अमित पांडेय, खैरागढ़. विकास के नए आयामों को पार करते छ्त्तीसगढ़ में कुछ गांव आज भी मूलभूत सुविधाओं से पूरी तरह वंचित हैं. छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश की सीमा पर घने जंगलों के बीच बसा ग्वालगुंडी गांव, जहां रहने वाले लोगों की जिंदगी देखकर ऐसा लगता है जैसे ये गांव आजादी के बाद से देश की नजरों से ही ओझल हो गया हो… गांव में न बिजली है, न पक्की सड़क, न पानी की व्यवस्था. रात होते ही पूरे गांव पर अंधेरा छा जाता है. लोग लकड़ियां जलाकर रौशनी करते हैं. दिनभर पानी के लिए तालाबों और नदियों की तलाश में भटकते हैं. जरूरत की चीजें खरीदने के लिए गांव वालों को 15 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है. बरसात के मौसम में हालात और भी बदतर हो जाते हैं, रास्ते की जगह कीचड़, नदी और नाले ले लेते हैं, जिन्हें पार करते समय कई बार लोग अपनी जान तक जोखिम में डालते हैं. जबकि इसी गांव से महज 4-5 फीट की दूरी पर मध्यप्रदेश का गांव पूरी तरह विकसित और रौशन है….

ग्वालगुंडी के ग्रामीणों की पीड़ा और बेबसी आप इस बात से समझ सकते हैं कि राज्य सीमा के उस पार बसे गांव के अंतिम छोर तक बिजली के खंभे दिखते हैं, घर और रास्ते रौशनी से जगमग दिखते हैं. ऐसे में ग्रामीणों के दिल में कसक और सवाल उठते हैं कि आखिर हमें ये सुविधाएं क्यों उपलब्ध नहीं हो सकीं… आखिर हमारे हक की मूलभूत सुविधाएं हमें क्यों नहीं मिल रहीं….

बता दें, मध्यप्रदेश के डिंडौरी जिले में स्थित मठारी गांव का गोद ग्राम है हर्राटोला, जो छत्तीसगढ़ के ग्वालगुंडी से लगा हुआ है. फर्क केवल सरहदों का है, जिसके इस पार केवल अंधकार है और उस पार रौशनी और तरक्की नजर आती है…. वहां बिजली के खंभे चमकते हैं, हर घर तक पानी की पाइपलाइन पहुंची है, पक्की सड़कें ना सही लेकिन सड़क पर पढ़ने वाले पुल राज्य की आख़िरी सीमा तक बन चुके हैं .हर्राटोला के ग्रामीण सभी सरकारी योजनाओं का लाभ ले रहे हैं, और इधर छत्तीसगढ़ के ग्वालगुंडी गांव के लोग सरकार की तरफ आज भी टकटकी लगाए बैठे हैं.

गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि “हमने कभी बिजली की रौशनी अपने घर में नहीं देखी. बच्चों को पढ़ाई करनी हो तो मशाल जलानी पड़ती है. इलाज के लिए भी हमें मीलों पैदल चलना पड़ता है.” कुछ महिलाएं बताती हैं – “हमारे सामने ही मध्यप्रदेश के लोग हर सुविधा का लाभ उठा रहे हैं, और हम बस देखते रह जाते हैं.” पूरे गांव की हालत देखकर यही लगता है जैसे यहां वक्त ठहर गया हो. गांव के बच्चों ने कभी टीवी नहीं देखा, और बुजुर्गों ने कभी अस्पताल का बिस्तर नहीं. यहां न कोई जनप्रतिनिधि आता है, न कोई अधिकारी. लगता है जैसे इस गांव का नाम सरकारी फाइलों से गायब ही कर दिया गया हो.

जानिए क्या कहते हैं जिम्मेदार…

जब इस मामले पर जिला प्रशासन से बात की गई तो एडीएम प्रेम कुमार पटेल ने कहा कि ग्वालगुंडी पहाड़ी क्षेत्र में बसा गांव है. पहले यहां नक्सली गतिविधियां होती थीं, लेकिन अब ये इलाका नक्सल मुक्त हो चुका है. प्रशासन की कोशिश है कि आने वाले समय में यहां बेहतर सड़क, बिजली और पर्यटन की सुविधा विकसित की जाए.

आखिर छत्तीसगढ़ के इस गांव का क्या है कसूर?

इस मंजर को देखने पर यह सवाल उठता है कि जब पांच फीट की दूरी पर बसे गांव में सारी सुविधाएं पहुंच सकती हैं, तो फिर ग्वालगुंडी को अब तक क्यों नहीं मिल पाईं? क्या छत्तीसगढ़ के इस गांव का कसूर सिर्फ इतना है कि ये बॉर्डर के इस पार है? यह समस्या केवल ग्वालगुंडी की ही नहीं, बल्कि खैरागढ़ जिले में इसी तरह से 8 गांव और हैं, जहां अब तक ना बिजली पहुंची और ना मूलभूत सुविधाएं… ऐसे में जमीनी हकीकत बताती है कि विकास अभी भी सबके हिस्से नहीं आया. सरकारें आती जाती रहीं, वादे होते रहे, लेकिन कुछ गांव आज भी वहीं के वहीं हैं… अंधेरे में, उपेक्षा में और इंतजार में…

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