सुप्रिया पांडेय, रायपुर. पुरानी कहावत है, “जब तक श्राद्ध में कौवे नहीं आएंगे, तब तक पितरों को भोजन कैसे पहुंचेगा?” हमारे समाज में कौवों का संबंध पितृ पक्ष से इतना गहरा है कि उनके बिना श्राद्ध अधूरा माना जाता है. हर साल जब श्राद्ध का समय आता है, घर के आंगन में, छत पर या मंदिर के बाहर एक थाली सजाई जाती है, कपूर की हल्की खुशबू और थाली में सजता पितरों का भोजन.. लेकिन जैसे ही वह थाली रखी जाती है, एक खामोशी छा जाती है, उस खामोशी में एक सवाल उठता है कहां हैं वे कौवे?
एक समय था जब कौवों का झुंड घर की छत पर मंडराता था. उनकी कांव-कांव की आवाज में जैसे कोई संदेश छिपा होता था. लोग कहते थे, “देखो, कौवा बोला है, कोई मेहमान आने वाला है.” आंगन में पसरते हुए सूरज की पहली किरणों के साथ ही कौवों का झुंड जैसे घर को जगाने आता था. वे सूखते अनाज को चुगते, आंगन में खेलते और आसमान में उड़ते, लेकिन आज, आधुनिक शहरों की चकाचौंध में वे न जाने कहां खो गए हैं.

शहर की ऊंची-ऊंची इमारतें, कंक्रीट के जंगल और हर तरफ फैलता शोर, ये सब मानो कौवों के लिए खतरे की घंटी बन गए हैं. पहले जो शहर कौवों और चिड़ियों की चहचहाहट से गूंजते थे, आज वहां सिर्फ वाहनों की आवाजें और मशीनों का शोर सुनाई देता है. पक्षियों की जगह अब उन ऊंची इमारतों के खिड़कियों पर एयर कंडीशनर लगे हैं. रायपुर के कुछ इलाकों में आज भी कौवे दिखते हैं, लेकिन वे भी गिनती में बचे हैं. पर्यावरण प्रेमी नितिन सिंघवी बताते हैं कि कौवे रायपुर के बूढ़ा तालाब और मोती बाग के गार्डन में कभी कभी नजर आते हैं, लेकिन वह पुरानी कांव-कांव की आवाज अब मानो सिर्फ यादों में सिमट गई है. कौवों की संख्या में कमी का मतलब केवल एक पक्षी की कमी नहीं, बल्कि हमारी परंपराओं और संस्कृति से दूर हो जाना भी है.
शहरों में पेड़-पौधों की कमी, शोरगुल, और प्रदूषण ने जैसे पक्षियों को हमसे दूर कर दिया है. पहले जहां घर-घर में दाना-पानी रखा जाता था, अब व्यस्त जिंदगी के कारण वह भी नहीं हो पाता. श्राद्ध का समय आने पर ही हमें कौवों की याद आती है और हम सोचते हैं कि वे आएंगे, भोजन चुगेंगे और हमारे पितरों तक संदेश पहुंचाएंगे. कहीं न कहीं, एक सवाल हमारे मन में उठता है कि क्या हम इन परंपराओं को यूं ही लुप्त होते देख सकते हैं? क्या हमारी नई पीढ़ी भी वही सुनहरे पल देख पाएगी, जब कौवों का झुंड आंगन में मंडराता था और उनकी आवाज हमारे दिन की शुरुआत करती थी?
शायद हमें फिर से एक बार प्रकृति की ओर लौटना होगा, अपने घर के आंगन में दाना-पानी रखना होगा और उन कांव-कांव की आवाज को वापस बुलाना होगा, तभी हमारे पितर भी तृप्त होंगे और हमारे श्राद्ध भी संपूर्ण. कौवे केवल पक्षी नहीं हैं, वे हमारे पूर्वजों और हमारी सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न हिस्सा है. हमें उन्हें लौटाना होगा, क्योंकि उनके बिना यह पितृ पक्ष अधूरा है और हमारी परंपराएं भी अधूरी है.
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