डॉ. वैभव बेमेतरिहा की रिपोर्ट, रायपुर. सरगुजा … जिसे उत्तर छत्तीसगढ़ कहा जाता है. इसी उत्तर छत्तीसगढ़ से होता है छत्तीसगढ़ में भगवान राम का प्रवेश… और यही उत्तरीय छत्तीसगढ़ यूपी, बिहार, झारखंड की सीमा से जुड़कर बन जाता है विशेष. विशेष अपनी आदिम संस्कृति और सभ्यता के लिए…विशेष पौराणिक और पुरातात्विक महत्ता के लिए…विशेष राम के रामगढ़ के लिए… विशेष विष्णु के महेशपुर के लिए… विशेष शिव के कैलाश गुफा के लिए….विशेष तातापानी, अमृतधारा के लिए….विशेष तिब्बती मोहल्ला-पारा के लिए….विशेष कोयला के भंडारण के लिए….विशेष सघन हसदेव अरण्य के लिए….विशेष हसदेव, सिंदूर, कन्हार नदी और घुनघुट्टा बांध के लिए…विशेष मैनपाठ में ढलती सांझ के लिए….विशेषताएं अनगिनत है, लेकिन विशेषताओं में एक विशेषता सरगुजा का प्रदेश में सबसे ठंडा क्षेत्र कहलाना भी है….लेकिन राजनीति में सियासत को गरमाना भी है. ठंडी सरगुजा की सियासत रियासतकाल से ही गर्म रही है.
सरगुजा की सियासत में राजपरिवार का दखल और वर्चस्व पहले आम चुनाव से ही रहा है. वर्तमान में सरगुजा की सियासत में रियासत के महाराजा टीएस सिंहदेव ही हैं. हालांकि 2023 के विधानसभा चुनाव में खुद के संग समूचे क्षेत्र में कांग्रेस की करारी हार के बाद सियासी पिक्चर एक तरह गायब से हैं. बावजूद इसके इलाके में कांग्रेस की राजनीति बाबा साहब के ईद-गिर्द ही है. वहीं भाजपा यहां पूर्व अध्यक्ष स्व. शिव प्रताप सिंह के बाद किसी एक चेहरे पर केंद्रित नहीं. भाजपा के पास यहां मंत्री रामविचार नेताम, पूर्व केंद्रीय मंत्री रेणुका सिंह, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रामसेवक पैकरा जैसे कई आदिवासी चेहरे हैं.
चुनावी इतिहास
सरगुजा लोकसभा का चुनावी इतिहास बताता है कि यह छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पूर्व तक कांग्रेस का सबसे मजबूत गढ़ रहा है, लेकिन वर्तमान में सरगुजा भाजपा का गढ़ बन चुका है. सरगुजा में कमल लगातार खिल रहा है और पंजे की पकड़ की हर लोकसभा चुनाव में कमजोर होती चली गई है.
कांग्रेस का रिकॉर्ड
सन् 1952 के पहले चुनाव में सरगुजा लोकसभा में दो सांसद चुने गए थे. एक सामान्य वर्ग से एक आदिवासी वर्ग से. पहला और दूसरा चुनाव इसी तरह से बड़ी सीटों पर हुआ था. 1952 में बाबूनाथ सिंह आदिवासी वर्ग से कांग्रेस की टिकट पर चुनाव जीते थे, जबकि सामान्य वर्ग से सरगुजा महाराजा रहे चंडिकेश्वर शरण सिंह जूदेव निर्दलीय चुनाव जीते थे. 1957 के चुनाव में दोनों ही दूसरी बार सांसद बने, लेकिन कांग्रेस की टिकट पर. 1962 में यह सीट पूरी तरह आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हो गई थी और अब एक ही सांसद यहां चुने जाने की शुरुआत हो गई थी. आदिवासी आरक्षित सीट पर कांग्रेस नेता बाबूनाथ सिंह का विजयी अभियान जारी रहा. 52 के पहले चुनाव से लेकर 71 तक लगातार वे 5 बार चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे.
कमल खिला
1975 में आपातकाल के बाद कांग्रेस विरोधी लहर सरगुजा में चल रही है. 77 के चुनाव में इसका असर भी दिखा. 77 में कांग्रेस को इस सीट पर करारी हार का सामना करना पड़ा और भारतीय लोक दल से लरंग साय चुनाव जीतने में सफल हुए थे. हालांकि 80 और 84 के चुनाव में कांग्रेस ने वापसी की. 80 में चक्रधारी सिंह और 84 में विजय प्रताप सिंह कांग्रेस की टिकट पर चुनाव जीते थे, लेकिन 89 के चुनाव में इस सीट पर भाजपा का खाता खुल गया. भाजपा की टिकट पर लरंग साय चुनाव जीते थे.
