Sharadiya Navratri 2025. आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि (22 सितंबर) से शारदीय नवरात्रि की शुरुआत हो रही है. नवरात्रि की ये नौ दिन माता दुर्गा की आराधना को समर्पित होतो हैं. ये नौ दिन हमें शक्ति उपासना, भक्ति, सदाचार, समर्पण, त्याग, आध्यात्म की ओर प्रेरित करते हैं. व्रत या पूजन का वास्तविक उद्देश्य भी यही है. देश भर में नवरात्रि की धूम रहती है. भारत में कई देवी मंदिर हैं. इसी तरह उत्तर प्रदेश में भी मां भगवती के कई ऐसे मंदिर हैं जो अपने आप में अद्भुत हैं. जो आध्यात्मिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण हैं ही, लेकिन कुछ मंदिर भौगोलिक और दृष्टि से भी इन मंदिरों का काफी महत्व है. कुछ मंदिर ऐसे हैं जहां से कुछ चीजों का मानक तय होता है. चलिए जानते हैं उत्तर प्रदेश ऐसे ही कुछ मंदिरों के बारे में.
मां विंध्यवासिनी मंदिर
उत्तर प्रदेश के मिरजापुर जिले में स्थित मां विंध्यवासिनी का मंदिर है. प्राचीन मान्यता वाला ये मंदिर बेहद महत्वपूर्ण स्थान है. क्योंकि यहीं से भारतीय समय का मानक तय होता है. विंध्यवासिनी धाम और भारतीय मानक समय के महत्व की जानकारी भी इस मंदिर से मिलती है. जो न केवल धार्मिक बल्कि भौगोलिक दृष्टिकोण से भी खास है. इसी जगह से भारत का मानक समय IST (इंडियन स्टैंडर्ड टाइम) तय होता है. रावण द्वारा स्थापित शिवलिंग और मानक समय स्थल के रूप में विंध्य क्षेत्र का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है. इतना ही नहीं इसे सृष्टि की उत्पत्ति का केंद्र भी माना जाता है.
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2007 में किया गया इस स्थल का चिन्हांकन
2007 में भूगोलविदों ने इस स्थान को मानक समय स्थल के रूप में चिह्नित करते हुए यहां पर एक बोर्ड लगाया था. लेकिन इसके बारे में लोगों को जानकारी नहीं है. स्थानीय निवासी भी इस बोर्ड की उपयोगिता से अनजान हैं. यहां तक कि बोर्ड पर लोग पंपलेट चस्पा कर रहे हैं, जिससे इसकी ऐतिहासिकता और महत्ता नजरअंदाज हो रही है. भूगोलविदों की राय है कि ऐसे महत्वपूर्ण स्थलों के बारे में जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है ताकि इन्हें संरक्षित किया जा सके और उनकी पहचान बनी रहे.

विंध्याचल धाम का आध्यात्मिक पहलू
मान्यातओं के अनुसार भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जब कंस के कारागृह में मां देवकी और वासुदेव के यहां जन्म लिया तब नंदबाबा और मां यशोदा के यहां एक कन्या का भी जन्म हुआ था. उनको वासुदेव ने आपस में बदल लिया. जब कंस ने कन्या को मारने की कोशिश की तो वह देवी योगमाया के रूप में बदल गईं. माता ने कंस से कहा कि जो तुझे मारेगा उसने तो जन्म ले लिया है और सुरक्षित है. इतना कहकर देवी विंध्याचल पर्वत पर निवास करने के लिए चली गईं.
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यहीं हुई श्री विंध्यवासिनी स्त्रोत की रचना
कहा जाता है कि महाभारत के पहले भगवान श्रीकृष्ण पांडवों को यहां युद्ध में विजय का आशीर्वाद मांगने के लिए लेकर आए थे. जहां युधिष्ठिर और अर्जुन ने स्व रचित स्तोत्र ‘निशुम्भ शुम्भ गर्जनी, प्रचण्ड मुण्ड खण्डिनी। वनेरणे प्रकाशिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी’ से उनकी स्तुति की थी जो आज भी प्रचलित है. जिसे विंध्यवासिनी स्तोत्र के नाम से जाना जाता है. इस महाशक्तिपीठ में वैदिक और वाम मार्ग दोनों विधि से भगवती का पूजन होता है.
मां विशालाक्षी मंदिर
उत्तर प्रदेश का एक और ‘शक्ति स्थल’ जहां विराजित हैं मां विशालाक्षी. बाबा विश्वनाथ मंदिर के निकट ही मां विशालाक्षी का मंदिर है. जो कि माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है. मान्यताओं के अनुसार, मां विशालाक्षी बाबा विश्वनाथ की अर्धांगिनी के रूप में विराजित है. बाबा विश्वनाथ यहीं पर प्रतिदिन रात्रि शयन करते है. काशी की टेढ़ी मेढ़ी गलियों के बीच देवी का ये शक्ति पीठ है, जहां श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है. मान्यता के अनुसार यहां पर देवी के गृहिणी स्वरूप की भी पूजा की जाती है. स्कंद पुराण के अनुसार एक बार ऋषि वेद व्यास वाराणसी में भूख से व्याकुल होकर घूम रहे थे, लेकिन उन्हें किसी ने भोजन नहीं दिया. अंत में मां विशालाक्षी एक गृहिणी के रूप में प्रकट हुईं. फिर उन्होंने वेद व्यास को भोजन कराया. मां विशालाक्षी की ये भूमिका देवी अन्नपूर्णा के समान है.

