खरियार, ओडिशा से रुपेश गुप्ता की रिपोर्ट. अगर आप इंटरनेट पर कालाहांडी सर्च करें तो गूगल 2018 में रिलीज़ हुई हिंदी फिल्म कालाहांडी की खबरें सबसे पहले दिखाता है. न कि ओडिशा के उस कालाहांडी क्षेत्र की ख़बरें, जिसे 25 साल पहले तक पूरी दुनिया भूख और गरीबी की खबरों की वजह से जानती थी. कालाहांडी के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की ख़बरों से दिल्ली की सल्तनत हिल जाया करती थी. अगर ओडिशा के कालाहांडी भूख औऱ गरीबी की वो ख़बरें अब नहीं आ रही है तो इसे क्या माना जाए. क्या भूख और गरीबी के दुष्चक्र से कालाहांडी अब आज़ाद है. या फिर अब कालाहांडी की हकीकत की ख़बरें दुनिया तक पहुंच नहीं पा रही हैं.
ये जानने और समझने के लिए लल्लूराम डॉट कॉम की टीम कालाहांडी गई. टीम दो दिन तक कालाहांडी के शहरों और गांवों में गई . टीम ने जो कालाहांडी देखा. उसे लल्लूराम डॉट कॉम के माध्यम से हम सीरीज़ के रुप में दुनिया के सामने ला रहे हैं. सीरीज़ का पहला अंक उस गरीब के नाम है. जिसकी दो पीढ़ियां एक छोटे से घर की आस में इस दुनिया से रुखसत हो गईं. तीसरे पीढ़ी आज मौजूद है लेकिन इस पीढ़ी के घर की आस भी अब रुखसती की ओर है.
कालाहांडी क्षेत्र और 1993 में बने जिला नुआपाड़ा के एक बड़े शहर खरियार से 20 किलोमीटर दूर पेंडावन ग्राम पंचायक के एक गांव धरमसागर में सड़क किनारे घासीराम मांझी की झोपड़ी है. झोपड़ी की दीवारें तीन फीट ऊंची हैं. बीच का हिस्सा करीब पांच से छै फीट ऊंचा है. घासीराम बताते हैं कि मकान बनाते वक्त ज्यादा ईंटों की व्यवस्था नहीं हो पाई इसलिए दीवार की ऊंचाई उन्होंने केवल तीन फीट ही रखी है . मकान में रौशनी तीनफुट के दरवाजों से नहीं, केवल टूटे हुए खपरे से बने सुराखों से आती है. रात को जब चूल्हा जलता है तो उसकी रौशनी से स्कूल में उनके बच्चे थोड़ा-बहुत पढ़ लेते हैं. इस रौशनी के बदले लकड़ी के चूल्हे से निकलने वाले धुआं घर के हर किसी के हिस्से में आता है. मोदी सरकार की उज्जवला योजना घासीराम की पत्नि द्रुपदी के चूल्हे को न तो उन्नत बना पाई न ही उसकी जिंदगी को उजला कर पाई.
घासीदास की झोपड़ी सरकारी ज़मीन पर बनी है. कब ये टूट जाए. घासीराम को भी नहीं मालूम. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करीब चार साल पहले प्रधानमंत्री आवास योजना शुरु की थी. जिसमें गरीब लोगों को पक्के का मकान बनवाने की व्यवस्था थी. मोदी ने शायद घासीराम जैसे ही किसी गरीब को ध्यान में रखकर इंदिरा गांधी आवास योजना का नाम बदलकर कच्चे मकान की जगह पक्के मकान का प्रावधान किया होगा. योजना के बाद बीजेपी के तमाम नेता ये दावा करते हैं कि इसका लाभ देशभर में लाखों गरीबों को मिला है.
लेकिन इसका लाभ दो राज्यों को जोड़ने वाले हाईवे के ठीक किनारे रहने वाले घासीराम मांझी तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा है. ये बड़ा सवाल है. क्या सरकार मानती है कि घासीराम को इसकी ज़रुरत नहीं है या फिर सरकार उसे गरीब नहीं मानती. घासीराम के लिए भी ये ही यक्ष प्रश्न है. आखिर वो कौन सी वजह है. जिसके चलते उसे मकान नहीं मिला. क्या अनपढ़ और गरीब होने की वजह से घासीराम अगर कुछ कागजों की व्यवस्था नहीं कर पाया तो क्या ये इतना बड़ा गुनाह हो गया है कि इस बेहद जरुरतमंद को इस योजना से वंचित रखा जाए.
घासीराम को तो मकान तब भी नहीं मिला था जब गरीबों को कच्चे मकान इंदिरा गांधी के नाम पर मिलते थे. नई सरकार आई तो घासीराम को उम्मीद बंधी कि कच्चा नहीं मिला तो इसलिए कि शायद किस्मत में पक्का मकान लिखा रहा होगा. पर जब मोदी के शासन में भी मकान नहीं मिला तो घासीराम को लगने लगा है कि उसकी किस्मत में अपना मकान ही नहीं लिखा है. वरना क्या वजह थी कि एक अदद मकान उसके मां-बाप और दादाओं को भी नहीं मिला. मकान कि आस में वो तीनों दुनिया से रुखसत हो गए .
घासीराम ने मकान को लेकर पंचायत से लेकर हर उस जगह आवेदन लगाया, जहां वो जा सकते थे. कागज का बहाना बनाकर घासी राम को बहाना नहीं मिला .सालो चक्कर लगाने के बाद घासीराम कि उम्मीद रुखसत कर चुकी है. अब घासीराम मकान की बात करते ही खीज जाते हैं. वे झल्लाते हुए बताते हैं कि उन्हें मकान नहीं मिलेगा. जैसे उनके दादा और दादी को नहीं मिला. जैसे उनके पिता को नहीं मिला. जैसे वो बताना चाहते हैं कि दुनिया बनाने वाले ने उनके परिवार की नीयती में बगैर मकान के मर जाना लिखा है.
घासीराम के घर के पीछे एक पहाड़ है. उसके पास एक बड़ा डैम भी है. इस खूबसूरत जगह पर घासीराम की जिंदगी क्यों बदरंग है. तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद. ये कालाहांडी का बड़ा सवाल है. क्योंकि कालाहांडी में एक घासीराम नहीं है. कई घासीराम हैं.