Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

बोरे बासी

मजदूरी के लिए घर से निकलने वाले मजदूरों की साइकिलों में टंगे डब्बों को खोलकर देखिएगा उस पर बोरे बासी मिलेगा. मजदूरों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी. हर रोज की बात थी. मगर सरकार ने मजदूरों के उन डब्बों में ‘इवेंट’ ढूँढ लिया था. सरकार ने मजदूरों की मजबूरी बेच दी थी. सरकारें मजबूरी बेचना बखूबी जानती है. मजदूर दिवस को बोरे बासी दिवस बना दिया. एक बड़ा जलसा हुआ. इस जलसे में आठ करोड़ रुपए खर्च कर दिए. विभाग कह रहा है कि कार्यक्रम में पचास हजार मजदूर बुलाए गए थे. सबको बोरे बासी खिलाया गया. मंत्री, नेता और अफसरों ने भी खूब बोरे बासी का स्वाद लिया. मगर मजदूरों के हिस्से का बोरे बासी 150 रुपए का था और मंत्री, नेता और अफसरों को जो बोरे बासी परोसा गया वह 1500 रुपए का. अच्छा होता यदि सरकारी कार्यक्रम में खर्च हुई आठ करोड़ रुपए की रकम मजदूरों को नगद बांट दी जाती. औसतन 1700 रुपए हर मजदूर के हिस्से आता. मगर सरकार को ऊंची कीमत पर अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बटोरने की जिद थी. बोरे बासी का यह सरकारी कार्यक्रम बगैर किसी निविदा के ठेके पर दे दिया गया था. इवेंट कंपनी ने चवन्नी का बिल अठन्नी में लगाया. विधानसभा में भाजपा के वरिष्ठ विधायक राजेश मूणत ने इस मुद्दे को उठाते हुए इस पर बहस तेज कर दी. मंत्री ने विभागीय जांच पर हामी भरी, तो सदन में हंगामा बरपा. विधानसभा अध्यक्ष बोले, ‘बेहतर है कि आप जांच वापस लेने की घोषणा कर दीजिए. इस जांच की कोई विश्वसनीयता नहीं. गड़बड़ी करने वाला विभाग ही जांच करे, तो इसका कोई मतलब नहीं रह जाता’. स्पीकर का आशय यही रहा होगा कि बगुले से कहो कि मछली की सुरक्षा करे. मंत्री को यह समझते देर न लगी. मजबूरी में ही सही मंत्री ने सदन में विधायकों की समिति से जांच कराए जाने की घोषणा कर दी है. इधर बोरे बासी की जांच शुरू होने वाली है, उधर योग दिवस के आयोजन में 11 करोड़ रुपए खर्च होने का जिन्न बाहर आ गया है. न जाने अब इसमें कौन-कौन सी परतें उधड़ेंगी. 

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गोरखधंधा

सरकार का मतलब अब बदल गया है. सरकार का नया मतलब है- ‘इवेंट’. सरकार जमीन पर जितना काम नहीं करती, उससे ज्यादा का प्रदर्शन सरकारी इवेंट्स में करती दिखती है. पांच करोड़ की योजना नहीं होती, पंद्रह करोड़ रुपए इवेंट में फूँक दिए जाते हैं. एक बड़ा सा डोम, उस पर एक बड़ा मंच, मंच के आगे-पीछे बड़ी एलईडी, एसी, चमचमाती कुर्सियां, दो-ढाई हजार रुपए प्रति प्लेट का असाधारण खाना और ढेर सारी भीड़. सरकारी अफसर जितना काम दफ्तरों में नहीं करते, उससे ज्यादा इवेंट का रिहर्सल करते दिखते हैं. सरकार से जुड़े एक शख्स बताते हैं कि बीते चार-पांच सालों में इवेंट के नाम पर तीन सौ करोड़ रुपए से ज्यादा की चोट सरकारी खजाने को लगी है. यह पैसा भी एक-दो खास इवेंट कंपनियों के पास गया है, जिसकी हर सरकार में तगड़ी घुसपैठ रही है. बैनर छापने से लेकर बिल बनाने तक का सारा काम यही कंपनियां देखती हैं. ये इवेंट कंपनियां सरकारी संरक्षण में दस रूपए का गुलाब एक हज़ार रूपए में बेच देती है. सरकार उफ्फ तक नहीं करती. राज्य में सरकारी इवेंट के नाम पर एक तरह का गोरखधंधा चल पड़ा है. इन आंकड़ों को देखकर वित्तीय चुनौतियों से जूझती सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आनी चाहिए. असाधारण इवेंट को साधारण ढंग से आयोजित करते हुए भी सरकार अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट सकती है. चंद लोग इवेंट कंपनियों से कमीशन के नाम पर चिल्लर बटोर रहे हैं और बदनाम सरकार हो रही है. सरकार के वित्त विभाग को इस पर नकेल कसने की जरूरत है. कितना अच्छा होगा कि वित्त महकमा इस तरह के खर्चीले सरकारी इवेंट्स पर पाबंदियों की अपनी मुहर लगा दे.

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कोई क्या उखाड़ लेगा!

