कोरबा– छत्तीसगढ़ किसान सभा ने भू-विस्थापितों के लिए कोरबा में महासम्मेलन का आयोजन किया. इसमें पीड़ितों ने कहा कि हम याचना नहीं संघर्ष करेंगे. हम अपना हक लेकर रहेंगे. इसके लिए चाहे जितनी लड़ाई लड़नी पड़े.
कोरबा जिले में एसईसीएल गेवरा प्रोजेक्ट के अंतर्गत बसाया गया पुनर्वास ग्राम गंगानगर था, जहां आसपास के कई गांवों के भू-विस्थापित किसान एकत्रित हुए थे. 400 से अधिक की संख्या में और महिलाओं की भारी तादाद के साथ. ये सभी किसान सार्वजनिक और निजी संस्थाओं के लिए किए गए भूमि-अधिग्रहण से प्रभावित किसान थे, अधिकांश दलित और आदिवासी अपने जीवन-अस्तित्व की रक्षा के लिए वर्षों से पुनर्वास, मुआवजा, नौकरी की लड़ाई लड़ते रहे. वे छत्तीसगढ़ किसान सभा द्वारा आयोजित पीड़ित-विस्थापित किसान महासम्मेलन में हिस्सा ले रहे थे. इस सम्मेलन के आयोजन में जनवादी नौजवान सभा व जनवादी महिला समिति ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. किसान सभा की छत्तीसगढ़ राज्य समिति ने भू-अधिग्रहण से जुड़े मुद्दों पर अभियान-आंदोलन संगठित करने का फैसला किया है. यह महासम्मेलन इसी की एक कड़ी थी. सम्मेलन में जुटे लोग अपने दुःख-दर्दों को बयान कर रहे थे.
गंगानगर की सुकवारा बाई बता रही थी कि 1965 से अब तक दो-तीन बार उनकी जमीन ‘विकास’ के लिए अधिग्रहित की जा चुकी है. लेकिन तब वे खुश थीं कि इस ‘विकास’ का फल उन्हें मिलेगा. निश्चित आमदनी वाली नौकरी का भरोसा तो था ही. लेकिन अब वह निराश है. उनकी पूरी संपत्ति छीनी जा चुकी है, मिला कुछ नहीं और अब फिर से सब कुछ छीन जाने का खतरा मंडरा रहा है. स्थानीय भाषा में गुस्से से वह बोली कि अधिकारी हमारे गांव में आयेंगे, तो उन्हें थूक चाटने को मजबूर कर देंगे. बहुत हुआ विस्थापन, अब बेदखल करके दिखाए.
यही गुस्सा मड़वाढोढा के सुराजसिंह उगलते हैं. वे बताते हैं कि विस्थापित 124 लोगों को अमगांव स्थित जोराडबरी व उसके आसपास के 25 एकड़ क्षेत्र में बसा दिया गया था. परिवार बड़े हो गए, तो आसपास की खाली जमीन पर भी उन लोगों ने कब्ज़ा कर लिया और अपने मकान-बाड़ी फैला लिए. कुछ जमीन आपसी सहमती से बिक भी गई. अब कहा जा रहा है कि यह सब अवैध कब्ज़ा है, इसे छोड़ो, नहीं तो बेदखल कर देंगे. प्रशासन दूसरी जगहों के विस्थापितों को भी यहीं बसाने की कोशिश कर रहा हैं. कुछ घरों में उन्होंने बुलडोजर भी चला दिया है.
पुनर्वास ग्राम विजयनगर की लता कंवर ने भी अपना दुःख बयान किया. वे बताती हैं कि हमारे संघर्षों के बाद वर्ष 2014-15 में हमारी जमीनों को नापा गया, मुआवजा के प्रकरण तैयार किए गए. 122 विस्थापित परिवारों के लिए लगभग 10 करोड़ रुपयों के मुआवजे स्वीकृत हुए. लेकिन तहसीलदार की सीमांकन कार्यवाही में 117 परिवार ‘अपात्र’ घोषित हो गए!! इनमे से अब वे लोग ‘पात्र’ होते जा रहे हैं, जो इस तहसीलदार को ‘चढ़ावा’ चढ़ा रहे हैं.
