छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों में विधानसभा का चुनाव है, और हम हमेशा भाषणों में रामराज्य की चर्चा सुनते हैं, पर हम रामराज्य को कितना समझते यह एक बहुत बड़ा सवाल है, आज हम इसी पर चर्चा करेंगे.

परंपरानुसार विजयादशमी के दिन रावण के पुतले का दहन किया जाता है. अधर्म पर धर्म की जीत का पर्व विजया दशमी है. लंका विजय एवं रावण वध के बाद ही राम राज्य की स्थापना हुई . वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक मंचों में दो वाक्य बड़े प्रचलित हैं राम राज्य एवं सर्व धर्म समभाव गंभीरता से यदि समझा जाये तो बोलने में जितने ये सरल हैं व्यवहार जगत में उतने ही जटिल है, रामचरित मानस में रामराज्य के बारे में लिखा-

बरनाश्रम निज निज धरम निरत वेद सब लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं भय शोक ना रोग।।

रावण के पुतले को ना जाने कितने वर्षों से जला रहे हैं पर वह मरता ही नहीं है ,प्रतिवर्ष जलाना पड़ता है ,वास्तव में रावण बिम्ब मात्र नहीं है एक प्रवृत्ति है, दुर्बल चिंतन है जो सामाजिक व्यवस्था को कुरूप कर असहज एवं अशांत बनाती है. हमारे मनीषियों का मत है जब मन का मोह मरता है तब श्रीराम आते हैं और जब मन का काम मरता है तो श्रीकृष्ण आते हैं. मोह और अहंकार को निर्मूल किये बिना सात्विक विचारों की सरिता का रस प्रवाह संभव ही नहीं है.

सर्वधर्म समभाव की जगह यदि सर्वधर्म सद्भाव ही आ जाये तो देश की, समाज की तस्वीर बदल सकती है. श्रीराम के बनवास चले जाने के बाद अयोध्या में रामराज्य स्थापित होने में 14 वर्ष लग गये. इस देश के शील, संयम, पुरुषार्थ एवं चरित्र का नाम राम है. यह देश चित्र को नहीं चरित्र को नमन करता है. राम राज्य के पहले अयोध्या में श्री भरत जी द्वारा पादुका राज्य संचालित हुआ. श्री भरत के पादुका राज्य के निर्मल, निर्झर, सात्विक भाव प्रवाह के अवगाहन के बिना राम राज्य की स्थापना कैसे होगी ?

भरत सरिस को राम सनेही।
जग जप राम राम जप जेही।।

राम राज्य एवं पादुका राज्य की मान्यताओं को संक्षिप्त में आज इस पर्व पर वाणी सुमन समर्पित करते हैं. पादुका राज्य की पृष्ठभूमि चित्रकूट की समवेत सभा में बनी श्री भरत जी का दैन्य भाव का समर्पण था. उन्होंने कहा था यदि किसी खेत में कोदो लगाया जाय और उसे अमृत से भी यदि सींचा जावे तो भी पूजा की थाली में कोदो को नहीं चांवल को ही अक्षत के लिए रखा जाता है, मैं कैकयी के निठुर कोख से जन्म लेने भगवान का अक्षत कैसे बन सकता हूँ?

श्री राघवेन्द्र चित्रकूट की भरी सभा में कहा कि भरत तुम मेरे अक्षत नहीं मेरे संकल्प हो. मेरे आदर्शों की प्रतिष्ठा मंजूषा हो. पूरा विश्व मुझ पर भरोसा करता है परंतु मुझे तो इस विषम परिस्थिति में तुम्हारा ही भरोसा है.

मोहि सब भांति भरोस तुम्हारा।
तदपि कहेऊ अवसर अनुसारा।।

भैय्या अभी अयोध्या को तुम्हारी जरूरत है. अयोध्या का राज्य संचालन कर उसे सहज बनाना तुम्हारा दायित्व है और मेरी इच्छा भी है. अयोध्या को अवध बनाना तुम्हारा दायित्व है.

