Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

दूर की कौड़ी

भाजपा को लेकर कहा जाता रहा है कि यह बनिया मारवाड़ियों की पार्टी है. बनिया मारवाड़ियों ने इस पार्टी को अपने धन से सींचा है. एक हद तक सच भी है. पार्टी चलाने के लिए धन चाहिए होता है और धन केवल बनिया मारवाड़ियों के हिस्से ही रहा, तो खूब सींचते रहे. संसाधन इस तबके के पास ही था. जैसा चाहा, वैसा किया. मगर बदलते सियासी समीकरण ने अब सब कुछ बदल दिया है. सूबे की सियासत जातिगत समीकरणों में जा उलझी है. अब सियासत के समंदर में नई लहरें उफान पर हैं. सियासी नांव को बचाने के लिए जातिगत समीकरणों की पतवार उठाना राजनीतिक दलों के लिए जरूरी भी है और मजबूरी भी. छत्तीसगढ़ में पहली बार एक भी जिले में संगठन की कमान बनिया-मारवाड़ियों के हाथों नहीं है. आमतौर पर ऐसा होता रहा है कि किसी न किसी जिले में किसी न किसी भूमिका में बनिया-मारवाड़ी संगठन के तारणहार बनते रहे हैं. यह बदली हुई भाजपा है, जो जानती है कि मौजूदा वक्त की जरूरत क्या है. भाजपा सबसे धनी पार्टी है. पार्टी को अब धन की नहीं, बल्कि जातीय संतुलन की जरूरत है. अब भी एक बड़ा वोट बैंक भाजपा के हिस्से नहीं है. जाहिर है भाजपा ने इस फैसले से दूर की कौड़ी चली है. 

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अनुष्ठान

खाई में गिरने के बाद भी यदि कोई पहाड़ चढ़ ले तो ये उसकी काबिलियत ही है. एक अफ़सर की स्थिति कुछ ऐसी ही रही. लोगों ने सोच लिया था इतनी ऊँचाई से गिरने पर भला कोई कैसे बच सकता है. ज्यादातर ने कहा ‘साहब अब उठेंगे नहीं’. मगर जीवटता नाम की भी कोई चीज है. सब कुछ खोकर कुछ पा लेने की खुशी इस साहब की सबसे बड़ी खुशी बन गई. साहब जब दमख़म के साथ दोबारा लौटे तो मन में एक कसक थी कि कहीं दोबारा कुछ गलत ना हो जाए सो दफ़्तर में बैठने से पहले उन्होंने अनुष्ठान करवाया. यज्ञ-हवन हुआ. सर्व शत्रु संहारणाय के बीज मंत्र से यज्ञ में आहुति डाली गई, जिससे उनके शत्रुओं का नाश हो जाए और उन पर थोपे गए पुराने पापों का बहीखाता हवन कुंड की अग्नि में जलकर भस्म हो जाए. साहब नागा साधु होते, तब हवन कुंड की राख को अपने पूरे शरीर पर मल लेते, लेकिन वह नागा साधु नहीं थे, जो मोह माया के इस बंधन से निकल पाते. वह थे एक बड़े साहब. यकीनन उन्होंने हवन कुंड की राख को नदी में विसर्जित कर दिया होगा. दिल दिमाग को कुरेदने वाली पुरानी यादों को बहा ही दिया जाना चाहिए. खैर, उन्होंने हवन कुंड में डाली गई आहुति और उससे उठते धुएं से अपने चारों ओर की आबोहवा सुगंधित करने के खूब जतन किए. इन सबके बाद जब साहब अपने नए ‘पवित्र’ दफ्तर में विराजमान हुए, तब उनकी कुर्सी थोड़ी हिल गई. शायद पिछली घटनाओं की याद में यह हिल गई होगी. फिर साहब मुस्कुराए क्योंकि उन्हें मालूम था कि कुर्सी ने भी अब तक बहुत कुछ सहा है. सहकर्मी भी समझदार थे, फौरन शुभकामनाओं के साथ नई पारी का जश्न मनाने लगे. ऊंचाई से गिरकर उठे थे, तब एक शेर कहना लाजमी था. उन्होंने शेर पढ़ा, ‘गिरते हैं शहसवार मैदान-ए-जंग में…..अब सब कुछ सामान्य दिख रहा है, लेकिन यही सामान्य असामान्य है. कुर्सी बहुत कुछ रचती है. अबकी बार यह कुर्सी क्या-क्या रचेगी यह फिलहाल कोई नहीं जानता?

