
नेता की भाषा
हर नेता की दो भाषाएं होती हैं. एक सार्वजनिक और दूसरी सांकेतिक. सार्वजनिक भाषा में यह सुनाई पड़ता है कि हम एकजुट हैं, सरकार मजबूत है. सांकेतिक भाषा कहती है, प्रतिद्वंदी का पत्ता काटना है. इन सबके बीच सरकारों में श्रेष्ठ व्यक्ति का मतलब यह होता है, जो अपने समकक्ष या नीचे वाले चेहरे की कुर्सी में दीमक लगाकर उसे पेस्ट कंट्रोल बेचते रहे. खैर, हर सरकार की एक परंपरा है, जो जितना विनम्र दिखता है, वो उतना ही खतरनाक होता है. जो जितना मुस्कुराता है, वो उतना ही कुर्सी को घूरता है और जो चुपचाप बैठा है, दरअसल वह सोच रहा होता है कि अब किसकी कुर्सी हिलानी है. जिस दिन किसी मंत्री की मुस्कान ज्यादा देर टिक जाए, तब समझिए उसकी कुर्सी थोड़ी हिलने वाली है. राजनीतिक शिष्टाचार का यह स्तर देखकर मैकियावेली भी सोचता होगा कि मैंने तो सिर्फ किताब लिखी थी. राजनीति विज्ञान का जनक कहे जाने वाले मैकियावेली ने अपनी किताब द प्रिंस में दिए अपने तर्क में कहा था कि अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए शासक को किसी भी साधन के उपयोग के लिए तैयार रहना चाहिए, भले ही वह नैतिक रूप से गलत ही क्यों न हो. राज्य गठन के बाद से सूबे की सियासत में कोई न कोई हमेशा रहा, जिसने मैकियावेली को आदर्श माना, चाहे जोगी सरकार हो, रमन सरकार हो या भूपेश सरकार. किस सरकार में किसने मैकियावेली को आदर्श माना, इसका विश्लेषण आप खुद करिए. फिलहाल ढूंढिए कि मौजूदा सरकार में मैकियावेली के बताए सिद्धांत पर कौन-कौन से मंत्री चल रहे हैं. कौन-कौन से मंत्री हैं, जो सार्वजनिक रूप से तो गलबहियां करते हैं, मगर उनकी सांकेतिक भाषा एक-दूसरे को निपटाने की होती है. अपने-अपने तरीके से सही मगर वह कौन-कौन से मंत्री हैं, जो भविष्य की संभावनाओं पर वर्तमान में अपनी राजनीतिक नींव मजबूत कर रहे हैं? बहरहाल राजनीति बड़ी सुहानी चीज़ है, साहब. बाहर से देखो तो खुशबू है, भीतर से कुरुक्षेत्र की गंध है. राजनीति में हर कोई ऊपर उठने के बाद नीचे गिरने से डरता है.
