स्पेशल डेस्क, भोपाल। मध्य प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग यूं तो हमेशा से ही उठती रहीं है, लेकिन अब तक सिर्फ एक ही आदिवासी सीएम की कुर्सी तक पहुंच सका हैं। जी हां हम बात कर रहे है राजा नरेशचंद्र सिंह की, जो मध्य प्रदेश के इतिहास के इकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री बने। वो भी सिर्फ 13 दिन के लिए…नरेशचंद्र सिंह ने दो हफ्ते में ही CM पद से इस्तीफा दे दिया था और उसके बाद राजनीति में फिर दोबारा नजर ही नहीं आए।
राजा नरेशचंद्र सिंह छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में सारंगढ़ राज्य के शासक थे। उन्होंने अविभाजित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में भी कार्य किया। उनका जन्म 21 नवंबर 1908 को हुआ था। उन्होंने राजकुमार कॉलेज, रायपुर से शिक्षा हासिल की थी। शिक्षा पूरी होने के बाद रायपुर में मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य कर प्रशासनिक दक्षता हासिल की।
इसके बाद अपने पिता स्वर्गीय राजाबहादुर जवाहर सिंह, सी.आई.ई. के राज्यकाल में शिक्षा मंत्री के पद पर भी कार्य किया। 1936-37 में महानदी की भयंकर बाढ़ के समय सहायता-कार्य में सक्रिय भागीदारी निभाई और बाढ़ पीड़ितों को अन्न, वस्त्र व आवास संबंधी सहायता की और हैजा महामारी फैलने पर जनता की मदद की।
1951 में पहली बार चुने गए विधायक
उन्होंने 1942 में फुलझर राजा (सराईपाली-बसना) की सुपुत्री ललिता देवी से विवाह किया। 1948 में अपने राज्य को नये आजाद भारत में विलीन कर दिया। सितंबर 1949 में छत्तीसगढ का विलय हुआ, रियासतों के प्रतिनिधि के रूप में सारंगढ़ के राजा नरेशचंद्र सिंह को विधानसभा में मनोनीत किया गया और फिर मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। 1951 में जब देश में प्रथम आमचुनाव हुआ तब कांग्रेस की ओर से राजा नरेशचंद्र सिंह ने सारंगढ़ सीट से ऐतिहासिक जीत हासिल की। इस चुनाव के बाद विद्युत के साथ साथ लोक निर्माण और आदिवासी कल्याण विभाग का दायित्व भी उन्हें दिया गया।
उन्होंने 1954 में उस टीम का नेतृत्व किया जिसने अनुसूचित जनजातियों के कल्याण की देखभाल के लिए सरकार के भीतर एक अलग विभाग बनाया, जिसे आदिवासी कल्याण निदेशालय नाम दिया गया। उन्हें 1955 में मध्य प्रदेश में प्रथम जनजातीय कल्याण मंत्री बनाया गया।
13 मार्च 1969 को बने CM, 13 दिन में दिया इस्तीफा
गोविंद नारायण के इस्तीफे के बाद 13 मार्च 1969 को राजा नरेशचंद्र मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। नरेशचंद्र सिंह मध्यप्रदेश की राजनीति के इतिहास में पहले आदिवासी सीएम बने थे। लेकिन उसके 13वें दिन ही यानि 25 मार्च 1969 को राजनीतिक तिकड़म और दांव-पेचों से त्रस्त होकर उन्होंने CM के पद के साथ साथ विधानसभा से इस्तीफा देकर राजनीति से सन्यास की घोषणा कर दी। कांग्रेस के अल्पमत में आने के कारण नरेशचंद्र सिंह नाराज थे और उन्होंने इस्तीफा देना सही समझा। इसके बाद के वर्षों में उन्होंने छत्तीसगढ़ में लोगों के उत्थान के लिए सामाजिक कार्य किया।
बताया जाता है कि 1967 में राजमाता सिंधिया ने नाराज होकर कांग्रेस छोड़ दी थी। मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव करवाए गए जिसमें राजमाता गुना से जीत गई और उनके पार्टी छोड़ने के बाद कांग्रेस में दरारें आना शुरू हो गई। पार्टी के कई बड़े नेता मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा के स्वभाव से नाराज चल रहे थे और इसका फायदा राजमाता ने उठाया।
राजमाता ने किया था तख्तापलट
मुख्यमंत्री से नाराज चल रहे 35 विधायक गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में राजमाता के पास पहुंचे और बिना देरी करते हुए राजमाता ने कांग्रेस का तख्ता पलट कर दिया। रातोंरात द्वारिका प्रसाद मिश्रा की सरकार गिर गई और 15 फीसदी विधायकों का दल बदल करवाया गया। राजमाता के निर्देशन में गोविंदनारायण सिंह की सरकार तो बन गई थी। लेकिन गठबंधन की ये सरकार 19 महीने ही चल सकी और सभी ने वापस कांग्रेस में जाने का फैसला किया और गोविंद सिंह ने पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद राजमाता चाहती थी को कोई ऐसा व्यक्ति सीएम बने जो सर्वमान्य हो और इसी के चलते नरेशचंद्र सिंह का चुनाव किया गया था।
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