मुजफ्फरपुर। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के मीनापुर, अहियापुर और आसपास के इलाकों में 80 मुस्लिम परिवारों द्वारा बांसुरी बनाने की परंपरा आज भी जीवित है। इन कारीगरों का यह काम न सिर्फ उनके लिए आजीविका का साधन है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक धरोहर भी बन चुकी है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी संगीत के माध्यम से भाईचारे का संदेश देती है। मुजफ्फरपुर की बांसुरी न केवल बिहार, बल्कि पूरे भारत में अपनी ध्वनि और कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है। बनारस, मथुरा और प्रयागराज जैसे संगीत केंद्रों में इन बांसुरियों की मांग है, और कई बार विदेशी पर्यटक भी इन्हें खरीदने आते हैं।
बांस का उपयोग किया जाता
कारीगरों के अनुसार, बांसुरी बनाने के लिए विशेष प्रकार के बांस का उपयोग किया जाता है, जो उत्तर प्रदेश और असम से मंगवाया जाता है। इसके बाद इसे सुखाकर और तराशकर सुर के हिसाब से छेद किए जाते हैं। एक बांसुरी को तैयार करने में कई घंटे से लेकर कई दिन भी लग सकते हैं, यह उसके डिजाइन और गुणवत्ता पर निर्भर करता है।
पूरे साल रहती है मांग
हालाँकि बांसुरी की मांग पूरे साल बनी रहती है, लेकिन त्योहारों और मेलों के दौरान इसकी बिक्री में खासा इजाफा देखा जाता है। इन कारीगरों का मानना है कि चाहे आधुनिक वाद्य यंत्रों का चलन बढ़ जाए, लेकिन बांसुरी की मिठास और इसकी कारीगरी की अहमियत कभी खत्म नहीं होगी।
सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा बन चुकी है
इन परिवारों के लिए बांसुरी सिर्फ एक पेशा नहीं, बल्कि यह उनके सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा बन चुकी है, जो संगीत की आत्मा को जीवित रखे हुए है।
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