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डीजीपी 

एक बार फिर डीजीपी को एक्सटेंशन देने की चर्चा तेज हो गई है. एक्सटेंशन की चर्चा के बीच डीजीपी बनने की कतार में शामिल अफसर शायद मन की मन यह सवाल करते होंगे कि ‘डीजीपी तुम कब जाओगे’? कोई अवतार पुरुष हो, जो अंगद की तरह जम गए हो. सरकार के भीतर भी एक्सटेंशन को लेकर दो तरह के विचार सुने जाते हैं. सरकार का एक धड़ा चाहता है कि नए को मौका मिले तो वहीं दूसरा धड़ा चाहता है कि ऐन केन प्रकारेण कुर्सी बची रह जाए. कुछ यह भी कहते हैं कि कुर्सी का बचा रह जाना कई अफसरों को बचाकर रखे हुए हैं. नक्सलवाद के खात्मे के अभियान की आड़ में एक्सटेंशन पर एक्सटेंशन चल रहा है. ‘नक्सलवाद’ एक्सटेंशन के लिए ताकतवर समीकरण बना रहा है. शायद इसलिए ही कुछ अफसरों को लग रहा है कि डीजीपी पद पर बने रहने के लिए नक्सलवाद ‘कुर्सी का रक्षात्मक विस्तार’ है. डीजीपी की कुर्सी की कहानी बड़ी दिलचस्प मोड़ पर आ गई है. यह कुर्सी अब किसी कार्यालय का एक बेजान असबाब नहीं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा की हैसियत रख रही है. ‘कुर्सी’ पद है, प्रतिष्ठा है, पावर है. जिस पर कतार में शामिल हर अफसर की नजर है और हर अफसर की यही इस वक्त की सबसे बड़ी ख्वाहिश है. मगर लाख टके का एक सवाल है. इस ख्वाहिश को पूरी करने ”डीजीपी जैसी किस्मत कहां से लाओगे”?…

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बुलेट स्पीड

सीएम सचिवालय में सुबोध कुमार सिंह और मुकेश बंसल के आने के बाद से सूबे की ब्यूरोक्रेसी 360 डिग्री बदल गई है. अनुशासन सब पर हावी है. ढिलाई पर सख्ती है और मनमानी पर रोक है. लोग इसे अपनी परिभाषा में कह रहे हैं कि यह बेपटरी व्यवस्था की पटरी पर बहाली है. बहरहाल सरकार फाइलों पर चलती है या यूं कहें कि फाइल ही सही मायने में सरकार है. फाइलें कभी नहीं मरती. कभी थकी मांदी और धूल धुसरित यह फाइलें इन दिनों बुलेट स्पीड से भाग रही हैं. इसकी एक वजह फाइलों की नई पहचान का हो जाना है. सूबे के ज्यादातर विभाग अब ई-फाइल पर आ गए हैं. कौन सी फाइल किस अफसर के पास रोकी गई है, यह हर किसी की जानकारी में है. सरकार में सबसे बड़ा बोझ सरकारी फाइलों का होता है. जाहिर है, इस नई व्यवस्था में कोई भी अफसर इस बोझ को उठाने की जहमत नहीं उठाएगा, सो फाइलों को निपटाना पहली प्राथमिकता बन गई है. जिस अफसर के पास फाइल रुकी समझो उसका सीआर खराब. अब भला कौन अपना सीआर खराब करना चाहेगा. 

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मंत्रिमंडल 

भाजपा की नई बाॅडी जिस तरह से बन रही है, उससे समझा जा सकता है कि मंत्रिमंडल विस्तार में जिन चेहरों को लेकर अटकलें लगाई जा रही थी उनमें से कई नाम महज अटकलों पर जाकर ही खत्म हो जाएंगे. मंत्रिमंडल विस्तार का सिर्फ एक ही फार्मूला तय है, जो जातिगत समीकरण के रास्ते से गुजरता दिखता है. भाजपा की सरकारों में मान्यता रही है कि सरकार ‘अफसर’ चला ले जाएंगे. बने रहना है तो समीकरणों को साधना जरूरी है. नए समीकरण में जातिगत व्यवस्था सबसे जरूरी है. मंत्रिमंडल विस्तार में नाम तय होने की हलचल कई बार उठी. जिस तेजी से हलचल हुई, उसी तेजी से बैठती रही. विस्तार हो जाता, तो यह माना जा सकता था कि जिन नामों पर चर्चा होती रही, उन नामों पर ही मुहर लगा दी गई, मगर इस विस्तार का हर बार टलना उन चेहरों की मंत्री बनने की संभावनाओं को टालने जैसा है. सूबे की साय सरकार में मंत्रिमंडल विस्तार एक रुके हुए फैसले की तरह है. वक्त बितने के साथ एक रुके हुए फैसले में बदलाव आना लाजमी है. निकाय और पंचायत चुनाव के बाद हालात संभलेंगे. चेहरे चुने जाएंगे. ताजपोशी होगी, मगर इन सबके साथ इस बात पर शायद तब आश्चर्य नहीं होगा कि जो चेहरे सर्वाधिक चर्चा में रहे, आने वाले दिनों में वह चेहरे चर्चा से ही खदेड़ दिए जाएंगे. राजनीति में कुछ भी हो सकता है. यहां ठहराव की कोई जगह नहीं.