Rajasthan News: केंद्र सरकार ने हाल ही में एक अहम फैसला लेते हुए देशभर में जातिगत जनगणना कराने की मंजूरी दे दी है। लंबे समय से विपक्ष इस मांग को उठा रहा था, लेकिन माना जा रहा है कि इस निर्णय के पीछे बिहार चुनाव की रणनीति भी एक अहम कारण है।

उल्लेखनीय है कि बिहार में नीतीश कुमार सरकार ने पहले जातिगत जनगणना शुरू की थी, जिसे बाद में रोक दिया गया था। अब केंद्र सरकार के इस कदम का असर सिर्फ बिहार ही नहीं, बल्कि राजस्थान जैसे राज्यों पर भी गहराई से पड़ने की संभावना है, जहां राजनीति लंबे समय से जातीय समीकरणों पर आधारित रही है।
राजस्थान में जातिगत जनगणना का राजनीतिक प्रभाव
राजस्थान की राजनीति में ओबीसी वर्ग, विशेष रूप से जाट, माली, गुर्जर, मीणा और विश्नोई समुदायों की भूमिका हमेशा से निर्णायक रही है। जातिगत जनगणना से इन समुदायों की वास्तविक जनसंख्या का खुलासा होगा, जिससे ये वर्ग आरक्षण, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सरकारी योजनाओं में अधिक हिस्सेदारी की मांग और मजबूती से कर सकेंगे। जाट समुदाय, जो स्वयं को लंबे समय से हाशिए पर मानता रहा है, अपनी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण और राजनीतिक भागीदारी की मांग को और प्रखर कर सकता है। वहीं, गुर्जर समुदाय का आरक्षण आंदोलन भी इस जनगणना के बाद नई दिशा में बढ़ सकता है।
एससी/एसटी वर्ग जैसे मेघवाल, वाल्मीकि, भील और गरासिया भी अपनी जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर योजनाओं और प्रतिनिधित्व में अधिक पारदर्शिता की मांग कर सकते हैं। खासकर भीलवाड़ा, बांसवाड़ा और डूंगरपुर जैसे आदिवासी इलाकों में मुद्दे और मुखर हो सकते हैं।
राजनीतिक दलों की रणनीति में बदलाव
भाजपा जहां अपने पारंपरिक सवर्ण वोटबैंक को बनाए रखते हुए ओबीसी और दलित वर्गों में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश करेगी, वहीं कांग्रेस इन आंकड़ों के आधार पर अपनी योजनाओं और घोषणाओं को नए रूप में पेश कर सकती है। इसके साथ ही माली, विश्नोई और गुर्जर जैसे समुदायों के नेताओं का उभार और नए क्षेत्रीय राजनीतिक मोर्चों का गठन भी संभावित है।
सामाजिक प्रभाव और आरक्षण बहस
जातिगत जनगणना के बाद नौकरी और योजनाओं में आरक्षण को लेकर नई बहस शुरू हो सकती है। राजस्थान में पहले ही आरक्षण की सीमा 50% से ऊपर जा चुकी है। यदि किसी जाति की जनसंख्या अपेक्षा से अधिक पाई गई, तो ईडब्ल्यूएस (EWS) आरक्षण और ओबीसी वर्ग में उपवर्गीकरण को लेकर विवाद और चर्चाएं तेज़ हो सकती हैं।
राजस्थान का जातीय आंदोलन इतिहास
राजस्थान पहले से ही जातीय आंदोलनों की जमीन रहा है। 2003 में लोकेंद्र सिंह कालवी और देवी सिंह भाटी ने ‘सामाजिक न्याय मंच’ की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण समुदायों को न्याय दिलाना था। इसके बाद 2007 से 2019 के बीच गुर्जर समुदाय ने आरक्षण की मांग को लेकर बड़े आंदोलन किए। वहीं जाट समुदाय ने भी हरियाणा, यूपी के साथ राजस्थान के शेखावाटी और भरतपुर क्षेत्रों में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन छेड़े। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी सीकर की एक रैली में जाटों को आरक्षण देने की घोषणा की थी। माली, सैनी और विश्नोई जैसे समुदाय भी समय-समय पर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाते रहे हैं।
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