Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

मोक्ष

गरीब परिवार के हर मर्ज का इलाज सरकारी अस्पताल है. जब कोई गरीब बीमार हो, तब सरकारी अस्पताल ही उसकी आखिरी उम्मीद है. सीजीएमएससी के घोटालेबाजों को एक मर्तबा सरकारी अस्पताल झांक आना चाहिए, दिल पत्थर का न हो, तो गरीबों के नाम पर की गई सौदेबाजी का मर्म शायद उनका दिल पिघला दे. मगर क्या करें? रुपयों का लालच है ही ऐसा. दिल, दिल नहीं रह जाता. पत्थर हो जाता है. पत्थर दिल गरीबों की बेबसी और उनका हक भी बेच देता है. शायद नेताओं को लगता होगा नोट देकर वोट हासिल किया है. इसलिए सरकारी योजना गरीब की, योजना का पैसा उनका. नए दौर के ज्यादातर अफसर तो सुशासन की पाठशाला की बजाए बेईमानी की तालीम लेकर आए हैं और वो कारोबारी ही क्या जो बेईमान न हो. कारोबार की पहली शर्त ही लाभ का सौदा है. बढ़िया गठजोड़ है भाई. तत्कालीन भाजपा सरकार में एक नेताजी ने वन महकमे में लकड़ी ढुलाई करने वाले को सीजीएमएससी का सप्लायर बना दिया था. पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार में नेताओं और अफसरों ने उसे फर्श से अर्श पर बिठा दिया. सूबे में फिर से भाजपा की सरकार बनी है, तो पुरानी गलतियां अब धोई जा रही है. कथित तौर पर एक ब्लैकमेलिंग की घटना ने मोक्षित कारपोरेशन के ताबूत में आखिरी कील ठोकने का काम किया है. खैर, उधर प्रयागराज में कुंभ चल रहा है. संगम में डुबकी लगाकर लोग अपने पापों का पुराना अकाउंट क्लोज कर नया अकाउंट खोल रहे हैं. इधर सरकार ने तेजतर्रार आईपीएस अमरेश मिश्रा की अगुवाई वाली ईओडब्ल्यू-एसीबी को सीजीएमएससी के घोटालेबाजों को ‘मोक्ष’ देने की जिम्मेदारी सौंपी है. ईओडब्ल्यू-एसीबी ने कारोबारी को रिमांड पर लिया है. पूछताछ चल रही है. कारोबारी हर डोज के बाद घोटाले में लिप्त लोगों के नाम की उल्टियां कर रहा है. ‘मोक्ष’ पाने की यही पहली प्रक्रिया है. अब जो नाम बाहर आ रहे हैं, उन नामों को ‘मोक्ष’ मिलेगा या नहीं. यह बड़ा सवाल है.

राज काज

पिछले दिनों ‘राज काज’ में लगे एक अफसर अचानक हटा दिए गए. जाहिर है यूं ही नहीं हटाए गए होंगे. हटाने की कोई तो वजह रही होगी. अफसर के हटते ही किस्म-किस्म की चर्चा छिड़ गई. फलाने-ढेकाने लोगों ने तरह-तरह की कहानियां बुनी, फिर बुनी गई कहानियों को खूब बुदबुदाया. मंत्रालय के एक कमरे की चर्चा गलियारों तक फैल गई. कानाफूसी हुई. ठहर-ठहर कर कुछ नए-कुछ पुराने किस्से याद किए जाते रहे. वहां जुटे लोग किस्सों को पिरो कर माला गूंथने लगे. एक ने कहा, पुराने किस्सों की माला टूट चुकी है. नई किस्सों की माला गूंथों. दूसरे ने दिमाग पर जोर देते हुए पूछा, आखिर महामहिम से यह गुस्ताखी कैसे हो गई? जो मासूम अफसर को मोहरा बना दिया. वहां मौजूद तीसरे सज्जन महामहिम की वकालत करते हुए बोले, उन्होंने एक से बढ़कर एक धुरंधरों को देखा है. उनकी आंखें अनुभव की गहरी खाई है. अनुभव से भरी आंखों में चढ़ना मुश्किल है. चढ़ने के अपने जोखिम हैं. चढ़ते-चढ़ते गिरने का खतरा होता है. एक चूक का मतलब है सीधे नीचे गिर जाना. अफसर ने शायद कोई चूक कर दी हो. जिस महामहिम की आंखों में चढ़कर वह चमकना चाहते थे, उनकी एक चूक ने उन्हें गिरने पर मजबूर कर दिया. इस विमर्श के बीच एक जानकार सामने आए. उन्होंने बताया कि महामहिम को लगा कि उनके दरबार में कोई ‘हरिराम नाई’ है, जो भेदी बन बैठा है. दरबार की गोपनीय बातचीत बाहर जा रही है. चूंकि भेद खुल चुका था, सो उनका गुस्सा परवान पर था, जो सामने आता, गुस्से की आग उसके हिस्से आती. इत्तेफाक ही था कि अफसर उस वक्त सामने आ गए. जाने अनजाने में वह बहुत गहरे उतर गए.

शराब वैध है !

सरकार के आबकारी विभाग ने रेस्टोरेंट्स को भी अब शराब परोसने का लाइसेंस देना शुरू कर दिया है. इसकी शुरुआत राजधानी के तीन रेस्टोरेंट्स से की गई है. कई रेस्टोंरेट हैं, जो पहले अवैध ढंग से शराब पिलाते थे. आबकारी विभाग यदा-कदा छापा मारता था. कई बार छापा पड़ता, मगर मौके पर ही मामला सुलट जाता. छापे का कोई सबूत नहीं होता. छापा मारने वाले अफसर जाते और लौट आते. यह कहते हुए कि- जो चलता है, उसे चलने दो ! तेज दिमाग अफसरों ने सोचा जब ये धंधा बंद होने से रहा, तो क्यों न इसे वैध कर दिया जाए? आखिरकार, अवैध चीजों को वैध करने में ही लोकतंत्र की असली शक्ति है! सरकार को भी पता है कि शराब की लत अगर शराबियों की कमज़ोरी है, तो यह सरकारी खजाने की ताकत भी है. आर्थिक संकट से जूझती सरकार ने अपना ‘राजस्व मॉडल’ चुन लिया. अब समाजशास्त्री यह सोचकर इस पर माथा पच्ची कर सकते हैं कि यह कदम युवा पीढ़ी को कहां ले जाएगा? संस्कारवादी माथा पीटेंगे कि भैय्या ये कौन से छत्तीसगढ़ का निर्माण हो रहा है? लेकिन अर्थशास्त्री कहेंगे कि अवैध को वैध करने का यह फार्मूला जायज है. जो भी हो, सरकार की दूरदर्शिता लाजवाब है. उसने शराब को लेकर समाज में जितनी भ्रांतियां थीं, उन्हें धीरे-धीरे विकास की बोतल में बंद कर दिया है. अब जो लोग इसे संस्कृति के खिलाफ मानते थे, वे भी यह कहेंगे कि- जब सब कुछ ‘सिस्टमेटिक’ हो जाए, तो वह गलत नहीं रह जाता. पूर्ववर्ती सरकार में शराब का सिस्टम अलग किस्म का था, जो लोग इसकी जद में आए नशे की खुमारी में सवार हो गए. जब खुमारी उतरी, तो समझ आया कि वह सलाखों के पीछे हैं. तब सब कुछ था, मगर आबकारी विभाग का वर्क कल्चर ‘सिस्टमेटिक’ नहीं था.

एक्सटेंशन नहीं!

90 फीसदी संभावना है कि मौजूदा डीजीपी को अब एक्सटेंशन नहीं मिलेगा. एक्सटेंशन मिलने की संभावना होती तो सिस्टम हरकत में आ जाता. आज 2 तारीख है. डीजीपी का कार्यकाल 4 तारीख को खत्म हो रहा है. पिछली मर्तबा जब एक्सटेंशन दिया गया था, तब दिल्ली से लेकर रायपुर तक खबर फैल गई थी. वैसे 10 फीसदी का मार्जिन रख लेना चाहिए. क्या मालूम ऐन वक्त पर फरमान आ जाए और एक्सटेंशन को हरी झंडी दे दी जाए (हालांकि संभावना कम ही है). खैर, एक्सटेंशन नहीं मिलने की स्थिति में सरकार फिलहाल प्रभारी डीजीपी की तैनाती करेगी. यूपीएससी से मंजूरी के बाद डीजीपी के नाम पर मुहर लगेगी. सीनियरिटी क्रम में पवन देव, अरुण देव गौतम, हिमांशु गुप्ता के नाम शामिल थे, मगर इन नामों के बीच जी पी सिंह ने वाइल्ड कार्ड एंट्री ले ली है.

झुंड

कुछ लोग विभाग में लंबे समय तक जमते हैं और जमकर जिमते हैं. एक विभाग है, जहां चार अफसरों के गुट ने हड़कंप मचा रखा है. मूलतः इनका काम पढ़ाना लिखाना है, मगर प्रशासन का खून लगने के बाद अब इनकी रुचि पढ़ाने-लिखाने में नहीं रह गई है. पूरा महकमा इनके कारनामों से वाकिफ है. विभाग में किसी नए सचिव के आते ही यह झुंड एक साथ आक्रमण करता है. सबसे पहले सचिव की आंखों में पट्टी बांधी जाती है और फिर उंगली पकड़कर उसे मनमाफिक चलाया जाता है. विभाग में कौन क्या देखेगा. इस झुंड के लोगों ने आपस में तय कर रखा है. कोई ट्रांसफर उद्योग का प्रभारी है, कोई प्रशासन अपनी जेब में रख कालर ऊंची करने से खुश है. कांग्रेस की सरकार में ये झुंड कांग्रेसी हो गया था. सत्ता में भाजपा के आते ही भाजपाई. मानो गिरगिट की प्रकृति अपने में समा रखी हो. पिछले दिनों विभाग में नियम विरुद्ध पदोन्नति की खबर उठी. मालूम चला कि पदोन्नति के पीछे भी यही झुंड मुंड तलाश रहा था. अपने-अपने मुंडों को पदोन्नति दिलवाई और पदोन्नति के बाद पोस्टिंग. सरकार को चाहिए कि विभाग का बंटाधार करने वाले इस झुंड को झंडू बाम बना दे.