Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

मंत्रिमंडल विस्तार

आखिरकार वो ऐतिहासिक घड़ी आ ही गई, जब साय मंत्रिमंडल का विस्तार हो गया. तीन नए चेहरे सरकार में शामिल हुए. एक चेहरा सामाजिक समीकरण के लिए चुना गया, एक चेहरा हाईकमान के आदेश पर आया और एक चेहरे ने सीधे बिजनेस क्लास की टिकट कटाकर सरकार में अपनी आपात लैंडिंग कराई. खैर, मीडिया की भीड़ में, जब सबसे पहले मंत्रियों के नामों का खुलासा किए जाने की वाहवाही लूटी जा रही हो, तब यह बताना जरूरी है कि लल्लूराम.काम ने 5 अगस्त की अपनी एक रिपोर्ट में यह बता दिया था कि मंत्रिमंडल में शामिल होने वाले संभावित चेहरों की चर्चा में दो नए नाम जुड़ गए हैं. यह नाम थे गुरु खुशवंत साहेब और राजेश अग्रवाल. गजेंद्र यादव के नाम का बुलबुला तो तब से बना हुआ था, जब से मंत्रिमंडल विस्तार की सुगबुगाहट शुरू हुई थी. गुरु खुशवंत साहेब के लिए दिल्ली ने वीटो लगा दिया था. सुना है कि मंत्रिमंडल विस्तार सिर्फ इसलिए टलता रहा क्योंकि गुरू खुशवंत साहेब के नाम पर राज्य के नेताओं के बीच सहमति नहीं बन पा रही थी. मगर दिल्ली अड़ गया. कोई गुंजाइश नहीं रही. रही बात राजेश अग्रवाल की, तो यह कहा जा रहा है कि उन्होंने सरकार में वाइल्ड कार्ड एंट्री ली है. सरकार में सरगुजा का पलड़ा पहले से ही भारी था. बावजूद इसके वजनदार राजेश अग्रवाल का भार मंत्रिमंडल पर डालने के लिए किसी तरह का राजनीतिक नहीं, बल्कि व्यापारिक दबाव था. बहरहाल जैसे-तैसे मंत्रिमंडल पूरा हो गया. एक चुनौती खत्म हुई, अपार चुनौतियां सामने उठ खड़ी हुई. वैसे मंत्रिमंडल के इस विस्तार को देखें, तो यह वाकई लगता है कि राजनीति में कुर्सी पाने का मापदंड अब सिर्फ ‘योग्यता’ नहीं रह गई है. 

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लाक्षागृह 

किसी भी राजनीतिक दल में आयात किए गए नेता तब तक हाशिए पर रखे जाते हैं, जब तक पार्टी की विचारधारा के प्रति नेता की निष्ठा उसके आचरण में दिखने न लग जाए. राजनीति का यह सामान्य नियम है कि आयातित नेता महज रणनीतिक फायदे के लिए ही लाए जाते हैं. और बात जब बीजेपी की हो, तब मामला थोड़ा नाज़ुक हो जाता है. बीजेपी कुछ साल पहले तक विचारधारा के इतर बात करती नहीं दिखती थी, मगर अब हालात बदल गए हैं. बदली हुई बीजेपी ‘ऐन केन प्रकारेण’ के सिद्धांत पर चल रही है. अब ‘निष्ठा’ जैसे शब्द बीजेपी के लिए कोई मायने नहीं रखते. बीजेपी अब दूर की कौड़ी नहीं खेलती, बल्कि तात्कालिक फायदा ढूंढकर निर्णय लेती दिखती है. हालिया मंत्रिमंडल विस्तार का कुल जमा निष्कर्ष यही दिख रहा है. स्थानीय भाजपा का हर बड़ा रणनीतिकार नामों के चयन पर हतप्रभ है. भाजपा सरकार में बरसो तक मंत्री रह चुके एक नेता कहते हैं कि ”जब कोई दल अपने मूल्यों से हटकर फैसले लेने लगे तो समझिए, भीतर कुछ टूट रहा है. इस तरह से ही एक विचारधारा का चुपचाप पतन होना शुरू होता है. लग रहा है कि वैचारिक प्रतिबद्धता पार्टी में अब अप्रासंगिक हो गई है”. एक दूसरे पूर्व मंत्री कहते हैं कि ”मौजूदा हालात देखकर मैंने पार्टी का नाम बदल दिया है. मैं इसे अब ‘भारतीय जनता पार्टी’ की जगह ‘भारतीय जनता प्लेसमेंट’ एजेंसी कहना बेहतर मानता हूं”. बहरहाल अब लोग पूर्व मंत्रियों की इन टिप्पणियों को उन्हें मंत्री न बनाए जाने की झुंझलाहट मान भी लें! क्या यह सवाल नहीं उठ रहा है कि संगठन की मेहनत के बूते बने ‘लाक्षागृह’ पर विरोध के घर्षण की चिंगारी निकल रही है. किसी भी दल की सरकार में बना सरकारी किला ठोस नहीं होती. लाख, भूसा, लकड़ी और मूंज से मिलकर किसी दल की सरकार का किला बनता है. एक छोटी सी चिंगारी भी इस किले के लिए खतरा है.