1989 में सरगुजा में भाजपा का कमल खिला ही था कि दो साल बाद 91 के चुनाव में मुरझा गया. 91 के चुनाव में कांग्रेस फिर से शानदार वापसी की. कांग्रेस ने चेहरा बदला और खेलसाय सिंह जीतकर संसद पहुँचे. 96 के चुनाव में खेलसाय के साथ कांग्रेस को फिर जीत मिली. हालांकि 98 के चुनाव में लरंग साय के सहारे फिर कमल खिल गया, लेकिन 99 के चुनाव में भाजपा की हार और खेलसाय के संग कांग्रेस की एक और जीत हुई.
अलग राज्य
2000 में मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ अलग राज्य बना. राज्य बनने के 2004 में लोकसभा का पहला चुनाव हुआ. इस चुनाव से पहले 2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के गढ़ को भाजपा जीतकर सरकार बना चुकी. 2004 के चुनाव के दौरान राज्य और केंद्र दोनों में भाजपा की सरकार थी. इस तरह भाजपा हर दृष्टि से मजबूत स्थिति में थी. इसी का फायदा भाजपा काे मिला और सरगुजा में अबकी बार कमल ऐसा खिला कि वह मुरझा ही नहीं पाया.
नए चेहरों के साथ भाजपा का गढ़
2004 में सरगुजा से भाजपा की टिकट पर नंदकुमार साय चुनाव जीते और संसद पहुँचे थे. हालांकि 2004 में देश में कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनीं थी. लेकिन इसका असर 2009 के चुनाव में सरगुजा पर नहीं पड़ा और कमल खिलना जारी रहा. 2009 के चुनाव में भाजपा ने चेहरा बदला, लेकिन सरगुजावासियों ने मन नहीं बदला. 09 के चुनाव में भाजपा ने मुरारीलाल सिंह को टिकट दिया और वे भी जीतकर संसद पहुँचे. 09 के बाद 14 और 19 में भाजपा प्रयोग करती चली और चेहरों में बदलाव भी जारी रहा. 14 के चुनाव में कमलभान सिंह जीते तो 19 के चुनाव में पहली बार इस सीट से महिला सांसद के रूप में रेणुका सिंह जीतीं.
भाजपा ने चौंकाया
1952 के पहले चुनाव से लेकर 2019 के चुनाव सरगुजा सीट में गोंड जाति का ही वर्चस्व रहा है. क्योंकि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टी की ओर से इसी जाति से टिकट दिया जाता रहा है. लेकिन 2004 के चुनाव से लगातार नए चेहरे को चुनाव में उतराने वाली भाजपा ने इस बार कंवर जाति से टिकट देकर सबकों चौंका दिया है. क्योंकि आबादी के हिसाब से इस सीट पर गोंड जाति की बहुलता है.
चिंतामणि महाराज, भाजपा प्रत्याशी
भाजपा ने इस सीट से संत गहिरा गुरु के बेटे चिंतामणि महाराज को टिकट दिया है. चिंतामणि महाराज कंवर जाति से हैं. गुरु परिवार से होने के नाते सामाजिक रूप से क्षेत्र में मजबूत पकड़ रखते हैं. राजनीतिक रूप से भी अपनी पैठ अंचल में बना चुके हैं. राजनीतिक जीवन की शुरुआत भाजपा से ही हुई थी. लेकिन 2013 विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा छोड़ कांग्रेस में चले गए थे. कांग्रेस की टिकट पर दो बार अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों से विधायक भी रहे. 13 में लुंड्रा से और 18 में सामरी से विधायक रहे. लेकिन 23 के चुनाव में टिकट कटने के बाद भाजपा में वापस गए और नतीजा ये रहा है कि सरगुजा की सभी सीटें कांग्रेस हार गई. माना जाता है कि कांग्रेस की हार और भाजपा की जीत में चिंतामणि महाराज का भी बड़ा योगदान रहा है. सरगुजा की ऐतिहासिक जीत के नायक भले ही कई रहे हो, लेकिन इसका प्रतिफल चिंतामणि महाराज को भाजपा की लोकसभा टिकट के साथ मिला. पार्टी ने उन्हें जातिगत समीकरणों से इतर नए प्रयोग के साथ टिकट दी है.