तुम राम राज्य के पुष्ठ सशक्त आधार भूमि स्थापित कर सकते हो. सत्ता के सुख को भोग नहीं साधना समझेगा वही समाज में सात्विक विचारों को स्थापित कर सकता है. सुविधाओं में बिके हुए लोग और रेखाओं में बंधे हुए लोगों में रामराज्य स्थापित करने का सामर्थ्य नहीं होता. यह दुर्लभ पुरुषार्थ तुममे है. भरत जी ने कहा- हे प्रभु जिस अयोध्या के परिवेश ने श्रीराम को नहीं समझा वे मुझे क्या समझेंगे और फिर मैं एक सेवक हूँ. राजधर्म से अनिभिज्ञ हूँ.

श्रीराम ने भरत जी को राजधर्म का एक बीजमंत्र दिया. वह आज भी प्रासंगिक है. भरत राजधर्म में मन के मनोरथ को समय पूर्व सार्वजनिक नहीं करना चाहिए अन्यथा मनोरथ सिद्धि में बाधाएँ आ जाती हैं. श्री राम ने अपने मनोरथ की गोपनीयता कुछ समय से पहले सार्वजनिक कर दी.

राजधरम सरवस इतनोई जिमि मन माह मनोरथ गोई.

तुम्हें भरत के एक नए धवल अध्याय का प्रारंभ करना है. संक्षिप्त में भगवान श्रीराम ने भरत को चरण पादुका प्रदान की. पादुका राज्य की भूमिका बनी – प्रभु करि कृपा पावरी दीन्ही.

उसी पादुका को स्थापित करके नंदीग्राम में ऋषिवत धर्म पर पादुका राज्य किया. सबसे रहस्य की बात यह है कि वे पादुका से आदेश मांगते थे.

नित पूजत प्रभु पावरी प्रीति ना हृदय समात।
मांग मांग आयसु करत राज काज बहुं भांत।।

पादुका से आज्ञा का आध्यात्मिक एवं तात्विक अर्थ है श्रीराम के उच्च आदर्शों मूल्यों की आना, प्रेरण पथ, श्रीराम की अपेक्षाओं की आहट, राष्ट्रबोध एवं संस्कृति के अंतर स्वर की आहट और उसके संकेत पर अनुशासित राज्य करना .

पादुका राज्य संयम का राज्य है राम राज्य अनुशासन का राज्य है. संयम के सशक्त भावभूमि में ही राम राज्य का भव्य राज्य प्रत्साद बनता है. राजधर्म सभी के लिये अनुकरणीय होना चाहिए. जब किसी व्यक्ति का आहार विहार, उठना, बैठना, बोलना उसका आचरण ऐसा हो कि सभी व्यक्ति यह समझे यह हमें भी करना – चाहिए तो उस व्यक्ति का वह आचरण मात्र व्यवहार नहीं सिद्धान्त बन जाता है. जब वही व्यक्ति भोगवादी परंपराओं से विचलित ना होकर समग्र निष्ठा का निवेष अपने कर्त्तव्यों पर कर देता है वह सिद्धांत- सिद्धांत नहीं धर्म बन जाता है. वह राष्ट्र का बिंब बन जाता है. भरत के पादुका राज्य का भारत है.

संक्षिप्त तात्पर्य यह है कि राजधर्म भटक गया है. महत्वकांक्षाओं की बसाखी पर अहंकार एवं भोगवादीता की धुंध में अपने अस्तित्व को खोज रहा है उसे पादुका राज्य के रहस्य को समझना चाहिए. नैतिक मूल्य सतचरित्र, सामाजिक सद्भाव, समरसता के सहज भाव से अपने कर्त्तव्यों को राजतंत्र यदि ईमानदारी से करेगा तो रावण के पुतले के जलते हुए धुएं में नहीं संस्कारों के विमल आलोक में विजया दशमी बनाएंगे.

लेखक संदीप अखिल न्यूज 24 मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ और लल्लूराम डॉट कॉम के सलाहकार संपादक हैं.