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दो विपक्ष

सत्तापक्ष के सामने एक ही विपक्ष होता है. मगर सूबे की सियासत ने ऐसी करवट ली है कि सत्तापक्ष दो विपक्ष से जूझने लगा है. एक विपक्ष सामने खड़ी राजनीतिक पार्टी है, दूसरा विपक्ष सत्तापक्ष के ख़ुद के घर के भीतर है. खुली आंखों से दिखाई पड़ने वाले विपक्ष से लड़ने की रणनीति बनाना आसान है, लेकिन घर के भीतर के विपक्ष से लड़ना ज्यादा चुनौतीपूर्ण है, वह भी तब जब विपक्ष में खड़े चेहरे सियासी तौर पर धुरंधर माने जाते हो. पहले संगठन और फिर बाद में मंत्रिमंडल विस्तार का चयन. दोनों ही मोर्चों पर लिए गए फैसलों के बाद सत्तापक्ष की भीतरी दीवारों पर गहरी चोट लगी है. दीवार पर दरारें उभर आई हैं. इन दरारों को जल्द न भरा गया, तो एक वक्त के बाद इसके भरभराकर गिरने का खतरा मंडराने लगेगा. वैसे भी सरकार में अनुभवी चेहरे कम हैं. कोई युक्ति ढूंढ लेना ही बेहतर है. 

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जादुई दरवाजा

जब कभी भी आप जेम पोर्टल का नाम सुने, तो इसे पारदर्शिता का प्रतीक कतई न माने. दरअसल यह वह जादुई दरवाजा है, जहां अफसर घोटाले की ज़मीन पर अपने अनूठे किस्म की शर्तों से बनी कालीन बिछाकर ठेकेदारों का स्वागत करते हैं.  खेल विभाग का मामला ही देख लीजिए. बस्तर ओलंपिक के लिए ट्रैक सूट की खरीदी प्रक्रिया में गड़बड़ी की कलई खुलने के बाद अब कबड्डी मैट की खरीदी ने विभाग की साख को मटियामेट कर दिया है. आरोप है कि विभाग ने खिलाड़ियों के लिए कबड्डी मैट बिछाने से पहले ठेकेदार के लिए घोटाले की चटाई बिछा दी. कबड्डी मैट के लिए निकाले गए टेंडर में एक सप्लायर को छोड़कर बाकी सभी को डिस्क्वालिफाई कर दिया गया. टेक्निकल बिड क्वालीफ़ाई करने वाला सप्लायर बिजली ठेकेदार निकला. बिजली ठेकेदार की कंपनी को एल 1 मिला और उसने कबड्डी मैट की सप्लाई कर दी. कबड्डी मैट की खरीदी करने वालों ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी थी. सरकारी तंत्र में न जाने वह कौन सी अदृश्य शक्तियां हैं, जो हर ग़लत फैसलों पर सच की मुहर लगा देती है. सरकार की आंखों के सामने सब कुछ है, मगर हैरानी है कि फिर भी कुछ दिखाई क्यों नहीं दे रहा. महकमे में नए मंत्री आ गए हैं. नियम-कानून-कायदों के जानकार हैं, देखते हैं कि घोटाले की चमचमाती कालीन पर उनकी नजर कब टेढ़ी होती है. 

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आज शनिवार है…

सरकार ने जब से शनिवार की छुट्टी रद्द की है, तब से आराम परस्त अफसरों को चैन ही चैन है, लेकिन एक अफ़सर ऐसे हैं, जो शनिवार को भी ‘श्रम’ करने से नहीं चूकते. हफ्ते के पांच दिन काम करते हुए भी उन्हें शनिवार का इंतज़ार होता है. शनिवार के एक दिन पहले यानी शुक्रवार को वह अपनी डायरी में उन कारखानों की लिस्ट बना लेते हैं, जहां उन्हें औचक निरीक्षण के लिए जाना होता है. कारखाना चलाने वाले अब उनके नाम से दहशत में रहने लगे हैं. हर शनिवार उनकी जेब ढीली होने का डर उन्हें खूब सताता है. हज़ार-पांच हज़ार की बात होती तो कोई बात न थी, श्रम वीर अफसर की ख्वाहिशों का आसमान बड़ा है. अफ़सर की मेहनत का अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि शुरू-शुरू में शनिवार को उनका ‘श्रम’ दान राजधानी के औद्योगिक इलाकों तक सीमित था, मगर अब वह दूरदराज़ की यात्रा पर निकल पड़ते हैं. अपनी मेहनत से वह विभाग में खूब सुर्खियां बटोर रहे हैं. इतना ही नहीं अपने अधीनस्थों के सामने एक मिसाल क़ायम कर रहे हैं. 

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विदाई पार्टी !

पीसीसीएफ़ वाइल्ड लाइफ ने अपने हक की खूब लड़ाई लड़ी, मगर हर बार उनके हाथ खाली ही रहे. कुछ ठोस लगा नहीं. ख़ुद से जूनियर अफ़सर की महकमे में ताजपोशी हुई, तब वह कैट चले गए. हाईकोर्ट का रुख़ किया और अब सुप्रीम कोर्ट की दहलीज़ पर हैं. सुप्रीम कोर्ट 12 सितंबर को उनकी लगाई याचिका पर सुनवाई करेगा. यह सुनवाई इस बात पर होगी कि यह याचिका सुनवाई योग्य है भी या नहीं? मगर पीसीसीएफ़ वाइल्ड लाइफ की क़िस्मत देखिए, वह 31 अगस्त को रिटायर हो रहे हैं. आखिरी वक्त तक उन्होंने अपनी लड़ाई नहीं छोड़ी. खैर, उनकी विदाई को लेकर अब अफसरों के बीच कानाफूसी चल रही है कि विदाई पार्टी का स्वरूप क्या होगा. इससे पहले जब पीसीसीएफ़ स्तर के एक अधिकारी की विदाई हुई थी, तब बड़ा जलसा हुआ था. अब लोग एक-दूसरे की बगले झांकते दिख रहे हैं कि विदाई पार्टी का इनिशिएटिव कौन लेगा?