रायपुर. आज़ादी के बाद भूमि सुधार सीमित हुए. सीमाओं के अंदर कृषि का विकास हुआ. उदारवाद के बाद कृषि विकास की ओर सरकार जो काम कर रही थी, उसमें रुकावट आई इसलिए लोगों का कृषि क्षेत्र में रहना सम्भव नहीं. कृषि से जुड़े 90% लोगों की हालत ऐसी है कि वे अपना घर नहीं चला सकते. कृषि में रोज़गार की सम्भावनाएं समाप्त हो गई. वेनेजुएला की स्थिति भारत में संभव है, क्योंकि स्थिति विस्फोटक है. यह बात अर्थशास्त्री सुरजीत मजुमदार ने शिक्षा व रोजगार का संकट और हमारी भूमिका पर रायपुर में आयोजित सेमीनार में कही.

अर्थशास्त्री मजुमदार ने कहा कि मजबूरन करोड़ों लोग कृषि छोड़कर दीगर क्षेत्र में रोजगार की तलाश रहे हैं. आज स्थिति यह है कि कुल जनसंख्या का 25 से 20 प्रतिशत बेरोज़गार है. यहां तक बहुत से लोगों ने काम खोजना बंद कर दिया है. वहीं स्वरोजगार के लिए क्या साधन हैं? सब्जी-पकोड़ा बेचकर कितना कमा पाएंगे. जब कमाई का अवसर नहीं मिलेगा तो अर्थव्यवस्था में वो बाजार नहीं बनेगा, जिसमे ज़्यादा उत्पाद का विक्रय हो. जिनके पास साधन है, वे भी ऐसा खर्च करते हैं जिससे रोज़गार नहीं होता. उससे मांग का संकट और गहरा होता है. अर्थव्यवस्था ऐसी स्थिति में है, जिसमें बाजार नहीं बन रहा इसलिए रोज़गार के अवसर कम हो रहे हैं. आंकड़ों को दबा रखा गया है, जिससे स्पष्ट है कि बड़ी संख्या में लोग कृषि छोड़ रहे हैं.

सरकारी खर्च से अर्थव्यवस्था में बढ़ती है मांग

उन्होंने कहा कि अगर सरकार खर्च करती है तो उसके परिणामस्वरूप अर्थव्यव्यस्था में मांग तैयार होती है. दूसरा जिन क्षेत्रों पिछड़ रहे हैं, उनमें सुधार होता है. सरकारी घाटे में स्तर सीमित होना चहिये, ये हर सरकार का उद्देश्य है. लोग कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यव्यस्था में बने रहने के लिए टैक्स सीमित रखो. राजकोषीय घाटा 3 प्रतिशत होना चाहिए. इसका लॉजिक क्या है. कोई लॉजिक नहीं है. यूरोपीय यूनियन ने एक करेंसी रखने पर ये कहा कि 3 प्रतिशत रखा जाए. हमने भी यही रखा. इसका कोई आधार नहीं है. लेकिन कारण है कि सरकारी हस्तक्षेप कम रहे. कोई भी उद्देश्य पूरा करना है तो निजी कंपनियों के माध्यम से करना है.

पिछले दशक में खूब हुआ था निवेश

मजुमदार ने कहा कि पिछले दशक में कुछ समय आया जब लोगों ने खूब निवेश किया, क्योंकि मज़दूरी कम मिलती थी. कुछ मांग ने तैयार किया. इस दशक में अर्थव्यस्था में ठहराव की स्थिति है. कृषि का संकट गहरा गया है. सरकार सुनिश्चित नहीं कर पा रही है कि जो मुनाफा कमा रहे है वो रोज़गार के लिए निवेश करें. शिक्षा के लिए मांग तेज़ी से बढ़ी है. इसका परिणाम है कि 18 से 23 वर्ष के लोग में 25 प्रतिशत कॉलेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे हैं. कमाल की बात है कि स्कूल में 45 प्रतिशत छात्र निजी स्कूलों में पढ़ते हैं, जबकि विकसित देशों में ये काफी कम होते हैं. कॉलेज में 64 प्रतिशत निजी संस्थओं में पढ़ते हैं. सरकारी संस्थानों में खर्चा बढ़ता जा रहा है. समाज का हर वर्ग शिक्षा पर खर्च कर रहा है.

आखिर एक पार्टी के पास इतना पैसा क्यों

आज एक पार्टी के पास इतना पैसा क्यों है जितना बाकी सबको मिलकर भी नहीं है. यह जानते हुए भी कि वे आएंगे या नहीं वे एक ही पार्टी को सपोर्ट कर रहे हैं. अगर कोई देशभक्त है वो है जो इस विस्फोटक स्थिति को पहचानता है, और इसे रोकने के लिए वो बलिदान देने को तैयार रहता है. उन्होंने कहा कि न्याय पर बहस बेकार है. हमारे देश मे खर्च कम है. सवाल ये है कि आप खर्च बढ़ाने को तैयार है. तब आपको ऐसे नीतियों की ज़रूरत नही है अगर ज़रूरत होगा तो भी कम समय के लिए होगा. अगर आप सरकारी खर्चे को बढ़ाने को तैयार है तो आप रोज़गार पैदा करने की स्थिति में हैं. वो कॉरपोरेट पर और टैक्स लगाने की स्थिति में हैं या नहीं.