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कुर्सियोलाॅजी
एक समय था जब कुर्सी पाने के लिए अफसरों को अच्छा काम करना पड़ता था. अफसर सरकार का इशारा समझ कर काम करते थे. जनहित के काम पर जोर था. सरकारी योजनाओं को जमीन पर उतारने की प्राथमिकता होती थी. जनता की सुनवाई पर खास ध्यान होता था. तब अफसरों की पोस्टिंग एक तरह का इनाम हुआ करती थी. पर अब…अब पोस्टिंग ऐसा गुप्त विज्ञान बन चुकी है, जिसे समझने के लिए अफसरों को कुर्सियोलाॅजी का कोर्स करना पड़ रहा है. अब आप सोच रहे होंगे कि यह कुर्सियोलाॅजी क्या है? भाई साहब, यह वह विज्ञान है, जिसमें यह सिखाया जाता है कि जब आपकी कुर्सी हिल रही हो, तब भी उस पर कैसे चिपके रहना है. जब आपके खिलाफ जन सुनवाई में लाइन लग रही हो, तब भी ट्रांसफर आर्डर से अपना नाम कैसे गायब करवाना है या जब आपकी नजर कुर्सी पर जमी हो और आप की पोस्टिंग लूप लाइन वाली हो, तब कुर्सी कैसे हथियानी है. पुराने जमाने में अच्छा काम करने वाला अफसर सम्मान पाता था, अब अच्छे अफसर को देखकर बाकी अफसर डर जाते हैं. कहते हैं कि इतना भी क्या ईमानदार बनना ! कहीं सरकार नाराज न हो जाए. जिन अफसरों का ट्रैक रिकार्ड देखकर भगवान भी माथा पकड़ ले, वे अफसर मुस्कुराते हुए कहते हैं, हमने कुछ नहीं किया. हमने तो बस ऊपर की बात मानी. खैर, अंदर की बात यह है कि ज्यादातर मामलों में पोस्टिंग अब योग्यता पर नहीं, युक्ति पर मिलती है और पनिशमेंट अब गलती की वजह से नहीं, राजनीति की दिशा के खिलाफ बहने की वजह से दी जाती है. सूत्र बताते हैं कि सरकार अब AI (Artificial Intelligence) नहीं, PI (Political Intelligence) से अफसरों की पोस्टिंग तय करती है. एक सजग अफसर ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “अब सिर्फ फाइलों में काम करना काफी नहीं. आपको यह भी आना चाहिए कि कौन सी कुर्सी कितनी गर्म है और उस कुर्सी को किस तरफ, कितनी डिग्री पर झुका कर रखना है”. खैर, कुल जमा लब्बोलुआब यह है कि वर्तमान हालात यह संकेत दे रहे हैं कि अगर कोई अफसर निकृष्ट श्रेणी में आता है, तो चिंता की बात नहीं, उत्कृष्ट बनने की कोशिश न की जाए. अंतोगत्वा नतीजे निकृष्ट श्रेणी के पक्ष में जाने की संभावना अधिक है. अंत में, सरकार से एक विनम्र निवेदन है कि, हे शासन के देवताओं अगर उत्कृष्टता को ही सज़ा देनी है और निकृष्टता को पुरस्कार, तो कृपया लोकतंत्र का नाम बदल दें. इसे लोकतंत्र नहीं, लो-कर्म-तंत्र कहा जाए. ज्यादा बेहतर होगा.
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थैला
प्रशासनिक गलियारों में मौका मुआयना करने जाएंगे, तो यह मालूम चलेगा कि ठीक-ठाक पोस्टिंग पाने के लिए अफसर ‘थैला’ लेकर चल रहे हैं. प्रशासनिक बिरादरी के लोग बताते हैं कि पिछली सरकार में कलेक्टर-एसपी की पोस्टिंग का इको सिस्टम कुछ इस तरह से डेवलप हो चला था कि बोली लग रही थी. मौजूदा व्यवस्था में भी अफसरों की बिरादरी उस मानसिकता से उबर नहीं पाई है. कई अफसरों को लगता है कि उनका अच्छा काम उनकी अच्छी पोस्टिंग का आधार नहीं बन सकता, सो ‘थैला’ पर भरोसा बढ़ चला है. खैर, उन अफसरों के इस इको सिस्टम से न उबर पाने के पीछे कोई तो वजह होगी ही. कुछ सुन रखा होगा. एक आला अधिकारी ने बातचीत में कहा था कि रिश्वत देकर पाई गई पोस्टिंग, कुर्सी पर बैठने वाले को रिश्वत लेने का प्रमाण पत्र है. रिश्वत लेना उसका नैतिक अधिकार बन जाता है. कम से कम कलेक्टर-एसपी की पोस्टिंग में इस तरह का इको सिस्टम डेवलप नहीं करना चाहिए. कलेक्टर-एसपी ‘थैला’ देकर कुर्सी पाने लगे, तब नीचे तबके का हाल कितना भयावह होगा, यह समझा जा सकता है. सरकार की साख कलेक्टर-एसपी ही बचाकर चल सकते हैं. मौजूदा सरकार में नैतिक बल ज्यादा दिखता है. कायदे के अफसरों के हाथों में प्रशासनिक कमान है. उम्मीद है ‘थैला’ नाम के इको सिस्टम को मजबूती से कुचला जा रहा होगा.
