मिर्जापुर. विंध्याचल में आद्या शक्ति मां विंध्यवासिनी का निवास है. यहां जगत जननी भगवती जगदम्बा जागृत रुप में विराजमान हैं. गंगा नदी के किनारे पर स्थित, 51 शक्तीपिठ में से एक देवी के इस मंदिर के प्रति असंख्य भक्तों की आपार आस्था है. नवरात्रि के अलावा भी बारों महीने यहां पर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है. मंदिर के बारे में कई ऐतिहासिक जानकारियां हैं. यहां स्थापित देवी की आराधना सृष्टि के आरंभ के पहले से ही मानी जाती है.

देवी का स्थान कैसे बना विंध्याचल?

मान्यातओं के अनुसार भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जब कंस के कारागृह में मां देवकी और वासुदेव के यहां जन्म लिया तब तब नंदबाबा और मां यशोदा के यहां भी एक कन्या का भी जन्म हुआ था. उनको वासुदेव ने आपस में बदल लिया. जब कंस ने कन्या को मारने की कोशिश की तो वह देवी योगमाया के रूप में बदल गईं. माता ने कंस से कहा कि जो तुझे मारेगा उसने तो जन्म ले लिया है और सुरक्षित है. इतना कहकर देवी विंध्याचल पर्वत पर निवास करने के लिए चली गईं.

श्रीमद् देवी भागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है कि सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को उत्पन्न किया तब विवाह करने के बाद स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया. उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि और परम पद पाने का आशीर्वाद दिया. वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गईं. इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही भगवती विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है. सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीष से हुआ है. ये ब्रह्मांड का प्रथम दिव्य स्वयंभू तीर्थ है.

नवरात्रि में पताका पर निवास करती हैं मां

ऐसा कहा जाता है कि नवरात्रि में मां विंध्यवासिनी मंदिर की पताका में निवास करती हैं. ताकि किसी वजह से मंदिर ना पहुंच पाने वाले श्रद्धालु भी सुक्ष्म रुप से दर्शन पा सकें. सोने के इस झंडे को सूर्य-चंद्र पताकिनी के नाम से जाना जाता है. जिसका निशान केवल देवी विंध्यवासिनी के मंदिर में ही मिलता है. पुराणों में विंध्याचल को तपोभूमि कहा गया है. मार्कण्डेय पुराण के अनुसार देवी मां यहां पर मधु-कैटभ नाम के राक्षसों का वध करने के लिए अवतरित हुई थीं. वहीं श्रीमद्भागवत पुराण में इन्हें नंदजा यानी नंद बाबा की पुत्री बताया गया है. अन्य शास्त्रों में मां का कृष्णानुजा और वनदुर्गा नाम भी मिलता है.

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भगवती के अन्य नाम भी हैं. इन्हें योगमाया, विंध्यवासिनी, महामाया और एकानंशा के नाम से भी जाना जाता है. वैष्णव परंपरा में इन्हें नारायणी की संज्ञा दी गई है और वह विष्णु की माया की शक्तियों के अवतार के रूप में कार्य करती हैं. तो वहीं शाक्त इन्हें आदि शक्ति का रूप मानते हैं.

यहीं हुई थी विंध्यवासिनी स्तोत्र की रचना

कहा जाता है कि महाभारत के पहले भगवान श्रीकृष्ण पांडवों को यहां युद्ध में विजय का आशीर्वाद मांगने के लिए लेकर आए थे. जहां युधिष्ठिर और अर्जुन ने स्व रचित स्तोत्र ‘निशुम्भ शुम्भ गर्जनी, प्रचण्ड मुण्ड खण्डिनी। वनेरणे प्रकाशिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी’ से उनकी स्तुति की थी जो अभी भी प्रचलित है. इस महाशक्तिपीठ में वैदिक और वाम मार्ग विधि से भगवती का पूजन होता है.

तीन प्रमुख देवियां

यहां तीन किलोमीटर के दायरे में तीन प्रमुख देवियां विराजमान हैं. इन तीनों के दर्शन के बिना विंध्याचल की यात्री अधूरी मानी जाती है. तीनों के केंद्र में मां विंध्यवासिनी विराजित हैं. यहीं पर कालीखोह नाम की पहाड़ी पर महाकाली और अष्टभुजा पहाड़ी पर देवी अष्टभुजी विराजती हैं. ऐसी मान्यता है कि सृष्टि के आरंभ होने के पहले और प्रलय के बाद भी इस धाम का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता है.

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यहीं से तय होता भारत का मानक समय

विंध्यवासिनी धाम और भारतीय मानक समय के महत्व की जानकारी भी इस मंदिर से मिलती है. जो न केवल धार्मिक बल्कि भौगोलिक दृष्टिकोण से भी खास है. इसी जगह से भारत का मानक समय IST (इंडियन स्टैंडर्ड टाइम) तय होता है. रावण द्वारा स्थापित शिवलिंग और मानक समय स्थल के रूप में विंध्य क्षेत्र का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है.

2007 में भूगोलविदों ने इस स्थान को मानक समय स्थल के रूप में चिह्नित करते हुए यहां पर एक बोर्ड लगाया था. लेकिन इसके बारे में आम जनता को जानकारी नहीं है. स्थानीय निवासी भी इस बोर्ड की उपयोगिता से अनजान हैं. यहां तक कि बोर्ड पर लोग पंपलेट चस्पा कर रहे हैं, जिससे इसकी ऐतिहासिकता और महत्व को नजरअंदाज किया जा रहा है. भूगोलविदों की राय है कि ऐसे महत्वपूर्ण स्थलों के बारे में जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है ताकि इन्हें संरक्षित किया जा सके और उनकी पहचान बनी रहे.