जब भी चंबल या बीहड़ का जिक्र होता है, डाकुओं का किस्सा जरूर याद आ जाता है। डाकुओं की शरणस्थली में रहने वाले ये इलाके आज दहशत से दूर हैं। जहां कभी डाकुओं के खौंफ से लोग जाना तो दूर उस जगह की बात तक नहीं करते थे आज वहीं भक्तों का सैलाब उमड़ता है। अब आप सोच में पड़ गए होंगे कि हम कहा की बात कर रहे हैं। तो आइए जानते हैं डाकुओं के इलाके में भक्तों का आना कैसे हुआ।

तड़तड़ाहट गूंजने वाले बीहड़ में बम-बम भोले

गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंजने वाले बीहड़ों में अब बम-बम भोले के नारे गूंजते हैं। हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश का जिला इटावा की। जो देश की राजधानी दिल्ली से 340 और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 224 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस शहर में कई विरासतों को संजोया है। कई दशको तक इस जगह ने डाकुओं को पनाह दी। 20वीं शताब्दी में यहां से डाकुओं का पूरी तरह सफाया हो गया। जिसके बाद यह स्थल आस्था का केंद्र बना हुआ है। सावन के महीने में बीहड़ में चंबल नदी के किनारे मौजूद प्राचीन भारेश्वर मंदिर भक्तों का तांता लगा रहता है।

दरअसल, जिले की चकरनगर तहसील के गांव भरेह में प्राचीन भारेश्वर मंदिर आस्था का बड़ा केंद्र है। यह मंदिर चंबल नदी और बीहड़ के किनारे बना हुआ है। जहां हर साल सावन के माह में देश के कोने कोने से भक्त दर्शन करने आते हैं।

भीम ने चंबल की रेत से बनाया था शिवलिंग

प्राचीन भारेश्वर मंदिर महाभारतकाल का बताया जाता है। यहां के ग्रामीणों का कहना है कि, अज्ञातवास के दौरान पांडव यहां रुके थे और यहां कुछ समय उन्होंने गुजारा था। इसी दौरान भीम में चंबल नदी से रेता निकाल कर शिवलिंग बनाई थी। तभी से यहां हजारों साल पुराना मंदिर बना हुआ है।

कुछ ग्रामीण कहते हैं कि, यहां पर ठहरने पर भीम ने भगवान शिव की अराधना करने के लिए चंबल नदी की रेत से शिवलिंग बनाकर स्थापित किया था। जिसकी द्रोपदी सहित पांचों पांडवों ने पूजा अर्चना की थी। बतादें कि ये मंदिर 444 फीट की ऊंचाई पर बना हुआ है। मंदिर तक जाने के लिए भक्तों को 108 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं।

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