पुरुषोत्तम पात्र, गरियाबंद. सुहागन शब्द सुनते ही हमारे दिमाग में रंग-बिरंगी साड़ी पहने पूरी तरह सजी धजी महिलाओं की तस्वीर सामने आती है. लेकिन एक ऐसा गांव है जहां के पुजारी परिवार की महिलाएं सुहागन होते हुए भी कोई श्रृंगार नहीं करती, बल्कि विधवा की तरह सफेद लिबाज पहनती हैं.

छत्तीसगढ़ के गरियाबंद तहसील मुख्यालय से 24 किमी दूर कोसमी गांव में रहने वाले आदिवासी पुजारी परिवार के घर की महिलाएं सुहागन तो हैं, लेकिन न उनके मांग पर सिंदूर, न ही माथे पर कोई बिंदी होती है. कलाई पर कांच की चूड़ियों की जगह कांसे की चूड़ी पहनती हैं और लिबाज भी विधवा की तरह सफेद है.

कोसमी के पुजारी फिरत राम ध्रुव ने बताया कि यह उनके परिवार का रिवाज है, जो कई पीढ़ियों से जारी है. कोसमी गांव में 32 परिवार रहते हैं, जहां दो पीढ़ियों की 28 बहुएं मौजूद हैं. इनमें से 4 बहुएं विधवा भी हैं. यह सभी बहुएं अगर एक साथ बैठ जाएं तो बाहरी व्यक्ति को सुहागन व विधवा में फर्क नजर नहीं आता. पिछली 10 पीढ़ियों से चली आ रही प्रथा के मुताबिक सुहागन के हाथ में कांसे की चूड़ियां, जबकि विधवा के हाथ में चांदी की चूड़ी होती है, जिसे बीच से कट किया जाता है. 10 पीढ़ियों से लागू इस रिवाज में चौथी पीढ़ी के समय से मंगलसूत्र पहनने का साहस केवल बहुएं जुटा सकी हैं.

जानिए बेरंग लिबास पहनने का रिवाज क्यों शुरू हुआ

जितनी चौकाने वाला ये रिवाज है, उतना ही हैरान करने वाला इसके पीछे का कारण भी है. वर्तमान पीढ़ी के पुजारी अपने पूर्वजों के हवाले से बताते हैं कि 10 पीढ़ी पहले के हमारे परिवार के मुखिया जब खेतो में किसानी का काम करने जाते थे, तो रोजाना उनके भोजन-विश्राम के समय में नारी के वेश में धूमादेवी अपने हाथों से भोजन करा देती थी. ऐसे में पुजारी की पत्नि का दिया भोजन जब रोजाना वापिस आने लगा तो एक दिन कारण पता करने पूजारिन भी खेत पहुंची और झाड़ियों में छुप गई. देवी के रहस्य से अनजान पूजारिन, पराई स्त्री के हाथों भोजन करते देख अपना आपा खो बैठी, झाड़ियों की डंगाली तोड़  पराई स्त्री की पिटाई कर दी. तभी आक्रोशित देवी ने परिवार के सुहागन स्त्रियों को पति के जीवित रहने के बावजूद विधवा की तरह रहने का अभिशाप दे दिया. तब से परिवार की बहुएं विधवा लिबाज में रह कर देवी के अभिशाप को न केवल शिरोधार्य की हुई हैं, बल्कि इस घटना के बाद से देवी धूमादेवी को बड़ी माई के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी पूजते आ रहे हैं.

इस परिवार की कहानी को जानने के बाद बेशक लोगों को यह रिवाज अंधविश्वास लगेगी, लकिन पुजारी परिवार के उन सदस्यों का दावा है, कि जब भी उन्होंने ने प्रथा को तोड़ने की कोशिश की उन्हे शारीरिक कष्ट सहना पड़ा है.

परिवार में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं हरी यादव जो सहकारी बैंक में मेनेजर के पोस्ट पर हैं. हरी राम बताते हैं कि 21वीं सदी में यह अटपटा जरूर लगता है, पर यह प्रथा अब अंधविश्वास नहीं आस्था का रूप ले लिया है. नई पीढ़ी बदलाव करना चाहती है, पर घर बड़ी माई के रूप में पूजे जाने वाले देवी के श्राप के काट का इनके पास कोई विकल्प नहीं है. पत्नी ललिता बताती है की गांव तक तो ठीक है पर गांव से बाहर रहने पर, पहनावा को लेकर सवाल करने वाले सभी की जिज्ञासा पुरी करनी पड़ती है. नए रिश्ते जोड़ने जाते हैं तो समंधियो को रिवाज की पूरी जानकारी देने के अलवा होने वाली बहुओं की रजामंदी भी लेते हैं. लिहाजा बहुओं को भी इस रिवाज से कोई गुरेज नहीं होता.