सम्मेलन में सावित्री चौहान भी बोली. वे सुराकछार से आई थी, जहां कोयले का भूमिगत खनन हो रहा है. जमीन खोखली होने से खेत धंस रहे हैं और खेती करना नामुमकिन हो गया है. घरों की दीवारें ऐसे तड़क गई हैं कि घर कभी भी ढह सकते हैं. इस खतरे के बावजूद वे इन्हीं घरों में रहने को मजबूर हैं. किसान सभा के नेतृत्व में खेती-किसानी की बर्बादी के खिलाफ हर साल मुआवजा की मांग के लिए आंदोलन होता है और एसईसीएल प्रबंधन से कुछ राहत वे पा ही लेते हैं.
जनवादी नौजवान सभा के राज्य संयोजक प्रशांत झा की इस सम्मेलन के आयोजन में महती भूमिका रही है. इस आयोजन के लिए उन्होंने घूम-घूमकर 40 गांवों में बैठकें की थीं. वे बताते हैं, एसईसीएल ने पुनर्वास और मुआवजे के लिए अपने नियम बनाकर रखे हैं. वे न राज्य सरकार के कायदे-कानूनों को मानते हैं, न केंद्र के. उसके नियम पूरी तरह से भूमि-अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के खिलाफ हैं. जब एसईसीएल ने जमीन ली थी, तो हर परिवार को नौकरी देने का वादा था. अब कह रहे हैं कि 2 एकड़ से कम जमीन के अधिग्रहण पर नौकरी नहीं मिलेगी. इसमें भी वे केवल पुरूषों को ही नौकरी देते हैं, महिलाओं को नहीं.
माकपा के जिला सचिव सपूरन कुलदीप भी सम्मेलन के मुख्य संगठनकर्ताओं में से एक हैं. उन्होंने विस्तार से बताया कि किस तरह 1962-64 में एसईसीएल प्रबंधन ने किसानों से कौड़ियों के मोल जमीन ले ली. जितनी जरूरत थी, उससे ज्यादा ले ली. जिस जमीन का मुआवजा कुछ सौ या हजार मिला, आज उसकी कीमत लाखों में है. कुछ को मुआवजा मिला, बहुतों को आज तक नहीं मिला. कुछ को नौकरी मिली, बाक़ी आज भी लड़ रहे हैं. पुनर्वास के नाम पर जमीन का एक छोटा-सा टुकड़ा मिला रहने के लिए – लेकिन सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, स्वास्थ्य सुविधाओं से आज भी वंचित हैं. बहुत-सी जमीनों का कागजों में अधिग्रहण हो गया, लेकिन भौतिक कब्ज़ा मूल भूस्वामियों का ही बना रहा. आज इस जमीन को एसईसीएल दूसरे विभागों को दे रहा है और हमारी बेदखली पुराने मुआवजे के आधार पर करना चाहता है. जिला खनिज निधि के लाभों से विस्थापितों को वंचित किया गया है और अधिकारी-ठेकेदार-नेता मालामाल हुए हैं. इस लूट और विनाश के कारण जल, जंगल और जमीन के मालिक आज भिखारी बन गए हैं. इसीलिए हमारी मांग है, अधिग्रहण की शर्तें तुमने पूरी नहीं की हैं, इसलिए हमारी जमीन वापस दो.
सम्मलेन में शिरकत के लिए अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव और छत्तीसगढ़ प्रभारी बादल सरोज विशेष रूप से पहुंचे थे. पूरे देश और विशेषकर मध्यप्रदेश के नर्मदा बचाओ और चंबल घाटी में विस्थापन के खिलाफ हो रहे संघर्षों के अनुभवों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आज सरकारें जंगल, नदी, पहाड़, खनिज, हवा – सबको बेचने पर तुली हुई है. यह ऐसा हमला है, जिसके खिलाफ यदि हम सब एकजुट नहीं हुए, तो कोई नहीं बचेगा. मानव सभ्यता ही जब दांव पर लगी हो, तो सांसद, विधायक या सरकार बदलने से काम नहीं चलेगा. वैकल्पिक नीतियों के आधार पर संघर्ष संगठित करने होंगे. इन जनपक्षधर वैकल्पिक नीतियों पर सरकारों को चलने के लिए बाध्य करना होगा.
