रायपुर. सरकार के मुखिया भूपेश बघेल ने एक बार फिर दोहराया है कि नक्सली समस्या का हल बंदूक से नहीं निकलेगा. उनकी सरकार इस समस्या का समाधान की दिशा में काम करने के लिए प्रभावितों और पीड़ितों से बात करेगी. नक्सली मामलों के जानकार इस पहल का स्वागत कर रहे हैं. लेकिन इसके साथ कई सवाल भी उठा रहे हैं.
सरकार को लेकर पहला सवाल है कि बातचीत की प्रक्रिया क्या होगी. प्रक्रिया कब से शुरु होगी. बातचीत करने की ज़िम्मेदारी किसे मिलेगी. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से जब ये सवाल पूछे गए तो उन्होंने कहा कि अभी सरकार ने इस रास्ते पर चलने का फैसला किया है. भूपेश बघेल का कहना है कि बातचीत के दायरे में सिर्फ पीड़ित नहीं होंगे बल्कि प्रभावित होंगे. चाहे वे वहां के किसान हों, आदिवासी हो या फिर दुकानदार. बातचीत सबसे की जाएगी. पत्रकार, समाजसेवी और वहां तैनात सुरक्षाकर्मी भी बातचीत की टेबल पर सरकार के साथ बैठेंगे. केवल नक्सलियों से बातचीत नहीं की जाएगी.
भूपेश बघेल बताते हैं कि अगर ज़रुरत पड़ी तो सबसे अलग-अलग बात करने के बाद दोबारा सबको साथ बैठाकर बात की जाएगी. उसके बाद ही कोई ठोस निर्णय लिया जाएगा. भूपेश बघेल पहले ये भी कह चुके हैं कि जब तक नई नीति बन नहीं जाती, पुरानी नीति चलती रहेगी.
सरकार के इस फैसले पर नक्सलियों के गढ़ में रहते हुए इसका दंश झेल रहे लोगों की ज़िंदगी को करीब से कवर करने वाले बीबीसी के पत्रकार आलोक पुतुल के मन में इसके आशय को लेकर कई सवाल हैं. वे पूछते हैं कि सरकार किसे पीडि़त और प्रभावित मानती हैं. ये बड़ा सवाल है. क्या सरकार की नज़र में जो आदिवासी हथियार उठाने के लिए बाध्य हुआ या किया गया, उसे सरकार पीड़ित मानती हैं कि नहीं.
अगर सरकार व्यापक रुप से चर्चा की बात करती है तो क्या बस्तर में रहने वाले या माओवाद इलाके सरकार में रहने वाले लोगों से वो जनमत संग्रह कराना चाहती है. वे बताते हैं कि नक्सल मामले में यूपीए सराकर ने पहले से ही कमेटी बनाकर लंबा चौड़ा अध्ययन पहले ही कराया था, जिसके निष्कर्ष भी सार्वजनिक हैं. तो कांग्रेस पार्टी क्यों कांग्रेस पार्टी को नए सिरे से अध्ययन की ज़रुरत पड़ रही है.
सवाल कई हैं. एक सवाल ये भी है कि कांग्रेस पार्टी इतने सालों से छत्तीसगढ़ में है. क्या पार्टी कांग्रेस के चुने हुए वो प्रतिनिधि जो सरकार में शामिल हैं -जो असल में जनता के प्रतिनिधि हैं-उनसे बात करना पर्याप्त नहीं लग रहा है. सरकार को बने हुए अभी एक पखवाड़ा नहीं है.सरकार जब इतनी उलझनों के साथ और सवालों के दायरे में होकर इस समस्या को सुलझाने का रास्ता ढूंढने की बात करती है तो लगता है कि सरकार इस मामले को जल्दी सुलझाने के पक्ष में नहीं है.
