हाजिरी
परिणाम जो भी हो पर प्रयास लाजवाब होना चाहिए. सीएम सचिवालय की कप्तानी मिलने के बाद से सुबोध कुमार सिंह ने मंत्रालय की बेपटरी व्यवस्था को पटरी पर लाने पूरा जोर लगा रखा है. अफसरों की हाजिरी लगाई जा रही है. कौन कब मंत्रालय पहुंचा, उसका पूरा रिकॉर्ड दर्ज हो रहा है. नई व्यवस्था के पहले दिन जब कई अफसरों ने देरी से आमद दी, तब सचिवों के व्हाट्स एप ग्रुप में सुबोध कुमार सिंह ने देरी से आने वाले अफसरों का नाम सार्वजनिक किए बगैर एक छोटा सा मैसेज भेज दिया. इसके अगले दिन ही अफसर अपने आप दुरुस्त हो गए. इस मैसेज ने यह बता दिया कि अगर बेपटरी हुई व्यवस्था की बहाली करनी है, तब सिर्फ सख्ती ही एक मात्र जरिया नहीं है. दूसरे और भी रास्ते हैं. खैर, अफसर अब दौड़ते-भागते,ऊंघते, गिरते-हपटते वक्त पर मंत्रालय पहुंच रहे हैं. अफसर आ रहे हैं, तब उनके मातहत कर्मचारियों की मजबूरी है कि उनसे पहले दफ्तर पहुंच जाए. मंत्रालय के एक अफसर ने कहा कि सुनील कुमार जब मुख्य सचिव थे, तब अफसरों में वक्त पर मंत्रालय पहुंचने का डर दिखता था, पर तब भी हालात दो-चार दिनों बाद सामान्य हो गए थे. मगर इस दफे बनी व्यवस्था लोगों को टिकाऊ दिख रही है. दरअसल, शांत बहती हुई नदी में उतरने पर ही मालूम पड़ता है कि उसकी गहराई कितनी है. सुबोध कुमार सिंह कुछ ऐसी ही शख्सियत वाले अफसर मालूम पड़ते हैं. ऊपर से बेहद शांत और भीतर से बहुत गहरे…
नेटफ्लिक्स
पूर्ववर्ती सरकार में मंत्रालय के गलियारे अपने सूने पन की दुहाई देते नहीं थकते थे. गलियारे गमगीन थे. आवाजाही कम थी. तब जैसी व्यवस्था बनाई गई. अफसर उस व्यवस्था पर ढल गए. कोई रोक-टोक नहीं थी. वक्त पर दफ्तर आने की कोई जवाबदेही नहीं. कुछ ही थे, जो सरपट आते. काम खत्म करते और लौट जाते. मगर ज्यादातर अफसर दोपहर बाद आते. दो-चार फाइल निपटाते और चंद घंटों में वापस लौट जाते. एक दफे एक सीनियर ब्यूरोक्रेट मंत्रालय के दफ्तर में बैठे अपने टैब पर कुछ कर रहे थे. इस स्तंभकार ने पूछा, कुछ जरूरी काम तो नहीं कर रहे. उन्होंने तपाक से कहा नहीं. बस नेटफ्लिक्स देख रहा हूं. दो-चार फाइल खत्म कर सोचा कि इस वेब सीरिज को आज खत्म कर लूं. सरकार ज्यादा काम नहीं दे रही है. किताब कितना ही पढ़ लूंगा. एक सीनियर ब्यूरोक्रेट का यह हाल था, तब इससे आगे का सोचा जा सकता है. मंत्रालय से सरकार चलती है. मंत्रालय में हलचल दिखती रहनी चाहिए.
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ताला
मंत्रालय की सख्ती का असर कुछ जिलों में भी दिख रहा है. कुछ जिलों के कलेक्टरों ने कर्मचारियों के वक्त पर दफ्तर पहुंचने पर सख्ती बरती है. एक जिले के कलेक्टर एक दिन सुबह-सुबह कलेक्ट्रेट पहुंच गए. कर्मचारियों को लगा था इतनी सुबह कलेक्टर कहां दफ्तर पहुंचेगे, सो अपनी ढली हुई आदत के मुताबिक कोई कर्मचारी दिन के 11 बजे दफ्तर पहुंचा, तो कोई 12 बजे. कलेक्टर साहब ने दरवाजे पर ताला जड़वा रखा था. कर्मचारी सकते में आ गए. समझते देर न लगी कि आदत बदलनी होगी. अगले दिन वक्त पर दफ्तर पहुंचने का सिलसिला शुरू हो गया. अफसरों को यह समझना होगा कि अपने मातहत कर्मियों को अनुशासन में ढालना है, तब उस अनुशासन के दायरे में खुद को भी बांधना होगा. सरकारी दफ्तर का हाल लोग जानते ही है. एक छोटे से काम के लिए लोगों को चप्पले घिसनी पड़ जाती है. कम से कम सरकारी कामकाज की वजह से गरीब-मध्यमवर्गीय लोगों की चप्पल कम से कम घिसे, यह सरकार को देखना ही चाहिए.
