आज देशभर में विजयादशमी का पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है. बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक दशहरा का जश्न हर तरफ देखने को मिल रहा है. इसी के साथ भारत में एक ऐसी जगह भी है जहां विजयदशमी के साथ ही दशहरा की शुरुआत होती है.

बता दें कि देश के हिमाचल का कुल्लू दशहरा विजयदशमी से शुरू होता है. हिमाचल का ये अट्रैक्टिव टूरिस्ट स्पॉट में करीब 7 दिनों तक चलता है. स्थानीय लोग रीति-रिवाजों के साथ अपने इस त्योहार का जश्न मनाते हैं. दशहरे की शुरुआत के साथ ही कुल्लू में अलग ही रौनक देखने को मिलती है. यहां मेघनाथ, कुंभकरण और रावण का पुतला नहीं फूंका जाता. बल्कि लोकल्स अपने भगवान की पूजा में डूब जाते हैं. चलिए आपको बताते हैं कुल्लू दशहरा से जुड़ी कुछ रोचक बातें… Read More – द कश्मीर फाइल्स के बाद अब विवेक अग्निहोत्री लाने वाले हैं नई फिल्म Parva, कहानी महाभारत पर होगी आधारित …

कुल्लू दशहरा, हिमाचल

बता दें कि हिमाचल के कुल्लू में दशहरा की शुरुआत आज 24 अक्टूबर से हो गई है. यहां के लोग अपने भगवान रघुनाथ की भव्य रथयात्रा का आयोजन करते हैं. ढोल नगाड़ों की धुनों से साथ लोग अपने देवता का स्वागत करते हैं. त्योहार को मनाने वाले लोग इस दौरान स्थानीय पहनावे में नजर आते हैं. इस दौरान ढोल, नगाड़ों और बांसुरी का इस्तेमाल करके भगवान को प्रसन्न करने की कोशिश की जाती है.

लोकल डांस करते हैं लोग

इस दौरान स्थानीय लोग अपना पारंपरिक नृत्य करते हैं. सात दिनों तक चलने वाला कुल्लू दशहरा लोगों की संस्कृति और धार्मिक आस्था को दर्शाने वाला एक प्रतीक है. त्योहार में शामिल होने वाले लोगों का मानना है कि करीब 100 देवी-देवता इस मौके पर पृथ्वी में आते हैं और इसका हिस्सा बनते हैं. Read More – छत्तीसगढ़ में माता के इस चमत्कारिक मंदिर में मिर्च से होता है हवन, जानिए क्या है इसके पीछे की वजह …

ऐसा है इतिहास

इस मेले का आयोजन कुल्लू के धौलपुर मैदान में होता है. इसकी शुरुआत उगते हुए चंद्रमा के साथ होती है और ये 7 दिनों तक चलता है. ऐसा माना जाता है कि फेस्टिवल की शुरुआत साल 1662 में हुई थी, लेकिन इसका इतिहास काफी पुराना है. त्योहार के पहले दिन दशहरे की देवे कुल्लू आते हैं.

देवता रघुनाथ जी

त्योहार से अनोखी कहानी जुड़ी है. कहते हैं कि साल 1650 में यहां के राजा जगत सिंह को बीमारी हो गई. उन्होंने अपने इलाज के लिए बाबा पयहारी की मदद ली जिन्होंने राजा को भगवान रघुनाथ की मूर्ति लाने और उसके चरणामृत की सलाह दी. काफी मुश्किलों के बाद ये मूर्त कुल्लू में आ पाई. जिसके बाद राजा ने सभी देवी-देवताओं का भव्य आयोजन के जरिए स्वागत किया. तभी से रघुनाथ जी को यहां का बड़ा देवता माना जाता है. इसके साथ ही दशहरा से देवी-देवताओं को लाने की प्रथा चली आ रही है.