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जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य ने की थी देवी की प्रतिष्ठा
मां विशालाक्षी मंदिर में जो मुर्तिया हैं, पुजारियों के मुताबिक वर्तमान में जिस प्रतिमा के दर्शन होते हैं, उसके ठीक पीछे मां आदि शक्ति की प्रतिमा है. उनके आगे श्रीयंत्र था. पीछे जो माता की प्रतिमा है, उनका तेज बहुत अधिक होने के कारण उन्हें सामने से कोई देख नहीं पाता था. तब आदि शंकराचार्य ने श्रीयंत्र के उपर देवी की दूसरी प्रतिमा स्थापित की. विशालाक्षी मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर एक गोपुरम है. मंदिर में शिव लिंगम, नाग (दिव्य नाग) और श्री गणेश जी का विग्रह भी स्थापित है. गर्भगृह के पीछे आदि शंकराचार्य की एक संगमरमर की मूर्ति भी है. जब आदि शंकराचार्य मंदिर में आए, तब उन्होंने यहां एक श्रीयंत्रम भी स्थापित किया जिसकी पूजा की जाती है. इस श्रीयंत्रम की कुमकुम अर्चना बहुत शुभ मानी जाती है.
मां तरकुलहा देवी मंदिर
गोरखपुर में स्थित तरकुलहा देवी का मंदिर (Maa Tarkulha Devi Temple) विशेष महत्व रखता है. ये मंदिर न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम का भी महत्वपूर्ण स्थल रहा है. मंदिर की कहानी चौरीचौरा तहसील क्षेत्र के डुमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह से जुड़ी है. बाबू बंधु सिंह (Babu Bandhu Singh) महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे. बाबू बंधु सिंह ने अंग्रेजों से बचने के लिए जंगल में छिपकर तरकुल के पेड़ (Tarkul tree) के नीचे एक पिंडी स्थापित की थी. यहीं से उन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाया. उन्होंने कई अंग्रेज अफसरों को हराया. उनके बलिदान के दौरान तरकुल का पेड़ टूट गया, जिससे खून बहने लगा. तभी से इस पिंडी को तरकुलहा देवी के नाम से जाना जाने लगा.

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7 बार टूटा था फांसी का फंदा
जानकारी के मुताबिक बंधु सिंह को जब फांसी दी जा रही थी तब 7 बार फांसी का फंदा टूटा था. अंततः बंधु सिंह ने देवी मां से प्रार्थना की और कहा कि हे मां मुझे अपने चरणों में बुला ले. तब उन्होंने खुद ही अपने गले में फंदा डाला और वीरगति को प्राप्त हुए. ये स्थल आज भी श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है. मंदिर अब भक्तों की आस्था का प्रमुख केंद्र बन चुका है. मां दुर्गा का आशीर्वाद श्रद्धालुओं को हमेशा मिलता रहा है और शहीद बंधु सिंह के बलिदान ने इस स्थान की मान्यता को और बढ़ाया है. तरकुलहा देवी मंदिर आज एक प्रेरणादायक स्थल है, जहां भक्त अपनी श्रद्धा के साथ आते हैं और मां के चरणों में माथा टेकते हैं
उत्तर प्रदेश में इसके अलावा भी कई ऐसे मंदिर हैं जिसमें आस्था, आध्यात्म, शक्ति, राष्ट्र भक्ति और भौगोलिक घटनाओं के केंद्र के अलावा भी कई विशेषताएं हैं.
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