सुरेश परतागिरी, बीजापुर. छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य बस्तर अपनी अनोखी परंपरा, आदिवासी रीति-रिवाज, कला-संस्कृति, मेले मंड़ई के लिए विख्यात है. बस्तर के आदिवासियों से जुड़ी परंपरा शायद ही अन्यत्र देखने को मिले. आदिवासी अपनी परंपरा को ही मुख्य धरोहर मानते हैं और यही वजह है कि सदियों से चली आ रही परंपरा आज भी विद्यमान है.
आज हम ऐसी ही एक पंरपरा के बारे बताने जा रहे हैं, जिसका संबंध बस्तर संभाग मुख्यालय से लगभग 159 किमी दूर बीजापुर जिला मुख्यालय में विराजमान चिकटराज देव से हैं, जो न सिर्फ बीजापुर के आराध्य है बल्कि वर्ष में केवल एक बार ही वार्षिक अनुष्ठान के दौरान अंचलवासियों को दर्शन देते हैं.
तीन दिन चलता है अनुष्ठान
तीन दिवसीय वार्षिक अनुष्ठान के दरम्यान ही चिकटराज देव नगर के तहसील आफिस भी पहुंचते हैं. जानकार गौतम राव बताते हैं कि रियासतकाल में राजकोष में वित्तीय व्यवस्था अंतर्गत कर इत्यादि के संग्रह के लिए खजांची नाम से व्यवस्था लागू थी, राजा-महाराजाओं की ओर से जिसका समय-समय पर निरीक्षण किया जाता था, चूंकि अब रियासतों का दौर खत्म हो चुका है और उसकी जगह तहसील दफ्तर ने ले ली है फिर भी कर्ता-धर्ता के रूप में चिकटराज देव तहसील दफ्तर पहुंचते हैं. जहां राजस्व व प्रशासन के आला अधिकारियों की मौजूदगी में खजांची के रूप में एक बक्सा रखकर देव की उपस्थिति में परंपरा का निवर्हन होता है.
वार्षिक अनुष्ठान के द्वितीय दिन यह परंपरा निभाई जाती है. पूरे विधि-विधान को संपन्न कराने के दौरान चिकटराज देव के साथ पुजारी, मंदिर समिति सदस्य और नगरवासी तहसील कार्यालय पहुंचते हैं. मंदिर समिति से जुड़े सदस्य बताते हैं कि बस्तर की आराध्य मां दंतेश्वरी जब दंतेवाड़ा में विराजित हुई थी, उसी दौरान चिकटराज देव बीजापुर में विराजमान हुए. बीजापुर के अंतिम छोर में बसे पुजारी कांकेर में इनके पिता धर्मराज विराजमान है, इसी तरह गोंगला में कनपराज , चेरपाल में पोतराज, कोंडराज समेत इनके पांच भाई अंचल में विराजमान है.
आराध्य चिकटराज गृभग्रह से बाहर आते हैं
बताया गया कि कि चैत्र माह में पूर्णिमा से पहले और रामनवमीं उपरांत दूसरे मंगलवार को वार्षिक अनुष्ठान तय होता है. इसमें आराध्य चिकटराज गृभग्रह से बाहर आते हैं. वार्षिक अनुष्ठान में 18 परगना के देव विग्रहों को न्यौता दिया जाता है. ग्राम प्रमुखों को नारियल-अगरबत्ती भेंटकर निमंत्रण की रस्म निभाई जाती है.
इस बीच बीजा देवी, गुज्जा देव (अंचल के प्रमुख देव-देवी) से विशेष भेंट मिलाप की रस्म भी पूरी की जाती है. कोमटी देव तालाब में स्नान के साथ ही देव विग्रहों के पहुंचने के पश्चात पूजा-अर्चना से जुड़ी अन्य रस्में पूरी होती है तत्पश्चात् मंदिर के नजदीक एक स्थल पर जिसे मंड़ई भाटा कहा जाता है वहां देव खेलनी की परंपरा आरंभ होती है. देव नगरभ्रमण के लिए भी निकलते हैं.
अमूमन चिकटराज मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित होता है, लेकिन वार्षिक अनुष्ठान के दौरान महिलाएं भी पूजा-अर्चना में जुटती हैं. महिलाओं के गृहग्रह में प्रवेश पर प्रतिबंध के पीछे वजह यह कि चिकिटराज अविवाहित है.
बारह वर्ष बाद चिकिटराज का होता है पुर्नजन्म
एक पंरपरा यह भी कि बारह वर्ष बाद चिकिटराज का पुर्नजन्म होता है. इस दौरान नवजात से जुड़े प्रत्येक संस्कार को पूरे कर विधि-विधान से इन्हें गृर्भग्रह में पुनः विराजमान कराया जाता है. इसके ठीक दो वर्ष बाद चिकटराज अपने पिता से मिलने पुजारी कांकेर पहुंचते हैं.
वर्तमान में मंदिर समिति में देव सियान मेघनाथ मांझी, देव प्रमुख रामशरण मांझी, पुजारी सागर पुजारी, परघनिया मांझी रामशंकर साहनी, माता पुजारी संजय, पेरमा दिनेश , माटी पुजारी सुखलाल, गायता नंदकिशोर पांडेय द्वारा परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं, इसके अलावा आगामी 23 अप्रैल को चिकटराज देव मंड़ई में अंचल के 27 देवी-देवताओं को आमंत्रण भेजा गया है.
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