Supreme court On Gender Neutral Laws: देश की शीर्ष न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ने दहेज उत्पीड़न (Dowry harassment) और भरण पोषण (Maintenance) से जुड़े कानूनों को जेंडर न्यूट्रल बनाने और उनके दुरुपयोग को रोकने के लिए दायर जनहित याचिका को मंगलवार को खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘हमें पता है यह मसालेदार खबर बनेगी, लेकिन अदालतें कानून नहीं बना सकतीं और इस पर विचार करना सांसदों का काम है।

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दरअसल  जेंडर न्यूट्रल बनाने का अर्थ है कि कानून में जैसी सुरक्षा और संवेदनशीलता महिलाओं को दी गई है वैसी सुरक्षा और संवेदनशीलता पुरुषों को लेकर दिखाई जाए। जनहित याचिका में भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए (दहेज उत्पीड़न) और भरण-पोषण के भुगतान के लिए सीआरपीसी की धारा 125 को “जेंडर न्यूट्रल” बनाने की मांग की गई थी।

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सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि प्रत्येक मामले का निर्णय उसके तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए। जहां पति या उसके परिवार को पीड़ित किया गया है, वहां कानून को उसी के अनुसार काम करना चाहिए। यदि किसी महिला को परेशान किया गया है, तो कानून को उसके बचाव में भी आना चाहिए। इस प्रावधान में क्या गलत है?

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दरअसल एक गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान उसके वकील ने दलील दी कि पतियों और उनके परिवार के सदस्यों को परेशान करने के लिए कानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग किए जाने के कुछ उदाहरण हैं। इस मामले पर सुनवाई करते हुए जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिंग एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने हालांकि कहा, “हम समझते हैं कि यह एक मसालेदार खबर बनेगी, लेकिन हमें बताएं कि कानून के किन प्रावधानों का दुरुपयोग नहीं हो रहा है?” पीठ ने कहा कि एनजीओ के बजाय पीड़ित व्यक्तियों को अदालत का दरवाजा खटखटाना चाहिए था।

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याचिका को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि ऐसा कोई व्यापक बयान नहीं दिया जा सकता कि महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए बनाए गए प्रावधानों का “दुरुपयोग” किया गया। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि प्रत्येक मामले का निर्णय उसके तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “जहां पति या उसके परिवार को पीड़ित किया गया है, वहां कानून को उसी के अनुसार काम करना चाहिए। यदि किसी महिला को परेशान किया गया है, तो कानून को उसके बचाव में भी आना चाहिए. तो इस प्रावधान में क्या गलत है?

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पीठ ने कहा, “हमें आईपीसी की धारा 498ए, जिसे अब बीएनएस की धारा 84 के रूप में जाना जाता है, के पीछे विधायिका के नीतिगत फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं दिखता। यह दलील कि ऐसे प्रावधान अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हैं, पूरी तरह से गलत और भ्रामक हैय़ संविधान का अनुच्छेद 15 स्पष्ट रूप से संसद को महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए विशेष कानून बनाने का अधिकार देता है।

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कोर्ट ने कहा, “यह आरोप कि प्रावधान का दुरुपयोग किया जा रहा है, अस्पष्ट और भ्रामक है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए इस संबंध में कोई राय नहीं बनाई जा सकती। यह कहना पर्याप्त है कि इस तरह के आरोपों की मामले-दर-मामले के आधार पर जांच की जा सकती है।

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एनजीओ की ओर से पेश होते हुए वकील ने कहा कि भारत में घरेलू हिंसा के मामले केवल महिलाएं ही दर्ज करा सकती हैं, जबकि विदेशों में पति भी ऐसे मामले दर्ज करा सकते हैं और भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं.इस पर जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि, “तो आप चाहते हैं कि हम कानून बनाएं. कानून बनाना न्यायालय का काम नहीं है। इस उद्देश्य पर विचार करने के लिए सांसद मौजूद है। हम किसी प्रावधान को सिर्फ इसलिए रद्द नहीं कर सकते क्योंकि उसके दुरुपयोग के उदाहरण हैं।

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