एक्सीडेंट
मुख्य सचिव ने पिछले दिनों शासकीय कर्मियों के लिए हेलमेट और सीट बेल्ट लगाने की अनिवार्यता संबंधी एक चिट्ठी लिखी. यह जरूरी चिट्ठी थी. अमल हुआ तो अच्छा संदेश जाएगा. खैर, इधर जब मुख्य सचिव इस तरह की चिट्ठी विशेष उद्देश्य से लिख रहे थे, ठीक उस वक्त एक पूर्व मुख्य सचिव का गौरव पथ पर एक्सीडेंट हो गया. पूर्व मुख्य सचिव अपनी कार में थे. सेल्फ ड्राइव कर रहे थे. अचानक अपनी गाड़ी डिवाइडर पर चढ़ा बैठे. उन्हें अस्पताल में दाखिल होना पड़ा. कुछ हड्डियां टूट गई हैं. सुना है छोटा आपरेशन भी हुआ है. मालूम नहीं कि उन्होंने सीट बेल्ट लगा रखा था या नहीं. मगर डाक्टर कह रहे हैं कि सीट बेल्ट लगा होता तो शायद चोट कम लगती. जिस तरह से चोट आई है, उससे अनुमान लगाया जा रहा है कि गाड़ी की स्पीड ठीक ठाक रही होगी. या यह भी हो सकता है कि ढलती उम्र का असर हुआ हो, तेज झटके की वजह से हड्डी टूट गई हो. जो भी हुआ हो मुख्य सचिव को चाहिए कि अपनी चिट्ठी के साथ पूर्व मुख्य सचिव के साथ हुए हादसे का एक वीडियो जारी कर दें, जिसमें वह लोगों से अपील करते दिख सके कि हेलमेट और सीट बेल्ट लगाना क्यों जरूरी है. पुराने जमाने में दूरदर्शन पर इस तरह के विज्ञापन देखे जाते थे, जिसमें ट्रैफिक नियमों को अनदेखा करते हुए गाड़ी चलाने वालों के साथ हादसा होता था और हादसे का शिकार हुआ व्यक्ति दूसरों को सचेत करता था. खैर, इन सबके बीच पूर्व मुख्य सचिव जल्द स्वस्थ हो जाए. कसरत-व्यायाम करते रहें. यही कामना है.
लिटमस टेस्ट
मुख्य सचिव अमिताभ जैन के छुट्टी पर जाने की वजह से वरिष्ठ आईएएस रेणु पिल्ले को प्रभारी मुख्य सचिव बनाया गया. इस फैसले से ब्यूरोक्रेसी भी चौंकती दिखी. सूबे की ब्यूरोक्रेसी का सबसे ईमानदार और बेदाग चेहरा माने जाने वाली रेणु पिल्ले अपने कामकाज में ना खुद ढिलाई बरतती है ना किसी और को बरतने का मौका देती हैं. आमतौर पर सरकारों की पसंद लचीले अफसर होते हैं.व्यावहारिक ईमानदार अफसरों को सरकार एडजस्ट कर लेती है, लेकिन अव्यावहारिक ईमानदारी पर सरकार की नजरें थोड़ी टेढ़ी होती है. इस परंपरा के विपरीत जाकर साय सरकार ने रेणु पिल्ले को अगर प्रभारी मुख्य सचिव बनाया है, तो इसके अपने गहरे मायने हैं. अमिताभ जैन ने मुख्य सूचना आयुक्त के पद के लिए अप्लाई किया हुआ है. जाहिर है सरकार नए मुख्य सचिव की तलाश कर रही है. एक ब्यूरोक्रेट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि यह लिटमस टेस्ट जैसा है. अब इसके नतीजे अम्लीय निकलते हैं, क्षारीय होते हैं या फिर तटस्थ यह बाद में मालूम चलेगा. लिटमस टेस्ट के दौरान लिटमस पेपर का रंग गहरा लाल हुआ तो यह अम्लीय कहलाता है. नीला हुआ तो क्षारीय और बैंगनी हुआ तो तटस्थ…सरकार को तटस्थ मुख्य सचिव चाहिए. टेस्ट के नतीजे से तस्वीर साफ हो जाएगी…
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लगे रहो मुन्नाभाई…
एक अफसर अपने करीबी मित्र से कहते हुए. ” जब मुझे इस विभाग में पोस्टिंग मिली थी, तब सुना था कि यहां की पोस्टिंग दो जिलों का कलेक्टर बनने जैसा है, मगर जो सुना था, वह सच नहीं निकला. अच्छा हो जाए अगर किसी जिले की कलेक्टरी फिर से मिल जाए”. अपनी इस भावना को जाहिर करते हुए अफसर के चेहरे पर मायूसी थी. होनी भी चाहिए कहां एक जिले की बादशाहत और कहां एक विभाग की बाबूगिरी. बाबूगिरी में मन कहां लगेगा ! अफसर का दिल और दिमाग इस गुणाभाग में जुटा है कि किसी जिले की कलेक्टरी कैसे मिले? जाहिर है इस गुणाभाग का असर मौजूदा कामकाज पर पड़ेगा ही. आला अफसर परेशान होंगे ही. परेशानी में नाराजगी जताई जाएगी ही. सिर फुटौव्वल के हालात बनेंगे ही. क्या ही किया जा सकता है. दरअसल दिक्कत सरकार में है. सरकार अफसरों को ताश के पत्तों की तरह फेट नहीं रही है. ताश के दांव में बोली नहीं लग रही. कलेक्टरी मिलेगी भी तो कैसे? वैसे बीच-बीच में इस अफसर की जुबानी मातहत यह सुन लेते हैं कि जल्द ही वह किसी जिले के कलेक्टर बन जाएंगे. शायद यह एक तरह का मैनिफेस्टेशन होगा. देखते हैं, लगे रहो मुन्नाभाई…