शैलेन्द्र पाठक, बिलासपुर। अचानकमार के दस बैगा आदिवासी परिवारों ने नसबंदी के खिलाफ हाइकोर्ट में याचिका लगाई है। रानीचंद बैगा सहित 9 परिवार ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की है। याचिकर्ताओं ने गरीबी के कारण परिवार का लालन-पालन नहीं कर पाने के कारण नसबंदी की मांग की है।
बैगा जनजाति को संविधान में संरक्षित जाति का दर्जा प्राप्त है, लेकिन गरीबी और भुखमरी की बेबसी का आलम इतना है कि न्यायालय से फरियाद लगाई पड़ गई कि नसबंदी से रोक हटा दी जाए. दलील दी गई है कि ज्यादा बच्चे पैदा करने की वजह से परिवार के लालन-पालन में दिक्कत आ रही है. आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं की बच्चों को दो वक्त का पेट भरा जा सके.
हालांकि राज्य सरकार ने विशेष परिस्थिति में नसबंदी की छूट दे रखी है, लेकिन प्रावधान है कि इसके लिए एसडीएम की अनुमति ली जाएगी. बैगा आदिवासियों का कहना है कि अनुमति लेने की अड़चनें जटिल हैं, लिहाजा हाईकोर्ट में सरकार के फैसले के विरोध में याचिका लगाई गई, जिसे हाईकोर्ट ने स्वीकार कर लिया है.
जब खुद के खाने के लिए नहीं है तो बच्चो को कंहा से खिलाएंगे इसलिए ये केंद्र और राज्य सरकार के नसबन्दी पर रोक के खिलाफ हाइकोर्ट पहुंचे हैं। राज्य सरकार ने भी sdm के माध्यम से अनुमति लेकर नसबन्दी कराए जाने के नियम बनाए हैं। लेकिन वो भी एक तरह की रोक ही है जिसे इन बैगा आदिवासियों ने चुनौती दी है हाइकोर्ट ने इस मामले में लगी याचिका स्वीकार कर ली है।
सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय कार्यकर्ताओं का कहना है कि याचिका में सरकार के आदेश को संविधान के मौलिक अधिकारों का हनन बताया गया है, लेकिन इस याचिका ने केंद्र और राज्य के वो तमाम दावे की पोल खोल दी है, जिसमें इनके विकास के बड़े-बड़े दावे किये जाते रहे हैं. अगर सरकार इनके विकास के लिए कुछ करती तो आज ये बैगा जनजाति गरीबी और भुखमरी में जीवन नहीं बिता रहे होते.
बैगा आदिवासियों की ये याचिका झकझोर कर रख देने वाली है, जो आजादी के पचास साल बाद भी गरीबी और भूख से तड़प रहे है और अपने परिवार समाज का जीवन मजबूरी में समाप्त करने की अनुमति हाइकोर्ट के माध्यम से सरकार से मांग रहे है , ये याचिका नहीं एक ह्रदय विदारक घटना है जो समाज के सामने आई है।