सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस अभय एस ओका (Justice Abhay S Oka) ने कहा कि अदालत में निर्णय लेते समय भी त्रुटियाँ हो सकती हैं. उन्होंने यह स्वीकार किया कि जज भी मानव होते हैं और उनसे गलती होना स्वाभाविक है. जस्टिस ओका ने अपने अनुभव को साझा करते हुए बताया कि जब वह बॉम्बे हाई कोर्ट में थे, तब भी उनसे एक घरेलू हिंसा के मामले में सही तथ्य को समझने में चूक हुई थी. उन्होंने यह भी कहा कि जजों के लिए निरंतर सीखने की प्रक्रिया जारी रहती है.
जस्टिस ओका ने यह स्पष्ट किया कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत घरेलू हिंसा कानून की धारा 12(1) के अंतर्गत दायर याचिका को खारिज किया जा सकता है. हालांकि, यह कानून यह भी निर्धारित करता है कि कोई भी महिला भुगतान, मुआवजा या अन्य राहत के लिए मजिस्ट्रेट के पास जा सकती है. इस मामले में जस्टिस ओका और जस्टिस उज्जल भुयान की पीठ ने निर्णय सुनाया, जबकि जस्टिस ओका का दृष्टिकोण इस संदर्भ में भिन्न था.
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि उच्च न्यायालय को घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून के उद्देश्य को ध्यान में रखना चाहिए, जो महिलाओं को न्याय प्रदान करने के लिए बनाया गया है. ऐसे में, यदि धारा 482 के तहत किसी याचिका को खारिज करने का मामला आता है, तो उच्च न्यायालय को इसे गंभीरता से विचार करना चाहिए. जब तक यह स्पष्ट नहीं होता कि कानून का दुरुपयोग हो रहा है या मामला पूरी तरह से गलत है, तब तक ऐसी याचिकाओं को खारिज नहीं किया जाना चाहिए.
जस्टिस ओका, जो बेंच की ओर से फैसले को लिख रहे थे, ने स्पष्ट किया कि इस निर्णय के साथ यह बताना आवश्यक है कि वे 27 अक्टूबर 2016 को बॉम्बे हाई कोर्ट के एक मामले में भी शामिल थे, जिसमें घरेलू हिंसा के कानून के सेक्शन 12 (1) के संदर्भ में सीआरपीसी की धारा 482 के तहत मुकदमा खारिज करने की प्रक्रिया को मान्यता नहीं दी गई थी. उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि इस पर हाई कोर्ट की पूरी बेंच की सहमति नहीं थी, इसलिए यह उनकी जिम्मेदारी थी कि वे अपनी पूर्व की गलती को सुधारें.
जस्टिस ओका ने अपने निर्णय में सुधार करने की आवश्यकता महसूस की. उन्होंने स्पष्ट किया कि घरेलू हिंसा के मामलों में धारा 482 के तहत मुकदमा खारिज करने का प्रावधान नहीं होना कहना गलत था, क्योंकि इससे मामला केवल सिविल प्रकृति का प्रतीत होता था. हालांकि, परिस्थितियों के अनुसार धारा 482 के तहत निर्णय लिया जा सकता था, जो सुप्रीम कोर्ट के विचारों से भी भिन्न था. सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि यह कानून महिलाओं को न्याय प्रदान करने के लिए है, जिससे हाई कोर्ट का निर्णय पूरी तरह से सही नहीं ठहरता था. इस कारण से, निर्णय में सुधार किया गया.
नई तकनीक ने कानून के अध्ययन में ला दी क्रांति- जस्टिस ओका
जस्टिस ओका ने बताया कि पिछले तीन वर्षों में देश की विभिन्न भाषाओं में हजारों न्यायिक निर्णयों का अनुवाद किया गया है. टीएमसी लॉ कॉलेज द्वारा जारी एक विज्ञप्ति में उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में पिछले 30 वर्षों से जिला अदालतों में मराठी भाषा का उपयोग किया जा रहा है. इसके साथ ही, जस्टिस ओका ने यह भी उल्लेख किया कि नई प्रौद्योगिकी ने कानूनी अध्ययन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया है.
आज की उपलब्ध सुविधाओं के कारण कानून का अध्ययन, शोध करना और इसके अर्थ को समझना पहले से कहीं अधिक सरल हो गया है. छात्रों को चाहिए कि वे इन संसाधनों का प्रभावी ढंग से उपयोग करें ताकि वे त्वरित निर्णय लेने की प्रक्रिया को समझ सकें.
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