
नया ‘कोण’

‘गणित’ के अच्छे जानकार रहे एक पूर्व मुख्य सचिव अपनी संपत्तियां बेच रहे हैं. ब्यूरोक्रेसी में उन्हें लेकर यह सुना जाता है कि वह केवल ‘गणित’ की समझ ही नहीं रखते थे. समय-समय पर इसका इस्तेमाल भी कर लेते थे. ब्यूरोक्रेसी में इतने साल रहे मगर मजाल है कि वह उस कुर्सी तक न पहुंचे हो, जहां वह पहुंचना चाहते थे. सरकार के साथ उनकी रेखा हमेशा समानांतर रही. समानांतर रेखा यानी Parallel Line. समानांतर रेखा एक समान चलती हैं, मगर कहीं भी मिल नहीं पाती. रमन सरकार के दिनों में समानांतर रेखा पर चलने वाले पूर्व मुख्य सचिव भूपेश सरकार में लंबवत रेखा (Perpendicular Line) पर आ गए. लंबवत रेखा दो समांतर रेखा को एक-दूसरे से काटती हैं और 90 डिग्री का कोण बनाती हैं. कुछ लोग तो यह तक कहते हैं कि पिछली सरकार कठपुतली थी. सरकार की हाथों और भुजाओं की डोरी पूर्व मुख्य सचिव के हाथ थी. कुछ-कुछ मामलों में वह सरकार के मुंह और आंखों को हिलाने के लिए भी अपने हाथ की डोरी का इस्तेमाल कर लिया करते थे. कई-कई बार तो वह राजनीति के जटिल समीकरणों को हल करने की चेष्टा कर जाते थे. जांच एजेंसियों को सब मालूम था. जांच एजेंसियों ने एक-दो बार उनके ठिकानों पर दबिश भी दी थी. मगर क्या करते पूर्व मुख्य सचिव ‘गणित’ के अच्छे जानकार थे. सारे फार्मूले बिठा रखे थे. एजेंसियों को कभी कुछ खास नहीं मिल सका. शराब घोटाला मामले में एक दफे जरूर ईडी ने उन्हें मास्टरमाइंड का तमगा दिया था. खैर, मुद्दे की बात पर लौटते हैं. पूर्व मुख्य सचिव महोदय को लेकर बाजार में यह चर्चा बिकी है कि उन्होंने अपनी संपत्तियां बेचनी शुरू कर दी है. 33-33 हजार स्क्वेयर फीट की उनकी दो बड़ी जमीनों का सौदा हो गया है. 13 हजार रुपए स्क्वेयर फीट की दर पर जमीन बेची गई है. जमीन का यह सौदा पक्के में हुआ है. कच्चे से अब उन्होंने तौबा कर ली है. सुना है कि जमीन की बिकवाली से जुटाई गई रकम वह अपनी बेटियों में बांट देंगे और डोनाल्ड ट्रंप के देश में जिंदगी के बचे हुए दिन बिताएंगे. अधेड़ उम्र के बावजूद न तो उनके मिजाज में बुजुर्गियत झलकती है और न ही अंदाज में ! बहरहाल पूर्व मुख्य सचिव की जीवन की बची हुई रेखाओं में अब एक नया ‘कोण’ बन रहा है.
