रायपुर. हनुमान जयंती के अवसर पर हम चर्चा कर रहे हैं कि कैसे जीवन में सुरसा रूपी तृष्णा पर हम विजयी हो. वर्तमान समय में कदम-कदम पर जीवन को प्रभावित करने वाली सुरसा है और इस दौड़ में हम अपने लक्ष्य से भटक कर उस मार्ग में बढ़ जाते हैं पर हमें हनुमान जी महाराज ने कैसे विजयी प्राप्त किया, इस पर चिंतन करना चाहिए, हर समय विस्तार नहीं लघुरुप भी समाधान हो सकता है, यह हम सीख सकते हैं.
जामवंत जी से सलाह एवं ऊर्जा प्राप्त करके हनुमान जी सौ योजन का समुद्र पार लंका की यात्रा के लिए प्रस्थान करते हैं. हनुमानजी अपनी इस यात्रा में विखंडित होती मान्यताओं और मानवीय मूल्यों के समाधान दिए हैं. आइए हनुमान जी के साथ यात्रा प्रारंभ करते हैं. इस यात्रा में हनुमान जी को तीन देवियां मिलती है. विशेषता यह है कि ये तीनों भूखी थी. भूख क्या है? किसकी भूख थी इनको ? आज की यात्रा में प्रथम देवी से हनुमान जी की मुलाकात होगी पहली थी सुरसा “

“सुरसा नाम अहिन के माता ” हनुमान जी को देखते ही वह बोली ” आज सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा” विश्व की शांति के महाअभियान को प्रभावित करने पहली महिला पात्र थी सुरसा. मानस को प्रतीकात्मक शैली से चिंतन करने वाले पूज्य रामकिन्कर जी महाराज ने कहा, सुरसा ही तृष्णा है. सुरसा आज तक मरी नहीं है. उसका प्रच्छन्न रुप आज समाज और परिवार को प्रभावित कर रहा है. तृष्णा ही सुरसा का प्रच्छन्न है. ज्ञानियों के अग्रगण्य श्री हनुमान जी ने उनकी ममता को जागृत कर उसे भावनात्मक ढंग से अपने कार्य में सहयोग देने का आग्रह किया. श्री हनुमान जी ने सोचा है, स्त्री है भारत में नारी ममता का स्वरुप होती है, कितनी भी शुष्क स्वभाव की देवी हो कोई बालक उसे मां कहता है, उसकी ममता छलक उठती है, हनुमान जी ने बड़ा भावनात्मक संबोधन किया.
राम काज करि फिरि मै आवौ। सीता के सुधि प्रभुहिं सुनावौ॥ तब तव बदन पैठहु आई सत्य कहहु मोहि जानि दे माई॥
सुरसा नहीं मानी, हनुमान जी ने कहा, अच्छा तो खा ले मुझे, जितना वह अपना मुंह बढ़ाती थी हनुमान जी उससे दुगुने हो जाते थे. जस जस सुरसा बदन बढ़ावा तासु दुगुन कपि रुप दिखावा॥ यही हमारे व्यवहारिक जीवन में तृष्णा का स्वरुप है. किसी पास यदि 50 एकड़ जमीन है तो उसकी तृष्णा यह होती है कि 100 हो जाए. वह कभी नहीं सोचता 50 से 60 हो जाए, तृष्णा का गणित द्विगुणात्मक होता है.
होते होते जब सुरसा का मुंह 100 योजन का हो गया, तब ज्ञानियों में अग्रगण्य हनुमान जी हमें समाधान दिया. आईए समाधान के रहस्य को समझने का प्रयास करते हैं, जब सौ योजन का मुंह सुरसा ने खोला तो उसका ऊपर का जबड़ा लाभ और नीचे का जबड़ा हानि है, उन दोनों जबड़ो के मध्य में होता है तृष्णा का नर्तन, तृष्णा का अट्टहास होता है, जो संस्कॄति की विमलता को विकृत करता है. समाधान यह है जब आपका समग्र चिंता तृष्णा से आवृत हो जाएगा तब आपको अशांति ही मिलेगी. व्यग्रता ही प्राप्त होगी. बहुत कुछ पा लेने के बाद भी आप भूखे रहेंगे, क्योंकि उच्चता, श्रेष्ठता पद, सन्मान, सत्ता, सम्पति की भूख कभी मिटती ही नहीं. लाभ हानि के संघर्ष का कुरुक्षेत्र हो जाता है हमारा समग्र जीवन. समाधान का बिंब यह है उस लाभ हानि के द्वन्द में एक ऐसा बिंदु होता है जो थोड़ा ऊपर चला जाए तो लाभ और थोड़ा नीचे आ जाये तो हानि. उस समन्वय बिंदु पर अपने चिंतन व्यवहार आचरण को केंद्रित कर देने पर लाभ हानि के द्वन्द में उलझाए रहने वाली तृष्णा को हम जीत सकते हैं.
उस समन्वय समाधान के बिंदु का नाम है “संतोष”. तृष्णा की उदण्डता का शमन संतोष ही है. हनुमानजी ने इस समाधान को इस प्रकार दिया। ॥ संत योजन जब आनन कीन्ह अति लघुरुप पवन सुत लीन्हा॥ तृष्णा को हनुमान जी ने मारा नहीं तृष्णा को उन्होंने जीता। आज आवश्यक है कि संतोष से हम सुरसा का रूप धारण कर चुकी तृष्णा का शमन करें. जय सियाराम.
लेखक – संदीप अखिल, सलाहकार संपादक न्यूज 24/लल्लूराम डॉट कॉम
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