृथक छत्तीसगढ़ की मांग को लेकर अविभाजित म.प्र. के दौरान ‘पृथक छत्तीसगढ़ पार्टी’ के बैनर तले राजिम से विधानसभा का चुनाव लड़े, लेकिन हार गए. दूसरी बार जनसंघ से सन् 1972 में चुनाव लड़े, फिर हार गए. 1975 में आपातकाल के दौरान वे काफी प्रताडि़त रहे और 1977 के विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी के बैनर तले राजिम से तीसरी बार लड़े, इस बार कांग्रेस के दिग्गज नेता स्व. श्यामचरण को हराने में सफल रहे. उस दौर में एक नारा गूँजा था- “पवन नहीं ये आँधी है, छत्तीसगढ़ का गाँधी है.”

श्यामचरण शुक्ल जैसे नेता को हराने का इनाम पवन दीवान को मिला और अविभाजित मध्यप्रदेश में जनता पार्टी की सरकार में जेल मंत्री रहे. 90 का दशक आते-आते वे कांग्रेस के संपर्क में आ गए. 1989 में कांग्रेस नेता अर्जूनसिंह अपने साथ ले गये. उन्हें कांग्रेस की ओर से महासमुंद लोकसभा से टिकट दी गई. विद्याचरण जैसे दिग्गज नेता के सामने चुनाव मैदान में उन्हें उतारा गया. वे वीसी शुक्ल से चुनाव हार गए. दूसरी बार 1991 में उन्हें फिर से टिकट दी गई. इस बार वीसी शुक्ल को हराकर संसद में पहुँचने में कामयाब रहे. तीसरी बार 1996 में फिर लडे़ और भाजपा के चंद्रशेखर साहू को हराकर दोबारा जीतने में सफल रहे. लेकिन 1998 के लोकसभा चुनाव में हार गए.

चुनाव में मिली हार पर कहा था- अब के चुनाव में गए काम से, बदनाम कर दिए गए चंदा के नाम से.

राजनीतिक उठा-पठक के बीच स्व. पवन दीवान छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के आंदोलन का नेतृत्व भी करते रहे. छत्तीसगढ़ियों में आत्मगौरव का भाव जगाने का काम भी सतत् जारी रहा. अट्टाहास, खिलखिलाहट लिए खुद पर हंसने वाले नेता छत्तीसगढ़ियों में हक-अधिकार की भावना जगाने की कोशिशें लगातार अपनी कविताओं और भाषण के जरिए करते रहे. मान-सम्मान और स्वाभिमान की बात कुछ इस तरह कहते थे-

छत्तीसगढ़ में सबकुछ है
एक कमी है स्वाभिमान की
मुझे सही नहीं जाती है
ऐसी चुप्पी वर्तमान की.

कभी पंजा, कभी फूल..

पृथक राज्य छत्तीसगढ़ बनने और छत्तीसगढ़ के पहले विधानसभा चुनाव 2003 तक कांग्रेस में रहे. जोगी सरकार के दौरान एक तरह से उपेक्षित ही रहे. 2003 में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दी और नाराज होकर वे भाजपा के साथ चले. रमन सरकार के पहले कार्यकाल में गौ सेवा आयोग के अध्यक्ष बने. हालांकि भाजपा में भी उम्मीद के अनुरूप सम्मान नहीं मिला. इसके बाद तो राजनीतिक जीवन ढलान पर ही रहा.

समय गुजरते-गुजरते एक दिन ऐसा भी आया जब अपनी खिलखिलाहट से समूचे छत्तीसगढ़ को हंसा देने वाले पवन दीवान सबको रुला गए. 23 फरवरी 2014 को राजिम कुंभ मेला कार्यक्रम के दौरान उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ फिर कोमा में चले गए. 2 मार्च 2014 को दिल्ली में इलाज के दौरान उनका निधन होगा गया.

अधिकतर राजनेताओं की तरह राजनीतिक उतार-चढ़ाव से भरे जीवन में संत कवि भी महत्वकांक्षाओं से खुद को दूर नहीं कर पाए थे. आज भी छत्तीसगढ़ के लोग उन्हें राजनेता के तौर पर नहीं, बल्कि एक संत, एक भागवताचार्य, राज्य निर्माण आंदोलनकारी, छत्तीसगढ़ियों में स्वाभिमान जगाने वाले, छत्तीसगढ़ी अस्मिता के लिए लड़ने वाले कवि के रूप में पहले स्वीकारते, जानते और मानते हैं.

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