खेलो छत्तीसगढ़
सरकार में तरह-तरह के ‘खेल’ हो जाते हैं. सरकार को कानों कान खबर नहीं होती. खिलाड़ी इतनी बारीकी से गोल पोस्ट पर गोल मार जाते हैं कि रेफरी समझ भी नहीं पाते कि यह कैसे हो गया? एक विभाग में डायरेक्टर और एक सप्लायर ने मिलकर पूरे विभाग को ही खेल का मैदान बना दिया है, जहां ‘खेलो छत्तीसगढ़’ का मैच चल रहा है. विभाग के चपरासी से लेकर उच्च पदस्थ अफसरों के बीच चर्चा होने लगी है कि ‘खेलो छत्तीसगढ़’ के खेल का असली खिलाड़ी बार-बार मैदान में फाउल कर रहा है, बावजूद इसके रेफरी पैनेल्टी किक क्यों नहीं दे रहा? लोग कहने लगे हैं कि इस तरह से रेफरी के लगातार नजरअंदाज करने से विभाग में कहीं करप्शन का ओलंपिक न हो जाए. खैर, मुद्दे की बात यह है कि विभाग के भीतर की चर्चा बाहर अब रिले रेस की तरह दौड़ पड़ी है. विभाग का हर भेदिया इस दौड़ में शामिल है. बैटन पास करते हुए भेदिया बना एक धावक दूसरे को बताता है कि फलाने टेंडर में सप्लायर ने यह खेल, खेल दिया, तो ढेकाने में उसकी ऐसी भूमिका रही. किस्सागोई में यह तक सुना गया है कि डायरेक्टर और सप्लायर की इन दिनों इतनी छन रही है कि अब सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी दोनों एक साथ देखे जाते हैं. कम से कम इतनी राहत तो है कि सरकारी टेंडर की बैठकों में सप्लायर नहीं बैठ रहा. पूर्ववर्ती सरकार में शिक्षा व्यवस्था सरकारी बैठकों की टेबल में बेची जा रही थी. मंत्री के ठीक बाजू की चेयर एक कारोबारी की थी. वह कारोबारी तय करता था कि टेंडर किसे देना है और किसे नहीं. यह सब देखकर अफसर दांतों तले उंगलियां चबा लेते थे. यह बात और है कि मंत्री की कारगुजारियों को देखते हुए तब सरकार से उनकी विदाई भी कर दी गई थी. बहरहाल, मौजूदा व्यवस्था में अगर साख पर बट्टा नहीं लगाना है, तो ‘खेलो छत्तीसगढ़’ के चल रहे खेल पर रेफरी के हस्तक्षेप की जरूरत है.
विकल्प
गलती नीम की नहीं है कि वह कड़वा है. खुदगर्जी जीभ की है कि उसे मीठा ही पसंद है. दवा और मेडिकल उपकरण की सप्लाई में हुई बेहिसाब गड़बड़ी के मामले में सरकार ने मोक्षित को ‘मोक्ष’ दे दिया. कंपनी ब्लैक लिस्टेड हो गई. डायरेक्टर जेल की सलाखों में डाल दिया गया. लगने लगा था कि सीजीएमएससी के पुराने पाप धुल रहे हैं. मगर कौन जानता था कि सरकारी व्यवस्था में एक ‘विकल्प’ हमेशा तैयार रखा जाता है. उच्च पदस्थ सूत्र कहते हैं कि मोक्षित का ‘विकल्प’ मध्यप्रदेश के रास्ते ढूंढ लिया गया है. मोक्षित जब लड़खड़ा रहा था, तब से ही मेडिकल ‘साइंस’ का ‘हाउस’ बनी इस कंपनी की नजर छत्तीसगढ़ में थी. अब रेड कार्पेट बिछाकर स्वागत करने की तैयारी है. जो कारस्तानियां छत्तीसगढ़ में मोक्षित की थी, वही कारस्तानी मेडिकल साइंस का हाउस बनी मध्यप्रदेश की इस कंपनी की रही है. मध्य प्रदेश सरकार ने कंपनी के खिलाफ एफआईआर कराई थी. मालिकों को जेल डाल दिया था, लेकिन तब क्या ही किया जाए, जब लपलपाती जीभ को मीठे का स्वाद लग गया हो. नीम कड़वा जरुर है, मगर सेहत को दुरुस्त करता है. अच्छा होगा समय रहते महकमा अतीत से सबक ले ले.