शशि सिंह, कांग्रेस प्रत्याशी
दूसरी ओर कांग्रेस ने भी इस बार प्रयोग किया है. कांग्रेस ने वरिष्ठ नेता की जगह से युवा चेहरे पर दांव लगाया. कांग्रेस ने युवा कांग्रेस की राष्ट्रीय पदाधिकारी शशि सिंह को प्रत्याशी बनाया. शशि सिंह मजबूत राजनीतिक परिवार से आती हैं. शशि सिंह पूर्व मंत्री स्व. तुलेश्वर सिंह की बेटी हैं. जातिगत समीकरण और महिला आरक्षण का भी कांग्रेस ने ध्यान रखा है. शशि गोंड जाति से है. वर्तमान में जिला पंचायत सदस्य हैं. इसके साथ राहुल गांधी के युवा सदस्यों की जो टीम है उसमें शशि सिंह शामिल हैं. सरगुजा महाराजा और पूर्व उपमुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव का समर्थन भी शशि सिंह के साथ है.
8 में 8
जातिगत समीकरण से इतर अगर वर्तमान में क्षेत्रीय, भगौलिक और राजनीतिक समीकरण को देखे तो भाजपा का पलड़ा भारी दिखता है. क्योंकि सरगुजा लोकसभा में शामिल सभी 8 विधानसभा सीटों पर भाजपा काबिज है. अंबिकापुर, सीतापुर, लुंड्रा, सामरी, रामानुजगंज, प्रेमनगर, प्रतापपुर और भटगांव. इन सीटों में 23 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने भारी मतों से जीत हासिल की थी. इस लिहाज से कांग्रेस के सामने एक बड़ी चुनौती क्षेत्रीय, भगौलिक समीकरण को साधना भी है.
2019 का परिणाम
2019 में भाजपा प्रत्याशी रहीं रेणुका सिंह जीतीं थी. रेणुका सिंह ने कांग्रेस प्रत्याशी और तीन बार सांसद रहे वरिष्ठ कांग्रेस नेता खेलसाय सिंह को डेढ़ लाख से अधिक मतों से हराया था. रेणुका सिंह को 6 लाख 63 हजार 711 वोट मिले थे, जबकि खेलसाय सिंह को 5 लाख 5 हजार 838 वोट. वहीं तीसरे नंबर पर नोटा रहा, जिसके हिस्से 29 हजार वोट आए थे. गोंगपा प्रत्याशी आशादेवी 24 हजार मतों के साथ चौथे नंबर रहीं थी. इसके साथ ही बसपा प्रत्याशी को 18 हजार मत प्राप्त हुए थे.
मत प्रतिशत
मत प्रतिशत के हिसाब से देखे तो भाजपा को 53.04 और कांग्रेस को 40. 42 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे. 2019 के चुनाव में 75 फीसदी अधिक मतदान हुआ था. अनुमान है कि इस चुनाव में रिकार्ड टूट जाएगा.
मुद्दें
सरगुजा में रेल और हवाई सेवा बड़ा मुद्दा है. इसके साथ धर्मांतरण और हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा भी हावी है. वहीं डिस्टलिंग का मुद्दा भी गर्माया हुआ है. धार्मिक मुद्दों के अलावा कोयला खनन, विस्थापन और हसदेव अरण्य का मुद्दा भी है. बेरोजगारी, पलायन के साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव भी बड़ा मुद्दा है.
- कुल मतदाता-18,19,347
- महिला-9,14,398
- पुरुष-9,04,915
- तृतीय लिंग-34
जानकारों का मत
जानकारों का मानना है कि सरगुजा लोकसभा में 2019 की तरह मोदी लहर तो नहीं, लेकिन मोदी मैजिक भी बरकरार है. यहां स्थानीय मुद्दों के साथ राष्ट्रवाद का मुद्दा भी मतदाताओं के मन में है. इसके साथ ही विधानसभा चुनाव 2023 में मिली कांग्रेस को करारी हार के बाद से कांग्रेस में बिखराव की स्थिति भी है, दूसरी ओर भाजपा में 23 की ऐतिहासिक जीत और आदिवासी मुख्यमंत्री बनने के साथ उत्साह है. हालांकि जनता युवा और वरिष्ठ के बीच चुनाव का आंकलन कर नफा और नुकसान भी टटोल रहे हैं. प्रचार अभियान में भाजपा बहुत आगे रही है. मुख्यमंत्री साय सहित भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं ने कई सभाएं कर जनता को रिझाने में कमी नहीं की है. महतारी वंदन और महालक्ष्मी जैसी योजनाएं भी चर्चा में है, जिसका असर वोटिंग में दिख सकता है. क्षेत्रवार समीकरण के आधार पर फिलहाल तो भाजपा का पलड़ा भारी दिख रहा है.
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