रायपुर. बैकुंठपुर से सुकमा तक सरकार ने पिछले दो साल में पचास प्रतिशत सब्सिडी देकर सैकड़ों डायरियां खुलवाई. जिसमे से आधे से ज़्यादा डेयरियाँ बंद होने की कगार पर हैं. जिन किसानों ने सब्सिडी का लाभ ले लिया,  वे अपने मवेशी हटाना चाहते हैं. मवेशियों को खिलाना किसानों को भारी पड़ रहा है. सरकार द्वारा पचास फीसदी सब्सिडी देने के बाद भी डेयरी की ये स्कीम क्यों फ्लॉप हो गई। राज्य में डेयरी उद्योग की मदद करके दूध के उत्पादन को बढ़ावा देने की ये पहली कोशिश नहीं है. ऐसी कोशिशें न जाने कितनी बार हुई हैं- कभी पांच मवेशियों के साथ तो कभी 15 मवेशियों के साथ. कभी 25 प्रतिशत की सब्सिडी के साथ तो कभी 50 फीसद सब्सिडी के साथ. हर बार सरकार की कोशिशें धराशाई हो गईं. तो ये जानना ज़रुरी है कि आखिर वजह क्या है.
छत्तीसगढ़ में डेयरी के असफल होने की तीन बड़ी वजहें हैं.  दूध का उत्पादन लागत ज़्यादा होना. उन्नत नस्ल के पशु पालन प्रचलन में न होना और यहां के ग्रामीण परिवेश में दूध खान-पान की आदतों में शामिल न होने से दूध के बाजार का साइज़ यहां छोटा है. इसके अलावा पशुपालन विभाग के भ्रष्ट अधिकारी सरकार की डेयरी की योजना में पलीता लगाने में कोई परहेज नहीं करते. पशुपालन विभाग में कई दशकों से एक ही जिले में जमे अधिकारियों की संख्या दर्जनों में है. ये अधिकारी न काम करते हैं न ही सरकार का पूरा फायदा डेयरी उद्यमियों तक पहुंचने देते हैं.
छत्तीसगढ़ की डेयरी की सबसे बड़ी समस्या है -हरा चारा की अनुपलब्धता. पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार मैदानी ज़मीन पर बसे राज्य है. यहां सिंचाई की सुविधा अच्छी है. जबकि छत्तीसगढ़ में दो संभाग सरगुजा और बस्तर जंगल और पठारों वाले हैं जहां सिंचाई की सीमित व्यवस्था है. बाकी तीन संभागों में ज्यादातर हिस्सा मैदान का है. लेकिन यहां सिंचाई की व्यवस्था पंजाब और यूपी जैसी नहीं है. जिसके चलते प्रदेश में ज़्यादातर मवेशियों को हरा चारा नहीं मिलता. जहां मिलता भी है वहां साल भर नहीं मिलता. आमतौर पर मवेशियों का खुराक ड्राई फोडर जैसे भूसा या कुट्टी और कांसंट्रेट पर ही निर्भर रहता है. बाजार में मिलने वाले अच्छे पशुआहार की कीमत 20 से 26 रुपये होती है जबकि देवभोग जैसी सहकारी संस्थाएं सरकार द्वारा प्रदत बोनस देकर भी किसानों को प्रति लीटर 25 से 27 रुपये में खरीदती हैं. ज्यादार डेयरियों में जो गाय रखी गई हैं उनकी नस्ल उन्नत न होने से वो साल में 6 महीने ही दूध देती हैं.
छत्तीसगढ़ सरकार ने जब राज्य द्वारा डेयरी उद्यमिता योजना बनाई गई थी तो योजनाकारों के ज़हन में हरे चारे की उपलब्धता की समस्या थी. लिहाज़ा योजना के शुरुआत में इसमें हीड्रोपोनिक्स तकनीक से हरा चारा लगाने का प्रावधान था. लेकिन जब योजना धरातल पर आई तो चारा की जगह वर्मी पिट का प्रावधान कर दिया गया. चूंकि, वर्मी कंपोस्ट के लिए नाबार्ड में 25% सब्सिडी थी. इसलिए राज्य सरकार पर आर्थिक भार कम करने के लिए योजना शुरु करने से ऐन वक्त पहले हरे चारे की जगह वर्मी कंपोस्ट का कपोनेंट डाला गया.