स्वाद अनुसार
मुमकिन है कि कभी भविष्य में शराब घोटाले पर कोई रिसर्च स्काॅलर अपनी थिसिस लिखे. यकीनन एक दिलचस्प दस्तावेज तैयार होगा. कैसे घोटाले की पूरी स्क्रिप्ट तैयार की गई? किरदार गढ़े गए? चेन डेवलप किया गया? जांच में कौन रडार में आया और कौन छोड़ दिया गया? बहरहाल, शराब घोटाले के एक अभियुक्त अनवर ढेबर की याचिका पर पिछले दिनों कोर्ट ने डिस्टलर्स समेत आठ कंपनियों को आरोपी बनाने का आदेश दिया है. इस फैसले से जांच में कई नए तथ्य सामने आ सकते हैं. कोर्ट के आदेश में एक दिलचस्प टिप्पणी भी की गई है. यह टिप्पणी जिला आबकारी अधिकारियों को लेकर हैंं, जिनके विरुद्ध पूर्व में प्रकरण दर्ज है, लेकिन फिलहाल ये जांच के दायरे से बाहर हैं. कोर्ट ने कहा है कि सरकार से अभियोजन चलाने की स्वीकृति नहीं मिली है. जिला आबकारी अधिकारी भी घोटाले के अहम किरदारों में शामिल हैं, फिर अभियोजन की अनुमति नहीं देना समझ के परे हैं. जिला आबकारी अधिकारियों का किरदार नमक की तरह होता तो कोई बात न थी. मगर ज्यादा नमक भी खाने को बेस्वाद कर देता है. अब नमक ज्यादा हो गया हो और उसमें पानी मिलाकर उसे स्वाद अनुसार बनाने का उपक्रम चल रहा हो तो कोई बात नहीं !
आपका स्कोर शून्य रहा
राज्यपाल के कृतज्ञता ज्ञापन प्रस्ताव पर सदन में हुई चर्चा के जवाब में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय चौतरफा चौका-छक्का लगाते रहे. करीब घंटे भर का उनका भाषण पूरी तरह से राजनीतिक रहा. वह पिछली सरकार पर हमला बोलते रहे. मुख्यमंत्री के भाषण पर टीका टिप्पणी के लिए विपक्ष सदन में मौजूद नहीं था. सो मुख्यमंत्री का बल्ला खूब चला. मुख्यमंत्री बोले, विधानसभा, लोकसभा के बाद निकाय चुनावों में भी कांग्रेस का स्कोर शून्य रहा.उन्होंने विपक्ष पर तंज कसते हुए सवाल किया कि पांच सालों में इतनी बुरी स्थिति कैसे बन गई? फिर कहा, दरअसल यह कुशासन और अराजकता पर जनता का जवाब था. मुख्यमंत्री पूरे फ्लो में थे. महाभारत की कहानी सुना बैठे. कहा, दुशासन, दुर्योधन और शकुनी के बल पर खूब जुआं खेला गया. सर्वाधिक पीड़ा धृतराष्ट्र की चुप्पी थी. वे राजा थे, उनकी जिम्मेदारी थी कि उनके दरबार में हो रही अंधेरगर्दी रुके. मगर नहीं रुकी. मतलब घृतराष्ट्र की सहमति से सब कुछ हुआ. मुख्यमंत्री ने महाकुंभ के पवेलियन पर भी यह कहते हुए हिट शाट लगाया कि जो लोग पैसों-कौड़ी की भाषा समझते हैं, वह कभी आस्था की भाषा नहीं समझ सकते. मुख्यमंत्री साय के हिस्से लंबा राजनीतिक अनुभव है. कच्चे खिलाड़ी तो कतई नहीं है. पुरानी कहावत है कि शक्ल वाले अक्ल वालों के सामने मुजरा करते हैं. ‘अक्ल’ अनुभव से आता है. मुख्यमंत्री के रुप में डेढ़ साल की पारी ने पर्याप्त अनुभव दे दिया है. रही कसी कसर आने वाले साढ़े तीन साल पूरी कर देंगे. डाॅक्टर रमन सिंह भी जब नए-नए मुख्यमंत्री बने थे. तब कहा जाता था कि सरकार चलाना सरल-सहज आदमी के बस की बात नहीं है. पंद्रह साल टिक गए. कईयों को टेका लगाने मजबूर कर दिया.
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