दिल्ली हाईकोर्ट(Delhi High court)के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा (Justice Yashwant Verma)के निवास से बड़ी मात्रा में नकद की बरामदगी के मामले में एक नया तथ्य सामने आया है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक आंतरिक जांच समिति ने पुष्टि की है कि 14 मार्च को जस्टिस वर्मा के घर में आग लगने के बाद वहां से नकद बरामद किया गया था. हालांकि, जांच शुरू होने से पहले ही यह नकद रहस्यमय तरीके से ‘गायब’ हो गया, और इस मामले में जस्टिस वर्मा के आवास पर कार्यरत कर्मचारियों की संलिप्तता का संदेह जताया जा रहा है.
20 साल बाद बस कंडक्टर को दिल्ली हाईकोर्ट से राहत, 110 रुपये की धोखाधड़ी में हुआ था बर्खास्त
रिपोर्ट के अनुसार, जब आग बुझाने के बाद कमरे का दरवाजा खोला गया, तो वहां बड़ी मात्रा में जली हुई नकदी मिली. यह कमरा लॉक था और इसे तोड़कर खोला गया. सूत्रों के हवाले से बताया गया है कि जब जस्टिस वर्मा से इस मामले में सवाल किया गया, तो उन्होंने गलत और भ्रामक जानकारी दी. बरामद नकदी की सही राशि अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाई है, क्योंकि जांच से पहले ही नकदी “गायब” हो चुकी थी.
नकदी वहीं पर छोड़ दी थी
जांच पैनल ने यह निष्कर्ष निकाला कि पुलिस ने फायर ब्रिगेड को आग की सूचना दी थी. पहली कॉल 14 मार्च की रात 11.35 बजे आई, और फायर ब्रिगेड की टीम 11.43 बजे घटनास्थल पर पहुंची. उन्होंने आग बुझाने के बाद 15 मार्च को सुबह 1.56 बजे वहां से departure किया. पैनल ने यह भी देखा कि घटना का वीडियो बनाने वाले पुलिसकर्मी तुरंत बाद अपने घर चले गए और नकदी को कमरे में ही छोड़ दिया.
पद से हटाने की सिफारिश
सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक जांच समिति ने मामले की गंभीरता को देखते हुए जस्टिस वर्मा को उनके पद से हटाने की सिफारिश की. इसके बाद, दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीके उपाध्याय ने एक प्रारंभिक जांच की और तात्कालिक प्रभाव से जस्टिस वर्मा से न्यायिक कार्य छीन लिया. इसके परिणामस्वरूप, उन्हें बिना किसी न्यायिक जिम्मेदारी के इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया.
भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने जांच समिति की रिपोर्ट और जस्टिस वर्मा के उत्तर को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेज दिया है. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए निर्धारित इन-हाउस जांच प्रक्रिया के अनुसार, यदि कोई न्यायाधीश इस्तीफा नहीं देता है, तो मुख्य न्यायाधीश को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखने की आवश्यकता होती है.
जस्टिस वर्मा ने सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि जिस कमरे से नकदी बरामद हुई, वह कई लोगों के लिए खुला था और उनका इस धनराशि से कोई संबंध नहीं है. उन्होंने इन आरोपों को “बेबुनियाद और हास्यास्पद” बताया. अब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इस मामले में क्या कार्रवाई करेंगे, इस पर सभी की नजरें टिकी हुई हैं.
जस्टिस यशवंत वर्मा के लिए आगे क्या?
8 मई को, सीजेआई संजीव खन्ना ने तीन सदस्यीय जांच समिति की रिपोर्ट राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेज दी, जो इस बात का संकेत है कि जस्टिस वर्मा ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया है. इस समिति में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जी.एस. संधावालिया, और कर्नाटक हाई कोर्ट की जज अनु शिवरामन शामिल थे. उन्होंने जस्टिस वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की. सूत्रों के अनुसार, सीजेआई ने जस्टिस वर्मा को इस्तीफा देने या महाभियोग की प्रक्रिया का सामना करने के लिए कहा था.
यदि किसी जज ने इस्तीफा देने से इनकार किया और जांच में गंभीर अनियमितताएं उजागर हुईं, तो मामला महाभियोग के लिए संसद में भेजा जा सकता है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(4) और 218 के अनुसार, किसी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के जज को केवल तब हटाया जा सकता है जब संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित किया जाए. इसके लिए “सिद्ध कदाचार” या “अक्षमता” का आधार होना आवश्यक है.
अब गेंद केंद्र सरकार और संसद के हाथ में है. सरकार को जजेस (इन्क्वायरी) एक्ट, 1968 के तहत आवश्यक कदम उठाने होंगे, जिसमें लोकसभा या राज्यसभा के अध्यक्ष द्वारा एक जांच समिति का गठन किया जा सकता है. यदि संसद महाभियोग प्रस्ताव को पारित करती है, तो राष्ट्रपति जज को हटाने का आदेश देंगे. हालांकि, भारत में महाभियोग की प्रक्रिया जटिल और राजनीतिक रूप से संवेदनशील रही है, और यह सुनिश्चित नहीं है कि यह प्रक्रिया सफलतापूर्वक पूरी हो सकेगी.
क्या है इन-हाउस प्रक्रिया?
1995 में सुप्रीम कोर्ट के सी. रविचंद्रन अय्यर बनाम जस्टिस ए.एम. भट्टाचार्जी मामले के साथ इन-हाउस प्रक्रिया की शुरुआत हुई, जब बॉम्बे हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे. सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय लिया कि जजों के खिलाफ मामूली कदाचार के मामलों में महाभियोग जैसे कठोर कदम उठाना उचित नहीं है. इसके परिणामस्वरूप, 1999 में एक औपचारिक इन-हाउस प्रक्रिया विकसित की गई, जिसमें गंभीर आरोपों की जांच के लिए तीन जजों की समिति का गठन किया जाता है.
इस प्रक्रिया में कुछ कदम शामिल हैं:
प्रारंभिक जांच के दौरान, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आरोपों की समीक्षा करते हैं और संबंधित न्यायाधीश से स्पष्टीकरण मांगते हैं. यदि आरोप गंभीर प्रतीत होते हैं, तो मुख्य न्यायाधीश दो अन्य उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों और एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की एक समिति का गठन करते हैं. यह समिति प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए मामले की जांच करती है और अपनी निष्कर्ष रिपोर्ट मुख्य न्यायाधीश को प्रस्तुत करती है.
समिति तीन संभावित निष्कर्षों पर पहुँच सकती है: पहले, आरोपों को निराधार मानना; दूसरे, आरोपों को गंभीर मानकर महाभियोग की आवश्यकता समझना; या तीसरे, कदाचार को स्वीकार करना, लेकिन इसे महाभियोग के लिए उतना गंभीर न मानना. जस्टिस वर्मा के मामले में, समिति ने गंभीर निष्कर्ष निकाले हैं, जिसके परिणामस्वरूप मुख्य न्यायाधीश ने मामले को सरकार के पास भेज दिया. यदि जस्टिस वर्मा ने इस्तीफा नहीं दिया, तो संसद में महाभियोग की प्रक्रिया आरंभ हो सकती है.
मनोरंजन की बड़ी खबरें पढ़ने के लिए करें क्लिक
छत्तीसगढ़ की खबरें पढ़ने यहां क्लिक करें
उत्तर प्रदेश की खबरें पढ़ने यहां क्लिक करें
लल्लूराम डॉट कॉम की खबरें English में पढ़ने यहां क्लिक करें
खेल की खबरें पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें