विवादित किताबें, ‘आज़ादी के बाद स्वर्णिम भारत’ भाग 1 और 2, पिछली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल से ही पाठ्यक्रम का हिस्सा रही हैं.
जयपुर। राजस्थान में एक नया राजनीतिक विवाद छिड़ गया, जब स्कूल शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने कक्षा 12 के पाठ्यक्रम से दो किताबों को हटाने की घोषणा की. उन्होंने उन पर कांग्रेस नेताओं – विशेष रूप से गांधी-नेहरू परिवार – का अनुचित रूप से महिमामंडन करने और अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों की अनदेखी करने का आरोप लगाया.
विवादित किताबें, ‘आज़ादी के बाद स्वर्णिम भारत’ भाग 1 और 2, पिछली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल से ही पाठ्यक्रम का हिस्सा रही हैं. दिलावर के अनुसार, आपातकाल लगाने, संविधान को निलंबित करने और लोकतंत्र को कमज़ोर करने में कांग्रेस नेताओं की भूमिका के बावजूद, ये किताबें उन्हें सकारात्मक रूप में चित्रित करती हैं.
दिलावर ने संवाददाताओं से कहा, “ये किताबें आपातकाल के लिए ज़िम्मेदार लोगों का महिमामंडन करती हैं. ये सरदार वल्लभभाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, डॉ. बीआर अंबेडकर और भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे महान नेताओं के योगदान को नज़रअंदाज़ करती हैं.” उन्होंने आगे कहा, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 11 साल के नेतृत्व या भैरों सिंह शेखावत और वसुंधरा राजे जैसे पूर्व मुख्यमंत्रियों का कोई ज़िक्र क्यों नहीं है?”

दिलावर ने आगे कहा कि चूँकि इन किताबों का परीक्षा संबंधी कोई महत्व नहीं है, इसलिए इन्हें पाठ्यक्रम में बनाए रखने से छात्रों पर बोझ और बढ़ जाता है. उन्होंने देर से वापसी को यह कहते हुए उचित ठहराया, “सिर्फ़ इसलिए कि इन किताबों की छपाई में पैसा खर्च किया गया है, इसका मतलब यह नहीं कि हमें अपने बच्चों को ज़हर परोसना चाहिए. हम छात्रों को गलत सूचना से बचाने के लिए यह नुकसान उठाने को तैयार हैं.”
राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मंडल ने 2025 के शैक्षणिक सत्र के लिए इन किताबों की 4.90 लाख प्रतियाँ पहले ही छाप दी हैं, जिनमें से 80% कथित तौर पर 19,700 स्कूलों में वितरित की जा चुकी हैं. इस देरी से हटाए जाने की वित्तीय बर्बादी और पाठ्यक्रम अस्थिरता को लेकर आलोचना हुई है.
यह एक वैचारिक हमला है
इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, कांग्रेस नेता गोविंद सिंह डोटासरा ने भाजपा सरकार पर विभाजनकारी वैचारिक एजेंडा आगे बढ़ाने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा, “यह एक वैचारिक हमला है और आरएसएस की संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है.” “इन किताबों को पिछली भाजपा सरकार, जिसमें शिक्षा विभाग भी शामिल है, ने मंजूरी दी थी. अब क्या बदल गया है?”
डोटासरा ने हटाने के पीछे के औचित्य पर सवाल उठाते हुए इसे पूर्व कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों की विरासत को मिटाने का प्रयास बताया. “क्या भाजपा जवाहरलाल नेहरू के योगदान को मिटाने की कोशिश कर रही है, जिन्होंने आईआईटी, आईआईएम, इसरो और एम्स जैसे आधुनिक संस्थानों की नींव रखी थी? क्या वे बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, पोखरण परमाणु परीक्षण और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के दौरान इंदिरा गांधी के नेतृत्व को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं?”
उन्होंने राजीव गांधी—जिन्होंने कम्प्यूटरीकरण की शुरुआत की और पंचायती राज को मज़बूत किया—और मनमोहन सिंह, जिन्हें भारत के आर्थिक उदारीकरण का श्रेय दिया जाता है, की विरासत का भी बचाव किया.
डोटासरा ने आगे कहा, “क्या इन संदर्भों को हटाकर भाजपा हमारे छात्रों से इतिहास छिपाने की कोशिश कर रही है? यह सिर्फ़ पाठ्यक्रम में बदलाव नहीं है—यह युवा मन की दिशा को नियंत्रित करने का एक प्रयास है.”
जैसे-जैसे यह बहस तेज़ होती जा रही है, यह विवाद भारत के ऐतिहासिक आख्यान को आकार देने में शैक्षिक सामग्री और राजनीतिक विचारधारा के बीच चल रही रस्साकशी को उजागर करता है.