हरे चारे का एक विकल्प साइलेज है. लेकिन दुर्भाग्य से राज्य सरकार ने इस ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया. न इसके उत्पादन को बढ़ावा दिया न ही इसे लेकर कोई जागरुकता का कार्यक्रम चलाया. राज्य में साइलेज बनाने की एक या दो यूनिट प्रायोगिक दौर में हैं. लेकिन इससे उत्पादन होने वाले साइलेज की कीमत डेयरी संचालकों को 6 से 8 रुपये पड़ती है. पंजाब, आंध्रप्रदेश और दूसरे राज्य साल भर हरे चारे की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए बड़ी मात्रा में साइलेज का निर्माण कर रहे हैं. आंध्रा और तेलंगाना की सरकारें साइलेज को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी देती हैं. साइलेज पूरी दुनिया में डेयरी उद्योग के विकास की सबसे बड़ी ज़रुरत बन चुकी है.
दूसरी दिक्कत है कि छत्तीसगढ़ में दूध की कीमत ज़्यादा नहीं है. गाम्रीण इलाकों में दूध की खपत भी नहीं है. जबकि पंजाब, हरियाणा, गुजरात और राजस्थान में फूड हैबिट यानि खानपान की आदतों में दूध काफी हद तक शुमार है. हालांकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अपनी ज़रुरत के मुताबिक छत्तीसगढ़ राज्य में दूध का पूरा उत्पादन नहीं कर पा रहा है. लेकिन इसके दूसरा पहलू भी है कि राज्य में डेयरी उत्पादक खपत की समस्या से जूझ रहे हैं. सरकार मानती है कि राज्य में गायों के दूध से ज़्यादा भैंस के दूध की डिमांड है. भैंस के दूध में फैट ज्यादा होने से उसके उपभोक्ता ज़्यादा होती हैं. जबकि यहां पशुपालकों की दिलचस्पी गाय में है क्योंकि गाय की कीमत कम होती है और उत्पादन ज़्यादा होता है. गाय का दूध खपाने में उत्पादकों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. ये दिक्कत वहां ज्यादा है, जो शहरों से दूर हैं. देवभोग सहकारी संस्थान का नेटवर्क तीन मैदानी संभागों में बेहतर है लेकिन सरगुजा और बस्तर में किसानों की ये शिकायत रहती है कि उनका पेमेंट समय से नहीं होता. ऐसी स्थिति में सबसे ज़्यादा परेशानी गरीब किसानों को होती है. वो समय से बाज़ार से मवेशी के लिए चारा और दाना नहीं खरीद पाता. दो प्राइवेट पार्टनर वचन और एविस का जोर भी मैदानी इलाकों पर है.
सहकारी संस्था न तो किसानों को दूध का सही मूल्य दे रही हैं न ही समय से भुगतान कर पा रही हैं. दरअसल, भुगतान बेहतर करने के लिए ज़रुरी है कि दूध का इस्तेमाल ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़े. सरकार ने आंगनबाड़ी केंद्रों में दूध बांटने की शुरुआत की थी लेकिन कुछ हादसों के बाद पैर पीछे खींच लिए. अगर स्थानीय स्तर पर डेयरियों को सीधे आंगनबाड़ी से जोड़ा जाए और ग्रामीणों की फूड हैबिट में दूध और उससे बने उत्पाद शामिल हों तो ये बेहतर शुरुआत हो सकती है. पंजाब के सबसे बड़े डेयरी फार्मर समय-समय पर स्कूलों में बच्चों को अपनी गायों और भैंसों का दूध फ्री में बांटते हैं.
छत्तीसगढ़ को पंजाब हरियाणा और कर्नाटक जैसे राज्यों से डेयरी को लेकर सीख लेने की ज़रुरत है. पिछली बार के सरकार के मंत्री बृजमोहन अग्रवाल इजराइल में डेयरी देखकर आए थे. वहां उन्होंने 40 लीटर वाली गायें देखीं लेकिन पंजाब में कई जगहों पर 60 लीटर से ज़्यादा दूध देने वाली गायें उपलब्ध हैं. पंजाब का मौसम इजराइल की तुलना में छत्तीसगढ़ के ज़्यादा करीब है.
पंजाब के प्रगतिशील पशुपालक संघ ने ब्रीड सुधार का कार्यक्रम इम्पोर्टेड सीमेन के ज़रिये करीब 15 साल पहले शुरु किया. जिसके बाद  20 से 25 लीटर दूध देने वाली गायों की बच्चियां 40-45 लीटर दूध देती हैं. खाने पर खर्चा कम करने के लिए वहां हर ़डेयरी फार्मर मक्के का साइलेज बनाकर रखता है ताकि साल भर उसकी हरे चारे की ज़रुरत पूरी हो सके. वहां प्रति गाय उत्पादन बढ़ने और साइलेज और हरे चारे की वजह से प्रति लीटर लागत काफी कम होती है. जिसका लाभ डेयरी किसान और उद्योग को होता है.