दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी भी अपराधी को उसके किए अपराध के लिए कानून में निर्धारित न्यूनतम सजा से कम की सजा नहीं दी जा सकती। यहां तक पूर्ण न्याय के नाम पर सुप्रीम कोर्ट भी अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर न्यूनतम सजा से कम की सजा नहीं दे सकता।
न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने अपने फैसले में कहा है जिस अपराध के कानून की किताब में न्यूनतम सजा उल्लेखित है, अदालत उससे कम की सजा नहीं दे सकती। यहां तक कि संविधान के अनुच्छेद-142(सुप्रीम कोर्ट को मिले विशेषाधिकार) का इस्तेमाल कर शीर्ष अदालत ने दोषी को तय न्यूनतम सजा से कम की सजा नहीं दे सकती।’
शीर्ष अदालत ने यह कहते हुए मध्य प्रदेश सरकार की उस अपील को स्वीकार कर लिया जिसमें हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी। हाईकोर्ट ने विक्रम दास नामक एक व्यक्ति को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति(उत्पीडन) कानून के तहत किए गए अपराध में महज 11 दिनों की न्यायिक हिरासत में बाद छोडने का आदेश दिया था। हालांकि उसकी जुर्माने की राशि बढ़ाकर तीन हजार रुपये कर दी गई थी।
विक्रम पर अनुसूचित जाति की एक महिला के साथ बल प्रयोग करने का आरोप था। निचली अदालत ने विक्रम को एससी-एसटी अधिनियम की धारा-3(1)(11) केतहत दोषी ठहराते हुए छह महीने की कैद और 500 रुपये का जुर्मान किया था। इस प्रावधान के तहत न्यूनतम सजा छह महीने की कैद और जुर्माने का प्रावधान है। जबकि अधिकतम सजा पांच वर्ष कैद की भी हो सकती है।
लेकिन हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले में बदलाव करते हुए जुर्माने की राशि 500 रुपये से बढ़ाकर तीन हजार रुपये कर दी और विक्रम द्वारा जेल में बिताए 11 दिनों को सजा मानते हुए बरी करने का आदेश दे दिया।
हाईकोर्ट केइस फैसले को राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट फैसले को दरकिनार करते हुए विक्रम को समर्पण करने का आदेश देते हुए करीब साढ़े पांच महीने की सजा भुगतने के लिए कहा है।