सरकारी नौकरी में कुछ बातें अनकही होती हैं, लेकिन universally understood होती हैं : जैसे, मंत्री का कोई करीबी अगर सप्लायर हो, तो उसकी सरकारी सप्लाई को भी उत्कृष्ठ ही माना जाएगा. अब गलती कहिए या गुस्ताखी. एक अफसर ने इस मान्य परंपरा को चुनौती दे दी. बात छोटी सी थी. सप्लाई में सामान घटिया निकला था. अफसर ने अपनी ड्यूटी निभाई और उस सप्लाई पर रोक लगा दी. बस यहीं से उनकी ईमानदारी ने उन्हें VIP लिस्ट से गिराकर VIL (Very Irritating List) में पहुंचा दिया. सप्लायर तो मंत्री का करीबी था. वह शिकायत लेकर सीधे मंत्री के पास पहुंच गया. बोला, फलाना अफसर सरकारी नियमों की किताब लेकर चलता है. बस फिर क्या था, मंत्री ने अफसर को देखना बंद कर उनकी फाइलें देखनी शुरू कर दी. अफसर की कोई नई भर्ती थी नहीं. न ही वह संविदा योद्धा है. वो तो Service Rules Part-1 से लेकर Pension Rules Annexure-C तक जी चुके है. चंद रोज में रिटायर होने वाले हैं. मंत्री को जब यह मालूम हुआ, तो उन्होंने भी इस मामले में मिट्टी डालने का सुझाव यह कहते हुए दे दिया कि अभी इसे छोड़ दो, जो अगला अफसर आएगा, उसी से हिसाब कर लेंगे. सप्लायर को हैसियत बताने वाले अफसर अब बेफिक्री के साथ बचे हुए दिन गुजार रहे हैं. यह सोचकर कि उनका कोई क्या ही उखाड़ लेगा? 

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 साइड इफेक्ट 

शराब पीने से लीवर खराब हो सकता है. ये तो हमने सुना था, पर शराब बेचने से, बांटने से और घोटाला करने से क्या-क्या खराब होता है. यह कभी किसी ने नहीं बताया था. जब राज्य में भारी भरकम शराब घोटाला हुआ, तब जाकर इसका साइड इफेक्ट समझ आया. पूर्व आईएएस, पूर्व मंत्री समेत कई हैं, जो पहले से जेल में हैं और अब ईडी ने पूर्व मुख्यमंत्री के साहबजादे को उठाया है. ईडी ने पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे को कोर्ट में पेश किया और रिमांड पर लेकर पूछताछ शुरू कर दी है. चर्चा है कि पूर्व मुख्यमंत्री के करीबी कारोबारी पप्पू बंसल के दिए गए बयान में बेटे की संलिप्तता सामने आई. सुर्खियों में यह बात भी आई है कि घोटाले की एक बड़ी रकम पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे तक पहुंची. बहरहाल, शराब घोटाले में लिप्त रहे लोग एक-एक कर जेल जा रहे हैं, मगर हैरानी की बात यह है कि शराब तंत्र को सुव्यवस्थित चलाने वाले सरकारी अधिकारियों की गिरफ्तारी पर अघोषित प्रतिबंध क्यों और किसने लगा रखा है? कोर्ट में ईओडब्ल्यू की चार्जशीट पेश होने के बाद सरकार ने शराब विभाग के 22 अधिकारियों को निलंबित कर दिया था. निलंबित अधिकारियों की अग्रिम ज़मानत याचिका कोर्ट ने ख़ारिज कर दी है, बावजूद इसके शराब अधिकारियों की गिरफ्तारी पर चुप्पी समझ के परे है. गिरफ्तारी पर ओढ़ी गई खामोशी डिस्टलरी संचालकों पर भी है. चार्जशीट में हर किसी की भूमिका स्पष्ट बताई गई है, फिर चेहरा चुन-चुनकर सलाखों में भेजने के पीछे कौन खड़ा है? सवाल यह नहीं है कि कुछ लोग पकड़े जा रहे हैं? सवाल यह है कि बाकी बच कैसे रहे हैं? वह कौन है जिसने अपने हाथों में  ‘यहां से आगे गिरफ्तारी निषिद्ध है’ लिखी हुई तख्ती थाम रखी है.

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सड़क मांगी, मिली FIR

लोकतंत्र में अब सड़क मांगना भी अपराध हो गया है. सड़क मांगने पर सीधे एफआईआर मिलती है. जेल की सलाखें मिलती है. पिछले दिनों बिलासपुर जिले में यह तस्वीर दिखी. एक गांव में सड़क की मांग को लेकर ग्रामीण आंदोलन कर रहे थे कि अचानक केंद्रीय मंत्री की गाड़ियों का काफिला वहां आ पहुंचा. आंदोलनरत ग्रामीणों को लगा कि केंद्रीय मंत्री उनका दुख बांटने आए होंगे. ग्रामीणों को उम्मीद थी कि झूठा ही सही कम से कम आश्वासन की राहत तो मिलेगी. मगर ग्रामीणों का भ्रम झट से टूट गया. जब उन्हें यह पता चला कि मंत्री उनका दुख-दर्द बांटने नहीं आए हैं, बल्कि उनका काफिला बस उस रास्ते से गुजर रहा है. ग्रामीण तो रोड़ा बनकर सामने आ गए हैं. सालभर पहले ही मंत्री जी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर ग्रामीणों से वोटों की भीख मांगी थी, आज उनकी नजरों ने सड़क की दरख्वास्त लिए खड़े वोट देने वाले उन्हीं ग्रामीणों को नजरअंदाज कर दिया. बहरहाल, मंत्री जी का काफिला पीछे लौट पड़ा. आंदोलनरत ग्रामीणों को बदले में एफआईआर दी गई. माननीय मंत्री जी को यह आभाष भी नहीं कि वह आज जिस कुर्सी पर हैं, वह घमंड में चूर है. सत्ता की यह कुर्सी घमंड और अहंकार धारण करती है. मगर जब वह उस कुर्सी से उतरेंगे, तो घमंड टूटकर गांव की उन्हीं टूटी-फूटी सड़कों पर बिखर जाएगा.