छत्तीसगढ़ में जनता के पैसे को सिर्फ कागजी मसौदा तैयार करने में क्या बर्बाद किया जा रहा है ? ये सवाल समझौते के उस कॉपी ने उठा दिया है जो 5 साल पहले राज्य सरकार और टाटा इंस्टीट्यूट के बीच हुआ था। मामला राष्ट्रीय ग्रामीण अजाविका मिशन का है। जहां 5 साल की कार्ययोजना बनाने के लिए ही 31 लाख 82 हजार 8 सौ रुपये खर्च कर दिए गए। ये सिर्फ कागज तैयार करने के खर्च है। इसमें करीब लाखों रुपये जिस कंपनी को ठेका दिया उसके यात्रा व्यय भी शामिल है।
2012-13 में छत्तीसगढ़ राष्ट्रीय ग्रामीण अजाविका मिशन और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के बीच हुए समझौते की कॉपी में सारा विवरण दर्ज है कि किस तरह से सिर्फ कार्ययोजना तैयार करने ही लाखों रुपये खर्च किए गए। दरअसल 2012 में एक मसौदा तैयार हुआ कि प्रदेश के भीतर अगले 5 साल के लिए लाइवलीहुड मिशन की कार्ययोजना किस तरह से हो, कैसे कार्यक्रम तैयार किए जाए, मिशन का संचालन किस तरह से करना है. इसे लेकर एक विस्तृत रुपरेखा तैयार करनी है।
इसके लिए टाटा इंस्टीट्यूट वालों के साथ राज्य सरकार के छत्तीसगढ़ अजाविका मिशन विभाग ने करार किया। करार के तहत कागज पर ही पूरी कार्ययोजना तैयार करने के लिए करीब 32 लाख रुपये दे दिए गए। अब इससे समझा जा सकता है कि एक तरफ प्रदेश के मुखिया भरी गर्मी और कड़ी धूप में गाँव-गाँव घुम-घुमकर कार्ययोजना तैयार कर रहे हैं, योजनाओं की पड़ताल कर रहे हैं।
तो दूसरी ओर ये दस्तावेज भी यह बता रहे हैं कि कैसे कागज पर ही योजना बनाकर लाखों रुपये जनता के फूंक दिए जाते हैं। जिस समय यह करार किया गया था तब छत्तीसगढ़ शासन के सचिव देबाशीष दास लाइवलीहुड मिशन के प्रभारी एमडी थे। वर्तमान में अजाविका मिशन की एमडी ऋतु सेन से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने पूर्ण जवाब दिए बगैर कह दिया मामला मेरे समय का नहीं है देखती हूूँ।
सवाल ये है –
- क्या इसी तरह से कार्ययोजना बनाने में ही 30 से 40 लाख तक खर्च कर दिए जाते हैं ?
- टाटा इंस्टीट्यूट ने किस तरह की कार्ययोजना बनाई, बनाई भी की नहीं ?
- क्या बनाई गई कार्ययोजना पर मिशन ने किस तरह का कोई क्रियान्वनय किया ?
- जब राज्य योजना आयोग, केन्द्रीय नीति आयोग फिर भी ठेका देकर कार्ययोजना क्यों बनान ?
- क्या सरकारी अफसर विभागीय योजना तैयार कर पाने में अक्षम है ?