लेकिन बस्तर को लेकर काम करने वाले दूसरे पत्रकार और बुद्धिजीवियों सोच नई नवेली सरकार को लेकर बेदह उदार है. लेकिन कल्लूरी की नियुक्ति को लेकर सवाल खड़े कर रही हैं. बस्तर को लेकर ‘द बर्निंग फॉरेस्ट’ जैसी किताबों की लेखिका और सुप्रीम कोर्ट में सलवा जुडूम के खिलाफ को लेकर लड़ने वाली नंदिनी सुंदर का कहना है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की ये पहल अच्छी पहल है. जो पीड़ित लोग हैं उनसे बात की जाएगी. वे पिछले दस साल से कोर्ट में यही बात कर रही हैं कि जनता के हित की योजनाएं बनाई जाए. सलवा जुडूम के बाद पीडि़तों को न्याय मिलना चाहिए. हालांकि वे विवादित रहे आईपीएस एसआरपी कल्लूरी की नियुक्ति पर कड़े प्रश्न खड़े कर रही हैं. वे कहती हैं कि कल्लूरी को प्रमोट करना गलत स्टेप है. एक तरफ सरकार जनता के हित में बात करने की बात कह रही है. वो कह रही है कि जनता से बात करना चाहिए. दूसरी तरफ जिस व्यक्ति ने जनता को परेशान किया उसे प्रमोट करके क्या सिग्नल भेज रही है.
बस्तर में रहकर पुलिसिया जुल्म के खिलाफ लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली सोनी सोरी का कहना है कि सरकार ने कम से कम बात की पहल तो की. वे कहती हैं कि बात दोनों पीड़ित पक्षों से करनी चाहिए. उस पीड़ित पक्ष से भी जो नक्सलियों की ज़्यादतियों का शिकार हुआ, दूसरा पीड़ित पक्ष भी. जो पुलिस और सुरक्षाकर्मियों के अत्याचार से आजिज रहा. वे कहती हैं कि सलवा जुडूम से पीड़ितों से उनकी समस्याओं के बारे में बात करनी चाहिए.
वे कहती है कि बातचीत के रास्ते ही इसका समाधान निकलेगा. वे ज़ोर देकर कहती हैं कि जब बात होगी तब वे बताएंगे किससे परेशान हैं.क्यों परेशान हैं. उनका मानना है कि जल्द ही बातचीत की प्रक्रिया शुरु होगी तो विश्वास बढ़ेगा. हालांकि वे भी भूपेश बघेल के एक दूसरे फैसले एसआरपी कल्लूरी की तैनाती को लेकर चिंतित हैं. कल्लूरी को नई सरकार ने ईओडब्ल्यू और एंटी करप्शन ब्यूरो का जिम्मा सौंपा है. सोरी का कहना है कि समझ नहीं आ रहा है एक तरफ सरकार नक्सली समस्या का समाधान करने की बात करती है दूसरी तरफ उन अधिकारियों को महत्वपूर्ण पद में तैनात कर रही है जिनके खिलाफ मानवाधिकार आयोग में शिकायत है. जिनके खिलाफ मामला सुप्रीम कोर्ट में हैं. अगर ऐसे अधिकारियों को पद दे देंगे तो सरकार की बात पर यकीन कैसे होगा.
नक्सली मामलों के साथ कई खोजपरक रिपोर्टिंग कर चुके वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार सोनी भी सरकार के इस कदम का स्वागत कर रहे हैं. उनका कहना है कि ये सोच आगे बढ़ावा देना वाला है. उन्होंने कहा कि अब तक माओवादियों से बातचीत के आधार पर गुमराह किया गया है. ये जानने की कोशिश नहीं कि जो पीड़ित हैं वो किस दशा में है . बस्तर के ग्रामीण नहीं चाहते कि माओवादी उनके गांव में आएं. बकरी मुर्गे लूट के ल जाएं. बहू- बेटियों से गलत हो. स्थानीय आदिवासी जल जंगल जमीन में खुश है.
मांझी,मुखिया, पीड़िता, पक्ष और विपक्ष के लोग कांक्रीट दस्तावेज़ीकरण बहुत ज़रुर है. बस्तर में शांति न रैलियों से आएगी न बंदूक से. केवल पीड़ितों से बात करके ही आएगी. आदिवासियों से बात करना दूरगामी कदम है. वे कहते हैं कि सीधे नक्सलियों से बातचीत कैसे होगी. पहले पीड़ितों और प्रभावितों से बात करनी चाहिए. वे कहते हैं कि कई सालों से सरकारें बात करने की बात कर रही है. लेकिन ये कामयाब नहीं हो पा रहा है. वे कहते हैं कि बात और विकास से अगर नक्सल प्रभावित गांववाले खुशहाल होंगे तो माओवादी कैसे उन्हें भड़का पाएंगे.