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ये कैसा बवाल है
“सीआईडी में मचा कैसा ये बवाल है,
आने वाली है एक समस्या, जो बहुत विकराल है।
पहले तो चलती थी अपनी मर्जी,
अब तो हमारी अर्जी पर भी सवाल है।
मिलती थी छुट्टी तत्काल,
इनामों से थे मालामाल।
कैसे होगा, क्या होगा,
कैसा पीएचक्यू का इंद्रजाल है।
मची है अफरा-तफरी, सभी सेक्शनों में,
चर्चा आम होने लगी आने वाला भूचाल है।
सीआईडी में मचा कैसा ये बवाल है,
आने वाली है एक समस्या, जो बहुत विकराल है…।
भारी होगी वर्षा और भयंकर होगी पूजा,
ना मानेगा विवेक, रहेगा भागमभाग और बढ़ेगी टेंशन,
अब ना बचेगा एक बाल है।
सीआईडी में मचा, कैसा ये बवाल है,
आने वाली है एक समस्या, जो बहुत विकराल है…”
पीएचक्यू कर्मियों के व्हाट्सएप ग्रुपों में वायरल हो रही इस कविता में कवि आखिर कहना क्या चाहता है? दरअसल कवि उस संभावित समस्या का जिक्र कर रहा है, जो एक आईपीएस अफसर की पोस्टिंग से दिखाई पड़ रही है. पीएचक्यू में ठीक ठाक काम की दो ही जगह है. एक प्रशासन और दूसरा सीआईडी. ताजी-ताजी पोस्टिंग में जिस अफसर को सीआईडी का जिम्मा सौंपा गया है, उनकी आमद से बवाल कट रहा है. अमूमन किसी अफसर के आने-जाने से मातहत बोझिल नहीं होते. मगर इस दफे गहरे सदमे में हैं. कोई तो बात होगी, वरना यूं ही कोई कविता लिखने नहीं लग जाता. खैर, जिस साहब को सीआईडी का जिम्मा सौंपा गया है, वह लंबे समय तक केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर थे. आईबी में रहे हैं. जाहिर है कर्मचारियों के हर किए धरे को शक की निगाह से देखते होंगे. उनकी भरोसे की गहराई बहुत नीचे होगी. कविता में कवि इशारों में बहुत कुछ कह रहा है. पहले मर्जी से थोड़ा बहुत काम चल जाता था, अब अर्जी पर भी सवाल उठेगा. अफसर की आमद से ‘वर्षा’ के भारी होने और ‘पूजा’ के भयंकर हो जाने का भी संकेत है. कुल मिलाकर इस नियुक्ति से आने वाले दिनों में पीएचक्यू का समीकरण बदलता दिख सकता है.