उन्होंने विस्तार से बताया कि प्राकृतिक संसाधनों को लूट-लूटकर किस तरह कॉर्पोरेट अपनी तिजोरियां भर रहे हैं. इस लूट में अभी हाल तक कायम रमनसिंह की सरकार साथ थी, तो केंद्र में काबिज मोदी सरकार भी उन्हीं के साथ हैं. जिस तरह रमन-राज को उखाड़कर फेंका गया, उसी तरह मोदी-राज को उखाड़ कर फेंकना जरूरी है. उन्होंने बताया कि इस लूट के कारण चंद हाथों में इतनी संपत्ति इकट्ठी हो गई है कि उसे गिनने के लिए उन्हें 10 बार जन्म लेना पड़ेगा. इसलिए विस्थापन के खिलाफ और पुनर्वास के मुद्दों की लड़ाई को इस आदमखोर लूट के खिलाफ जारी संघर्ष से भी जोड़ना होगा. बादल ने पूरे देश में विकसित हो रहे संयुक्त किसान आंदोलन के महत्त्व पर भी प्रकाश डाला.
छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष संजय पराते ने सम्मेलन में लग रहे ‘भारतमाता की जय’ से अपनी बात शुरू की. उन्होंने कहा कि लूटेरों की भारतमाता और कमरों की भारतमाता अलग-अलग है. हमारी भारतमाता हम सभी मेहनतकशों को एकजुट करती हैं, जीने का अधिकार देती है. लूटेरों की भारतमाता जनता में फूट डालकर मुनाफे को उनकी तिजोरियों में भरने का काम करती है. उन्होंने रेखांकित किया कि पहले बांध बनते थे खेतों को सींचने के लिए, सड़कें बनती थी लोगों के चलने के लिए, उद्योग लगते थे रोजगार देने के लिए. लेकिन अब बांध बनते हैं उद्योगों को पानी देने के लिए, सड़कें बनती हैं उनके माल को ढोने के लिए और उद्योग लगते हैं आधुनिक मशीन लगाकर ज्यादा, और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए. विकास का अर्थ अब आम जनता की भलाई नहीं, मुनाफे में वृद्धि हो गया है. यह विकास आम जनता की संपत्ति और उनके संसाधनों पर कब्ज़ा करके उन्हें बर्बाद कर रहा है. इसी जनविरोधी विकास के खिलाफ हमारी पूरी लड़ाई है. उन्होंने कहा कि बस्तर में आदिवासियों और किसानों की लंबी लड़ाई से टाटा के लिए छीनी गई जमीन को जिस प्रकार सरकार को वापस करना पड़ा है, उसी तरह दूसरी जगहों पर भी अधिग्रहित, लेकिन अनुपयोगी पड़ी जमीन की वापसी के लिए संघर्ष को मजबूत करना होगा.
विस्थापितों के इस सम्मेलन को छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला, सीटू नेता एस एन बेनर्जी, जनकदास कुलदीप और जनवादी महिला समिति की राज्य महासचिव धनबाई कुलदीप ने भी संबोधित किया और उनके संघर्षों के प्रति अपनी एकजुटता व्यक्त की. उन्होंने कहा कि सब संघर्षशील संगठनों को एक-दूसरे के साथ सहयोग कर समस्याओं से मुक्ति के लिए लड़ने की जरूरत है.
सम्मेलन ने सर्वसम्मति से एक 12 सूत्रीय मांगपत्र स्वीकार किया, जिसमें अनुपयोगी पड़ी अधिग्रहित जमीन की वापसी, पुनर्वास ग्रामों के समुचित विकास के लिए काबिज जमीन का मालिकाना हक़ देने और तोड़-फोड़ की कार्यवाही बंद करने, नए व पुराने सभी लंबित मामलों में रोजगार, मुआवजा और पुनर्वास देने, स्थानीय बेरोजगारों को रोजगार देने, भू-विस्थापितों को प्रमाण-पत्र देने तथा उन्हें निःशुल्क शिक्षा और चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध कराने, शिक्षा और नौकरियों में उन्हें प्राथमिकता देने और शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में वनभूमि पर काबिज आदिवासियों को वनाधिकार देने जैसी मांगें शामिल हैं.
सम्मेलन ने निर्णय लिया है कि फरवरी अंत में गंगानगर से लेकर कोरबा जिला मुख्यालय तक 30 किमी. की पदयात्रा की जायेगी तथा प्रशासन द्वारा सकारात्मक प्रत्युत्तर न मिलने पर आंदोलन के अगले चरण की घोषणा की जायेगी. भानुप्रताप सिंह कंवर द्वारा आभार व्यक्त करने के साथ ही सम्मेलन का समापन हुआ.