अमित पांडेय, खैरागढ़। खैरागढ़ से निकली यह घटना किसी भी संवेदनशील दिल को झकझोरने के लिए काफी है। ग्राम मोगरा निवासी गौतम डोंगरे और उनकी पत्नी कृति अपनी रोज़ी-रोटी के लिए हैदराबाद में मजदूरी करते हैं। उनकी दो वर्षीय बेटी बीमार हुई तो वे तुरंत उसे लेकर घर लौटने को निकले, लेकिन किस्मत इतनी बेरहम निकली कि हैदराबाद से चली ट्रेन में ही बच्ची ने पिता की गोद में दम तोड़ दिया। राजनांदगांव स्टेशन पर पहुंचकर गौतम ने सरकार की “मुक्तांजलि शव वाहन सेवा” से मदद मांगी, ताकि बेटी का शव गांव तक ले जाया जा सके। लेकिन जवाब मिला कि यह सुविधा सिर्फ तब मिलती है जब मौत सरकारी अस्पताल में दर्ज हो। सरकारी इंतजाम से मायूस पिता ने अपनी मासूम बेटी की लाश को सीने से चिपकाए, साधारण बस से खैरागढ़ तक का सफर किया। यह सफर महज दूरी का नहीं था, बल्कि टूटी उम्मीदों, बेबसी और आंसुओं का सफर था।

खैरागढ़ बस स्टैंड पर जब बस रुकी तो परिवार पूरी तरह अकेला था। न गांव का कोई साथ था, न रिश्तेदारों का सहारा। उसी वक्त आगे आए समाजसेवी हरजीत सिंह। उन्होंने बिना किसी दिखावे और बिना किसी स्वार्थ के इंसानियत का हाथ बढ़ाया। हरजीत सिंह ने न सिर्फ परिवार को घर तक पहुंचाया बल्कि अंतिम संस्कार की हर प्रक्रिया में साथ खड़े रहे। हरजीत सिंह ने कहा कि “उस पल मैंने सिर्फ इतना सोचा कि यह बच्ची मेरी भी बेटी हो सकती थी। इंसानियत के नाते उनका हाथ थामना मेरा फर्ज था। दुख में साथ देना ही असली समाज और असली धर्म है।” गांव ने प्रेम विवाह करने वाले इस दंपत्ति का बहिष्कार कर रखा था। बेटी की मौत के बाद भी गांववाले शोक बांटने तक नहीं आए। ऐसे समय में जब समाज चुप रहा, तब हरजीत सिंह ने साबित किया कि इंसानियत किसी जाति, बिरादरी या रिवाज से बड़ी होती है।

एक ओर सरकार के खोखले वादे पिता को मजबूर कर देते हैं कि वह अपनी बेटी की लाश बस में ढोए, वहीं दूसरी ओर समाज भी जातीय जंजीरों में जकड़ा हुआ है जो दर्द में भी सहारा नहीं देता। लेकिन इस अंधेरे में भी हरजीत जैसे लोग उम्मीद की लौ बनकर सामने आते हैं। यह कहानी सिर्फ एक मासूम की मौत की नहीं, बल्कि यह याद दिलाती है कि इंसानियत आज भी जिंदा है बस जरूरत है कि हम उसे पहचानें और जीएं।