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पुराने किस्से
जब बात सीआईडी वाले साहब की हो रही है, तो कुछ पुराने किस्से भी हवा में तैरने लग गए. एक किस्सा तब का उछला, जब वह कोरिया जिले के एसपी हुआ करते थे. एक शराब माफिया के ठिकानों पर पुलिसिया गुस्सा फूट पड़ा था. माफिया ने बेरहमी से पुलिस वालों की पिटाई कर दी थी. साहब तक खबर पहुंची, मगर साहब ने इतनी भी जहमत नहीं उठाई कि अपने चोटिल अधीनस्थों को मरहम भरे दो शब्द कह आते और माफिया पर नकेल कस पाते. कई सौ किलोमीटर दूर से आईजी को खबर की मालूमात हुई, वह दौड़े-दौड़े आ गए, मगर एसपी साहब तो एसपी साहब ही थे. उनकी तशरीफ भी न हिली. उल्टा यह हुआ कि माफिया के खिलाफ दर्ज एफआईआर के जवाब में मार खाए पुलिस वालों के खिलाफ ही जवाबी प्रकरण दर्ज कर दिया गया. साहब की ईमानदार छवि पर कोई सवाल नहीं, मगर तब न जाने किसका दबाव था. हवा में तैरती एक दूसरी घटना सुनाई पड़ी. तब के एक प्रभावशाली मंत्री को अपने प्रोबेशन पीरियड में ही उन्होंने कानून का पाठ पढ़ा दिया. मंत्री की नजर में चढ़ गए. मालूम नहीं मंत्री ने उसके बाद क्या-क्या किया. साल 2011 की एक बात की चर्चा भी इस दौरान फूट पड़ी. पता चला कि लालकृष्ण आडवाणी की सड़क मार्ग की यात्रा महासमुंद पहुंचने वाली थी. कई जिलों के एसपी की ड्यूटी लगाई गई थी. आमतौर पर दूसरे जिले से आने वाले अफसरों की रहने-खाने की व्यवस्था की जिम्मेदारी उस जिले के एसपी को उठानी होती है, मगर साहब की साफगोई देखिए उन्होंने दो टूक कह दिया कि सरकार टीए-डीए क्यों देती है? साहब के कामकाज के तौर-तरीके और उनके मिजाज से समझा जा सकता है कि उनके हालिया तबादले ने पीएचक्यू के अफसरों को कविता लिखने की प्रेरणा कैसे दे दी है. सरकारी नौकरी में थोड़ा व्यावहारिकता जरूरी है. तब जाकर सिस्टम सुचारू ढंग से चल पाता है.
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जांच की आंच
भारतमाला परियोजना चली थी देश को जोड़ने पर कुछ लोगों ने सोचा कि इससे तो जेब भी जुड़ सकती है. योजना जमीन पर आने से पहले कागजों पर खूब दौड़ी और जमीन पर उतरने के बाद मुआवजे ने जमकर गोता लगाया. अब ईओडब्ल्यू मैदान में उतरी है. जांच की आंच तेजी से फैल रही है. गर्दन दबोची जा रही है. ईओडब्ल्यू के हाथों की चौड़ाई में जिस-जिस की गर्दन आ सकती है, वह सब दबोच ली जाएंगी. पिछले दिनों ईओडब्ल्यू ने घोटाले से जुड़े लोगों के ठिकानों पर दबिश दी. इस दबिश के बाद चार लोगों की गिरफ्तारी की गई. फिलहाल इसमें एसडीएम और तहसीलदार शामिल नहीं है. सरकारी अधिकारी है. सरकार से अनुमति लेनी होती है. सरकार ही जांच करा रही है. अनुमति मिल जाएगी. अधिकारी सलाखों के पार चले जाएंगे. मगर इस मामले ने सिस्टम की कलई खोलकर रख दी है. खपरैल के मकान की हैसियत वाले ने करोड़ों रुपए का बंगला बना रखा है. मोटरसाइकिल पर चलने की हैसियत वाला बीएमडब्ल्यू और मर्सिडीज की सवारी कर रहा है. मामूली ढाबा वाला फाइल स्टार ढाबा चला रहा है. एक घोटाले ने इतना सब कुछ दिया. जरा सोचिए नौकरी बची रही और यह सिंडिकेट चलता रहा, तो आगे के सालों में न जाने कौन-कौन से चमत्कार दिखाई पड़ेंगे. कानून के कटघरे तक जाकर यह मसला खत्म नहीं हो जाना चाहिए. सरकार को पूरी निर्ममता से इस कुचक्र को कुचलने की जरूरत है. यह बात और है कि भारतमाला परियोजना में जिस विवादित हिस्से पर सुर्खियां बन रही हैं, उससे चंद किलोमीटर दूर कई रसूखदारों ने खूब मलाई चटकायी है. जांच का पहिया घूम ही रहा है, थोड़ा आगे बढ़ जाए तो कईयों को दिक्कत हो सकती है. सरकार थोड़ा साहस दिखाकर जांच की दिशा को दो-चार फर्लांग आगे बढ़ा दे, तब यकीन मानिए कई बड़े नेता-अफसर की लंगोट खुल जाएगी.